आभारी और अनुगृहीत

देश में आर्थिक क्रांति हो गई है, इसकी खबर सबको दे दी गई है। देश में समावेशी विकास हो रहा है, अर्थात् इस बदले हुए ज़माने में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं। इसका प्रचार ध्वनि प्रदूषण का खतरा पैदा करने के बावजूद सरकारी भोंपू बहुत खूबी से कर रहे हैं।
भई, हमारी सरकार है। हमारी वोटों के बलबूते से बनी सरकार है। एक जन-कल्याणकारी राष्ट्र की सरकार है, ऐसा संविधान ने हमें बताया है। इसलिए क्यों न हम उसका विश्वास कर लें। फिर विश्व व्यापार संगठन के मंच से ट्रम्प महोदय और उनके धनपति सहयोगी भी तो चिल्लाने लगे कि भारत और चीन अब अल्पविकसित राष्ट्र नहीं, बल्कि विकसित राष्ट्र बन चुके हैं, फिर भी अपना व्यापार और विकास करते हुए वे विश्व व्यापार मंच से अल्पविकसित राष्ट्रों को मिलने वाली सब राहतें लिए जा रहे हैं। भई, बन्द करो, इनकी सब राहतें, इनको लम्बे-चौड़े अनुदान और आर्थिक मदद के स्रोत बंद करें। उन्होंने जो हमारे निर्यात पर कस्टम और टैक्स की ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर रखी हैं, इन्हें गिरा दो, ताकि हम चचा सैम सुविधा से अपना फालतू माल भारत में बेच सकें। इनकी मंडियों को अपने घटिया और मशीनी सामान से भर सकें।
उधर ब्रिटेन वासी परेशान हैं, भई इनको अपने लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति की सहायता से सफेद कालर वाले बाबू बनाने की दीक्षा देकर आये थे। ‘मेक इन इंडिया’ का अभियान तो इनका ठीक था, क्योंकि इससे हमारी या चचा सैम की बेकारी पूंजी श्रम और उद्यमियों को ठिकाना मिल जाता। लेकिन यह अपने देश में स्वदेशी उत्पादन और निवेश की सहायता से ‘मेड इन इंडिया’ और कुशल भारत बना ‘र्स्टाटअप इंडिया’ के सपने देखने लगे। इनकी बड़ी-बड़ी मंडियां और बेशुमार अतृप्त मांग अपने हाथ से निकल जायेगी। फिर हमारा बेकार, श्रम और पूंजी किस काम लगेगा? अभी पिछले दुर्दिन ही नहीं भूले, जब अपना अत्याधिक उत्पादन न बिके की सूरत में उसे समुद्र में डुबो कर नष्ट कर देना पड़ता था ताकि वह मांग के मुकाबले अत्याधिक पूर्ति उत्पादन को घाटे का पैगाम न दे दे। 
लेकिन इसके बावजूद दुनिया के ये सर्व-सम्पन्न देश महामन्दी से बच न सके। इसलिए ज़रूरत है कि हमारी मंडियां उनकी चरागाह बनी रहें। अब शुरू कर दिया है एक व्यापारिक युद्ध। चीन तरक्की के रास्ते पर इन्हीं विस्तारवादी नीतियों अड़ोसियों-पड़ोसियों की मंडियों पर कब्ज़ा कर रहा था, इसलिए उसके साथ व्यापार युद्ध के बिगुल बजने ही थे। अब क्यों न आटे के साथ घुन भी पिस जाये? जानते तो हो भटयन कि अब गरीब बस्तियां जीत कर उन्हें अपनी भौगोलिक अमलदारी और अपनी सल्तनत में मिलाने के युग चले गये।
लेकिन अपना माल बेचना है तो उनकी व्यापारिक मंडियां बनीं रहनी चाहिए। चीन के साथ चचा सैम को पंजा लड़ाना ही था, इसलिए वहां तो ज़ोर-शोर से व्यापार युद्ध शुरू हो गया। लेकिन इसके साथ ही आटे के साथ घुन भी पिस गया है। इसलिए घोषणा हुई अन्तर्राष्ट्रीय दरबारों से कि केवल चीन ही नहीं भारत भी विकसित राष्ट्र बन चुका है। इसे विश्व व्यापार संगठन से मिलने वाली राहतें बंद कर दी जाएं। इतने दिनों से अपने दुर्दिनों के बल पर चचा सैम से भी ‘मोस्ट फेवरड नेशन’ का दर्जा पाकर सब टैक्स छूट प्राप्त कर रहा था। अब जब देश विकसित हो गया तो यह छूट कैसी? इसलिए अपने निर्यातों या आयात के बीच अब कोई कस्टम ड्यूटियों का रहमो-करम नहीं रहा। पूरा दाम चुकाओ, और हमारा आशीर्वाद ग्रहण करना है, तो ईरान से पेट्रोल भी न खरीदना। चचा बोले, भले ही वह अपना पेट्रोल तुम्हें तुम्हारी मुद्रा तुम्हारी करंसी में बेच रहा है हो, जो हमारा दोस्त नहीं, वह तुम्हारा दोस्त कैसा? इसलिए डालर चुकाओ, पेट्रोल हमसे खरीदो। लीजिये, भारत बैठा है। अपने दामन में विकसित राष्ट्र की उपाधि लेकर। जबकि पिछले दिनों ही संयुक्त राष्ट्र ने उसका दर्जा विकासशील देश से अल्प विकसित राष्ट्र बना दिया था। पेट्रोलियम के आयात को डालर के भुगतान में स्वीकार करके, उसके रुपए का मूल्य डालर के मुकाबले और भी गिर गया। उसका भुगतान शेष और भी प्रतिकूल हो गया। इससे क्या? यही तो तीसरी दुनिया के देशों की नियति है। हर हालत में दुनिया के दादाभाई देशों का अनुगृहीत और आभारी रहना।
लेकिन देश की छोड़िये, आम आदमी तक आ जाइए। इस देश का आम आदमी भी अपने देश के आंकड़ा विभाग का आभारी है कि उसने सत्ताईस रुपए दिहाड़ी कमाने वाले गांव के औसत आदमी को सम्पन्न करार दे दिया। शहर के औसत आदमी ने चौंतीस रुपए दिहाड़ी कमा ली, तो वह भी सम्पन्न कहलाया। हर जनगणना के साथ देश में गरीबी की परिभाषा बदलती है। देखते ही देखते इसकी कृपा से अब देश के एक तिहाई नहीं बल्कि एक चौथाई लोग ही गरीबी रेखा से नीचे रह गए। यह सांख्यिकी विभाग का संतोष ही कहिये कि देश में गरीबों की संख्या चाहे बढ़ जाये, गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों का प्रतिशत घटता जा रहा है। आप कहेंगे इसके साथ-साथ जनसंख्या विस्फोट तो रुका नहीं, देश में गरीबों की संख्या कैसे कम हो गई?
बन्धु, इसका जवाब है, भई इतना बड़ा देश है। यहां इकाइयों में नहीं प्रतिशत के आंकड़ों में जीना सीखो। रही बात जनसंख्या विस्फोट की। भारत इज़राइल के बाद पहला देश है जिसने परिवार नियोजन को सरकारी नीति घोषित किया था। अभी आज़ादी दिवस पर सरकारी स्तर पर इसकी फिर अनुशंसा हो गई है। हौसला रखो, समाधान हो जायेगा।