हां, मैंने मुखबिरी की है!

दो नों जानिब जब एक-दूसरे से बगलगीर हुए, तो ‘ज़िन्दाबाद कश्मीर’ और ‘पाकिस्तान पाइन्दाबाद’ के नारे लगाये गये। वह ़खातून भी नारेबाज़ी करने और एक-दूसरे से बगलगीर होने में पूरे जोश-ओ-खरोश से शरीक हुई। वह औरत जब मेरे गले से मिली तो छूटते ही बोली—इन्शा अल्लाह! हम ज़रूर कामयाब होंगे। उन जेहादी लोगों में एक थोड़ा ज़्यादा ही बेबाक था। उसने मुझसे बगलगीर होते समय मुझे अपने साथ थोड़ा ज़्यादा ही अपनी बाहों में दबाया था। तआऱुफ के दौरान उसका नाम परवेज़ तौस़ीफ बताया गया था। थोड़ी देर बाद फैसला हुआ कि किसी गांव में जाकर पहले थोड़ा खा-पी लिया जाए... फिर मीटिंग होगी। इसे इत्त़ेफाक जानिये, कि जिस घर में हमने पनाह ली,
उसके लोग शायद जंग-ए-कश्मीर से ज्यादा मुत़िफक नहीं होंगे... तभी तो उनके द्वारा किये गये हमारे इस्तकबाल में न तो कोई जोश था, न किसी के चेहरे पर कोई खुश-असलूबी दिखाई दी। तो भी... उन्होंने हमें रोटी दी, गोश्त के साथ। बाद में मीठा भी दिया। ....फिर खा-पी कर हम उसी जगह पर लौट आये थे। रात ढलने तक मीटिंग चलती रही। हमारी जानिब से गये दो लोग और मैं बाहर बैठे रहे... दूसरे कमरे में। मीटिंग जब खत्म हुई, तो जेहादीन का टोला हम सभी को साथ लेकर दूसरी जानिब वाले एक गांव की ओर चल दिया। यहां आना शायद पहले से तय था... तभी तो वहां पहुंचते ही हमारा खूब इस्त़कबाल हुआ। हवा में फायरिंग की गई। कई लोग एक-दूसरे के बगलगीर होते रहे। रात को रोटी टुक खाने से पहले विदेशी शराब के दौर चले। उस खातून ने भी खूब शराब पी। वानी जानता था, कि मैं पाबंदी-ए-मज़हब को तस्लीम करती हूं, इसलिए किसी ने मुझे बज़िद नहीं किया, परन्तु रात को जो कुछ हुआ, वो तो कयामत हो गुज़रा मुझ पर... और यही कयामत वानी पर भारी हो गुज़री। सूरज छत के करीब पहुंचा, तो बाहर सेहन में हलचल की आवाज़ सुनाई दी थी। वानी उठा, तो मैं भी उठ गई। वजू वगैरा से निपट कर हम सभी बाहर आकर बैठ गये थे... कुर्सियों पर। जब सभी लोग आ गये, तो तौस़ीफ ने रस्मी शुक्रिया अदा करते हुए मीटिंग की कामयाबी और फिर बर्खास्तगी का ऐलान करते हुए कहा था—अगली मीटिंग बहुत जल्दी मुनक्कद होगी। फिर परवेज़ आया था मेरे पास। मुझे सीने से लगा कर बोला था—वज़ारत में लेंगे हम आपको... जब भी आज़ाद कश्मीर की वज़ारत बनी, नुमायां ओहदा भी देंगे। इंशा अल्लाह! यकीन रखिये अपने खुदा-बन्द-ए-करीम पर। ...और उसके खुदा हाफिज़ कहने पर वानी ने चार गोलियां चलाई थीं हवा में। मैं कभी भी कायर नहीं रही। यही कारण था, कि बचपन से ही मुझे पत्थर मारने वाले लोग जी-दार लगते थे। थोड़ा बड़ा हुई, तो ये आज़ादी की जंग लड़ने वाले नौजवान मेरे हीरो बन गये, हालांकि यह एक शब्द जेहाद कभी भी मेरे दिल में नहीं उतरा। दोपहर के बाद हम जिस गांव में पहुंचे, वो भी कमोबेश वैसा ही था जहां हमने कल रात मुकाम किया था। वो इस मायने में, कि वैसे ही घर थे, वैसे ही लोग
भी... कई लोगों ने आगे बढ़ कर हमारा इस्त़कबाल किया। कई तमाशबीन बने हमें देखते रहे। एक उम्र-दराज औरत कई गलियों को पार करके हमें एक बड़े खूबसूरत मकान तक ले गई। मकान की चाबी उसने वानी को पकड़ा दी, और खुद वापिस लौट गई। हम दोनों अन्दर गये। चार कमरे थे... एक-दूसरे के साथ सटे हुए। बाएं जानिब किचन थी। किचन में वो सारा सामान बड़े करीने से डिब्बा-बन्द सजा था जो दो जनों के किसी परिवार की ज़रूरियात हो सकता है। —यह मकान अब हमारा पक्का मुकाम होगा... आज से ही। हमारा म़कसद, हमारा मरकज़ अब बदल गया है। हमारी कवायद अब यहीं से हुआ करेगी। वानी ने कहा था, और मैंने सुना था, लेकिन कोई जवाब नहीं दिया था। कमरे में दाखिल होते ही वानी सो गया था, गहरी नींद.... लेकिन मेरी आंखों में नींद का नाम-ओ-निशान तक नहीं था। मेरे ज़ेहन पर खून सवार होने लगा था, परन्तु मैं बेबस थी।वानी जिस पलंग पर सो रहा था, उसके सामने वाली कुर्सी पर कई घंटे मैं ऐसे ही बैठी रही... अपने घुटनों पर रखी कुहनियों में अपना मुंह छिपाये। पिछली सारी रात शायद वो सोया नहीं होगा। कभी दिल करता—इसका रिवाल्वर लेकर सभी गोलियां इसके सीने में उतार दूं। कभी मन करता—खंजर मिल जाए, तो इसकी छाती में घोंप दूं। यह भी मन में आया... रात को जैसे यह मेरे सीने पर चढ़ा बैठा था, वैसे ही इसके सीने पर बैठ कर मैं अपने हाथों के नाखूनों से इसके पेट को चाक कर दूं। बड़ी देर बाद वानी उठा था। उसने मुझे कुर्सी पर बैठे देखा तो बोला था—सोई नहीं तुम! सो जाना चाहिए था। थक गई होगी। —वो जो रात को हुआ, वाजिब है क्या वो? कैसे जायज़ हो गया यह जेहाद में? मैंने रोते हुए कहा था। वह थोड़ी देर के लिए रुका था, और फिर एकदम से पलट कर बोला था—यह जेहाद है आमना... और जेहाद में ऐसा ही होता है। इश्क और जंग में सब जायज़ होता है, और जेहाद एक जंग भी है, और मेरा इश्क भी। ...यहां ज़िन्दगी और मौत का कोई भरोसा नहीं, और ज़िन्दगी की जितनी घड़ियां हमारे नसीब में होती हैं, उन्हें हमें ऐसे ही जीना है... कल की तरह, रात की तरह। —...तो फिर मुझे नहीं करना है यह जेहाद । मुझे लौट जाना है... अपने घर, अपनों के पास। अभी मैंने इतना ही कहा था, कि वानी एकदम से पलटा था मेरी तरफ। उसने मेरे बालों को पीछे से पकड़ कर मुझे ऊपर तक खींच लिया था। फिर जैसे चीखते हुए
बोला था—मैं कई दिनों से तुम्हारा यह बदला हुआ चेहरा देख रहा हूं... यहां ऐसे नहीं चलेगा। तुम अब वापिस नहीं जा सकतीं। यहां से तो कभी भी नहीं, जहां तक तुम आ चुकी हो। —यह अच्छा नहीं किया तुमने वानी! मेरे दिल में बनी तुम्हारी वो तस्वीर टूट गई है, जो मैंने चौक में तुझे पहली बार देख कर बनाई थी। मैं इस दौर में जी नहीं सकती।  —तस्वीर टूट गई है, तो नई बना लो, मगर अब तुम्हें यहीं रहना होगा... हमारे साथ। तुम्हें वही करना होगा जो हम चाहेंगे। रात जो कुछ भी हुआ, जेहाद में यह सब जायज़ है। हमारे मज़हब में वैसे भी एक से ज़्यादा बीवियां रखी जा सकती हैं। ...और हां! उसने चलते-चलते कहा था—आज से तुम मेरी बीवी हो। यहां अगर कोई खातून पूछे, तो तुम ़खुद को मेरी ब़ेगम बताओगी।इतना कह कर वानी तो चला गया, लेकिन मैं कभी अपने माज़ी को लेकर सोचने लगती, कभी अपने मुस्त़कबिल को सोच कर हैरान-परेशान होने लगती।