हां, मैंने मुखबिरी की है!

कुर्सी पर बैठे-बैठे ही मुझे पता नहीं कब नींद आ गई। वानी ने झकझोर कर मुझे जगाया, तो मैं हड़बड़ा कर उठ बैठी। बाहर रात उतर आई थी सेहन में। वानी रोटियां और गोश्त की तरकारी ले आया था। खाने से पहले उसने खुद भी शराब पी और ज़बरदस्ती मुझे भी पिलाई। इसके बाद उसने मेरे साथ हम-बिस्तरी की...मेरी मज़री के खिल़ाफ जाकर भी। मैंने अब यह तय तो कर लिया था कि मेरी इज़्ज़त को सरेआम तार-तार कर देने वाले इस श़ख्स से बदला लेना है, परन्तु मैंने दिल पर पत्थर रख कर सब्र और ज़ब्त से काम लेने का भी फैसला किया। मैंने वानी के मोबाइल पर नज़र रखना शुरू कर दी थी। मैं उसकी गतिविधियों को भी देखती रहती। एक दिन मुझे मुंह-मांगी मुराद जैसा मौका मिल गया। यूं तो वानी अब मुझे किसी ज़रूरी मीटिंग में ही लेकर जाता, अन्यथा कमरे में ताला-बंदी करके जाता। उस दिन फिर वही मीटिंग थी जिसमें परवेज़ तौस़ीफ के गुट ने आना था। मेरे बिना तौस़ीफ उससे शायद पूछताछ करता। लिहाज़ा, उसे मुझे हर हाल में साथ लेकर जाना ही था। मैंने भी तय कर लिया था, कि मुझे तौस़ीफ का ऐतबार जीतना है। मैंने ऐसा कर भी लिया। तय मुकाम पर जब हम पहुंचे, तो थोड़ी देर बाद परवेज़ तौस़ीफ भी पहुंच गया था। उसके साथ शादमीना ब़ेगम भी थी। उनके सामने आते ही मैं बड़ी गर्मजोशी के साथ उन्हें मिली। मैंने दोनों से हाथ मिलाया और उनसे बगलगीर भी हुई। इस मौका पर मैंने थोड़ा और पहल करते हुए शादमीना का हाथ थाम कर चूम लिया था। मेरा तीर निशाने पर लगा था। रात को सभी ने विदेशी शराब पी। शादमीना के साथ मैंने भी दो घूंट लिये थे। इस बीच वानी ने दूर-ए-नज़र होना ही था। रात को भी तौस़ीफ मुझे अपने साथ कमरे में ले गया। मैंने उसकी हर ख़्वाहिश को पूरा किया। जब वह सो गया, तो मैं शादमीना बी के कमरे में जानबूझ कर चली गई। उस कमरे में वानी भी था। शादमीना मेरे साथ दूसरे पलंग पर लेट कर शादमान होती रही।  इसी दौरान मैंने उसके सामने हथियार चलाना सीखने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। उसने यह बात त़ौफीक से कही, तो दोनों अगले दो और दिन ठहरने पर रज़ामंद हो गये। तो भी, हम जगह बदलते रहे। सुबह कहीं पर, दोपहर कहीं पर, परन्तु रात को परिन्दे की भांति अपने इसी ठिकाने पर पहुंच जाते। हथियार चलाने की यह ट्रेनिंग मुझे शादमीना बी के रिवाल्वर और वानी के पिस्तौल से दी गई। इस प्रकार मैं वानी के पिस्तौल को चलाना बखूबी सीख गई थी। तौस़ीफ और शादमीना की मौजूदगी में मैंने जानबूझ कर वानी का पिस्तौल लेकर कई फायर किये थे। अपने इस रवैये के बल पर मैंने ऐसी दो-तीन और मीटिंग भी करवा ली थीं। लोहा अब गर्म हो गया था। वानी पहले ही मुझसे ख़फा रहता था। अब तो उसका गुस्सा हमेशा उसके नाक पर अटका रहता। बात-बात पर मुझे पीटना, हाथ-पांव बांध कर जिस्मानी पीड़ा देना आम जैसा हो गया था। मैं यह सब इसलिए सहती जाती, कि मेरे सब्र का फल किसी दिन तो मीठा अवश्य होगा। ...और ऐसा हुआ भी। वानी जब कभी मुझे मकान में बंद करके जाता, मैं खिड़की के पास जाकर बैठ जाया करती। यह खिड़की निचले हिस्से से बंद रहती, ऊपर वाला हिस्सा सलाखों के साथ खुला रहता—बिना किवाड़ के। मैं कई बार देखती...अल्ला का एक नेक बन्दा अक्सर खिड़की के पास से गुज़रते हुए, बड़े अदब के साथ मेरी जानिब देख कर गुज़रता। गांव के दीगर लोग या तो डरते थे, या फिर इस मुहिम से किसी न किसी तरीके से मुत्तफिक रहते। एक रोज़ वह नेक बंदा गुज़रा तो उसके हाथ में मोबाइल था। मैंने हसरत-भरी नज़रों से उसकी ओर देखा तो वह और भी मुतास्सिर हो गया। मैंने उसे सलाम किया, तो उसने भी वालेकुम सलाम कह दिया। मैंने हाथ जोड़ कर उससे मोबाइल मांग लिया और मुझे तब बेहद हैरानी हुई जब उसने मोबाइल पकड़ा भी दिया। मुझे जल्दी-जल्दी में अपनी अम्मी का नम्बर मिला था, और दो मिनट में ही मैंने उन्हें बता दिया कि मैं दोजख में हूं लेकिन अल्ला के एक नेक बंदे ने मेरा हाथ थामा है। मैं दोबारा किसी तरकीब से आपको फोन करूंगी अगर अल्ला ने चाहा, तो...। लेकिन ़खुदारा, आप न तो किसी से यह खुलासा करना, न इस फोन पर बैक काल करना। एक दिन फिर इत्तेफाक हुआ... वानी बहुत सुबह घर से निकल गया था। वह शाम तक वापिस नहीं आया था। दूसरी तरफ वह खुदा का नेक बंदा भी सही समय पर आ गया था। उस दिन जुम्मे-रोज़ था। लोग नमाज़ अदा करने मस्जिद गये थे। उसने मोबाइल मुझे पकड़ाया और आधे घंटे बाद फिर आने को कह कल चला गया। उसने यह भी कहा, ़खतरा हो तो मोबाइल को इसी जानिब सड़क पर बाहर फैंक देना। वह खुद उठा लेगा। मैंने अम्मी को फोन पर सारी तरकीब बता दी, कि कैसे वे पास के किसी भी नीम फौजी फोर्स के कैम्प में जाकर बतायें, कि मैं दहशतगर्दी की कैद में हूं... और कि कैसे मैं ईनामी दहशतगर्द मोहम्मद मसरूर वानी की मुखबिरी कर सकती हूं। मैंने उन्हें यह भी समझाया, कि कैसे मैंने आने वाले बुधवार घर में चिकन बिरयानी बनाने की तरकीब बनाई है। कैसे वह वानी को घर में रख लेगी। कैसे वह उसे नशे में कर देगी। चिकन बनाने का म़कसद यह भी था, कि यदि स्निफर डॉग्स फोर्स के साथ आए, तो वे सही जगह ढूंढ लेंगे। अम्मी को मैंने यह भी समझा दिया, कि कैसे नीम फौजी कैम्प तक रसा करनी है, और कैसे उन्हें विश्वास में लेना है। लेकिन अगले ही दिन मैंने महसूस किया, वानी का रवैया कुछ बदला-बदला-सा है। यह उस दिन तो पूरी तरह ज़ाहिर हो गया जब सोमवार को सवेरे ही वह चिकन ले आया। मैंने उसे बुधवार वाले वायदे की याद दिलाई, तो उसने ज़ोर से एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद करते हुए, चीख कर कहा—हरामज़ादी... साली मुखबिरी करती है। चल, आज ही रात मैं तुझे चिकन बिरयानी खिलाता हूं, और साथ ही तेरे नये यार त़ौफीक को भी बुला लेते हैं। मैं समझ गई थी, कि उसे शुबहा हो गया है। एक प्रकार से मेरे नाम के साथ त़ौफीक का नाम जुड़ना अच्छा ही था—़ख़ौफ का एक दूसरा रंग भी अपना असर दिखा रहा था, लेकिन मेरी तरकीब बेकार होते दिख रही थी। फिर भी, मैंने हिम्मत का दामन नहीं छोड़ा। मन ही मन मैंने इस तरकीब के कामयाब न हो पाने की सूरत, कई और तरीकों पर विचार करना शुरू कर दिया था। तभी वानी ने सब बने-बनाए पर गोबर पोत दिया। उसने मुझे फौजी वर्दी पहनने का हुक्म दिया, और स्वयं सारा सामान पिट्ठू बैग में डाल कर उसे अपनी पीठ पर लाद लिया।