वापसी

आज फिर फूट-फूटकर रोने का मन हो रहा है। कमरा बंद है। अपने कमरे में मैं अकेला पड़ा हुआ हूं। लिहाफ को चारों ओर से अपने नीचे दबा लिया है। ठण्डक है कि फिर भी इसमें घुसी जा रही है। कमरे में अंधेरा है और मैं अपनी इस अंधी कब्र में लेटा हुआ हूं। लेकिन रो नहीं पा रहा हूं। एक बार मैंने अपनी बेटी को समझाया था कि रोने वाले कायर होते हैं। अब रोऊंगा तो बिटिया दौड़ी चली आएगी और कहेगी, ‘पापा! आप तो कहते थे कि रोने वाले कायर होते हैं। क्या आप कायर हैं? पांच वर्ष की नन्ही छाया मेरी बात पकड़ लेगी। मन की गहराई को नहीं छू पाएंगी। काश! वह बड़ी हो गई होती। मेरे बिना कहे ही मेरे मन की बात समझने लग गई होती। अपनी मां के पास रसोईघर में चूल्हे से चिपककर बैठने की बजाय मेरे पास आई होती। लेकिन बड़ी होने में तो उसे कई वर्ष लगेंगे और मेरा मन है कि इसी समय फूट-फूट कर रो देना चाहता है। आज ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। अपने विवाहित जीवन के इन आठ वर्षों में अनेक बार ऐसा हो चुका है। पहले नहीं रो पाता था, अपनी पत्नी के सामने अपमानित होने के संकोचवश। अब उसके मान-अपमान की चिंता मुझे नहीं होती। वह सैकड़ों बार मेरा अपमान कर चुकी है। मैंने भी कभी कसर नहीं छोड़ी उसे अपमानित करके बदला लेने में। अब वर्षों से इसलिए नहीं रो पाता हूं कि छाया का ध्यान आ जाता है।छाती में हल्का-हल्का दर्द हो रहा है। दो-तीन दिन तक शराब न पिऊं तो यह दर्द ज़रूर उठता है। आज भी जी चाहता था, कहीं से दो घूंट पीने को मिल जाए। अशोक के घर तीन बार गया। कमबख्त दिल्ली से ही नहीं लौटा अभी। कुलवंत की ड्यूटी ईवनिंग शिफ्ट की है। उसकी पत्नी मुझे देखकर कुढ़ती भी कैसे है। जैसे मैं ही उसके पति को शराब पीने पर बाध्य करता हूं। वह स्वयं भी पिए बिना कहां रह सकता है। कोई न मिला था तो लौटकर घर आ गया था। सोचा था, रेखा से आठ-दस आने मिल जाएं तो कैप्सूल लेकर ही खा लूं। परन्तु उससे पैसे मांगने का साहस नहीं हुआ था। मेरे घर में घुसते ही उसने अपनी समस्याएं सुनानी आरम्भ कर दी थीं। आटा समाप्त हो रहा है। घी कल से खत्म है। छाया की कापी फट गई है। ज़ाहिर है, उसके पास पैसे नहीं है। होते, तो कम से कम छाया के लिए कापी तो लेकर ही आई होती। छाया की जिद्द से वह भली-भांति परिचित है। छाया को मांगने पर वस्तु न मिले तो वह ऊधम मचा देती है। हर कमरे की छत से उसकी चीखें लटक जाती हैं। परन्तु आज छाया भी चुप है। शायद उसे बहाना बनाकर टाल दिया है रेखा ने। मां के झांसे में पहली बार आई है यह। मेरे घर में दो कैप्सूल पड़े थे। लेकिन न जाने कहां रख दिए। सारा घर छान मारा। मुझे अच्छी तरह याद है, मैंने खाए नहीं हैं। अलमारी में ही रखे थे। उड़कर तो जा नहीं सकते कहीं। कोई उठाकर भी नहीं ले जा सकता। चोरी करने वाले की छाती में कौन-सा दर्द हो रहा था कि उसे कैप्सूल चुराना ही अभीष्ट हो। रेखा खा नहीं सकती। बिटिया का हाथ अल्मारी तक नहीं पहुंचता। तो फिर कैप्सूल गए कहां? खोजते-खोजते परेशान हो रहा था तो रेखा ने दसों बार पूछा था, ‘बताइए तो, क्या ढूंढ रहे हैं? पर उसे क्या बताता। बता देता तो बेकार हल्ला करती। शराब के नाम से ही उसका पारा चढ़ जाता है। बीस बार समझाया है कि अब आदत हो चुकी है। परन्तु उसकी समझ में ही नहीं बैठती यह बात। पड़ोस के किसी ज्ञान चंद ने बीस वर्ष सिगरेट पीकर अब स्मोकिंग छोड़ दी है। उसी का हवाला देकर कहती है—‘आदत क्यों नहीं छूट सकती? ज्ञान चंद ने बीस वर्ष पांच पैकेट रोज़ पिए हैं। छोड़ने पर आया तो एक मिनट में छोड़ दिए। आप छोड़ना ही नहीं चाहते। आखिर इससे फायदा क्या होता है आपको?’ अब उसे बताने बैठूं कि इससे छाती का दर्द बंद होता है। दर्द न भी बन्द होता हो, इसके बिना जो बेचैनी होती है, उसका इलाज तो हो जाता है। उसके बार-बार पूछने पर भी जब मैं उत्तर दिए बगैर खोज में लगा रहा था तो उसने मुस्कुराकर पूछा था, ‘कहीं कैप्सूल तो नहीं ढूंढ रहे आप?’मेरे हाथ ट्रंक को खोलकर वहीं के वहीं रुक गए थे। उसने कमरे से बाहर जाते हुए कहा था, ‘वो तो मैंने कई दिन हुए, बाहर फैंक दिए थे।’ तब जैसे मेरे अन्दर सोया कोई राक्षस जाग उठा था। मैंने चीखकर उसका नाम पुकारा था। ‘रेखा...’ वह दरवाज़े में ही रुक गई थी और मैंने कसकर उल्टे हाथ का झापड़ जमा दिया था उसके मुंह पर। उसने एक क्षण मेरी ओर देखा था और भरी-भरी आंखें लेकर रसोईघर में चली गई थी। वह रोई नहीं थी। शायद उसके सामने भी छाया का प्रश्न सजीव होकर खड़ा हो गया था। मैंने बिखरे हुए सामान पर ठोकर जमाकर, जोर से दरवाज़ा बंद कर लिया था। सॉकल नहीं चढ़ाई थी। अपनी चारपाई में घुसकर लिहाफ की कब्र बना ली थी। अब इस कब्र में पड़ा हुआ मेरा शरीर ही नहीं, मेरी रूह भी तड़प रही है। चाहता हूं, उठकर बाहर चला जाऊं। परन्तु बाहर जाकर भी क्या होगा। डाक्टर परमेश्वरी लाल उधार तो करेगा नहीं। कई बार साफ मना कर चुका है। पचास पैसे का उधार नहीं करता साला। डाक्टर बना फिरता है। मुझे पता है, डाक्टर-वाक्टर वह नहीं है, रजिस्टर्ड वैद्य है। उसके खिलाफ गवर्नमैंट को चिट्ठी लिख दूं तो लेने के देने पड़ जाएं लाला को। वैद्य होकर एलोपैथी की दवाइयां बेचता है। परन्तु मैं सोचता हूं, किसी के पेट पर लात क्यों मारूं। आजकल भलमानसी का ज़माना ही नहीं रह गया है। कई बार सोचता हूं, इस बीमारी को छोड़ दूं। परन्तु दूसरे-तीसरे दिन पता नहीं क्या होने लगता है। इसके बिना जैसे दिल बाहर को आने लगता है और अब यह छाती का दर्द।  इसका तो और कोई इलाज भी नहीं है। हो भी, तो उस पर भी तो पैसे लगेंगे। कैप्सूल से सस्ती दवा तो नहीं मिल जाएगी। आज तो एक कैप्सूल भी मिल जाए तो काम चला लूं। परन्तु कहती है, बाहर फैंक दिए। बाप का माल समझ रखा है सुसरी ने। मन चाहता है उठकर भुरकस निकाल दूं। अपने आप को समझने क्या लगी है। मेरी पत्नी है तो मेरे मन से चले।

(क्रमश:)