सूर्योदय से पहले क्यों दी जाती है फांसी

भारत में फांसी लम्बे समय से सूर्योदय से पहले (तड़के) ही क्यों दी जाती है। यह सवाल हर व्यक्ति के दिमाग में अक्सर आता है। अंग्रेज़ों के जमाने में भी फांसी की सज़ा जेल में सुबह सूरज की पहली किरण से पहले ही दी जाती थी। वैसा ही अब भी हो रहा है। भारत में आखिरी फांसी नागपुर जेल में वर्ष 2015 में हुई थी, जब आतंकवादी याकूब मेमन को फांसी पर लटकाया गया था। ये भी तड़के ही दी गई थी। भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में जहां कहीं भी  फांसी देने का रिवाज अभी जारी है, वहां फांसी तड़के में ही दी जाती है। हालांकि भारत के जेल मैन्युअल में फांसी के समय के बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं। जेल मैन्युअल कहता है कि फांसी सुबह तड़के ही दी जानी चाहिए यह हमेशा सूरज की पहली किरण से पहले सम्पन्न हो जाए। हालांकि हर मौसम के हिसाब से फांसी का समय सुबह बदल जाता है, लेकिन यह समय भी तय करने का काम केन्द्र और राज्य सरकारें ही करती हैं। फांसी को सुबह तड़के शांत बेला में देने की तीन वजहें भी हैं, जो प्रशासनिक, व्यावहारिक और सामाजिक पहलुओं से जुड़ी हैं।
समय के बारे प्रशासनिक पहलू
अकसर देखा गया है कि फांसी एक खास घटनाक्रम होता है। अगर ये दिन के दौरान होगी तो जेल का पूरा फोकस इसी पर टिक जाएगा। इससे बचने की कोशिश की जाती है ताकि जेल की दिनभर की अन्य गतिविधियों पर कोई असर नहीं पड़े। सारी गतिविधियां सुचारू तौर पर काम करती रहें। फांसी होने के बाद मैडीकल परीक्षण होता है और उसके बाद कई तरह की कागज़ी कार्यवाहियां, इन सबमें भी समय लगता है।
व्यावहारिक पहलू
ये माना जाता है कि जिसे फांसी दी जा रही है, उसका मन सुबह तड़के के समय में ज्यादा शांत रहता है। सो कर उठने के बाद फांसी देने पर वो ज्यादा शारीरिक तनाव और दबाव का शिकार नहीं होता, अगर फांसी दिन में हो तो सज़ायाफ्ता का तनाव और मानसिक स्थिति बिगड़ सकती है। जिस इंसान को फांसी होती है, उसे सुबह तीन बजे ही उठना होता है ताकि वो अपने सारे काम फांसी से पहले निपटा ले, जिसमें प्रार्थना और अकेले में कुछ समय के लिए अपने बारे में सोच-विचार करना आदि भी शामिल है। सबसे बड़ी बात है कि फांसी के बाद उसके परिजनों को शव सौंप दिया जाए ताकि वो उसे लेकर अपने गंतव्य तक जा सकें और दिन में ही अंतिम संस्कार कर लें।
सामाजिक पहलू
फांसी का तीसरा पक्ष सामाजिक है, चूंकि ये खास घटना होती है लिहाजा बड़े पैमाने पर लोगों का ध्यान आकर्षित करती है, इसके चलते जेल के बाहर बड़े पैमाने पर तमाशबीन  इकट्ठा होने और हंगामा होने के भी आसार होते हैं, लिहाज़ा  कोशिश होती है कि जब तक लोग सोकर उठें तब तक फांसी हो जाए।
फंदा गर्दन पर कसते ही शरीर में क्या होता है
जैसे ही जल्लाद लिवर को खींचता है, वैसे ही जिस पटरे पर फांसी वाला शख्स खड़ा होता है। वो पटरा नीचे चला जाता है, तब वो तुरंत लटकने लगता है और रस्सी का दबाव गर्दन पर कसने लगता है। शरीर का पूरा वजन नीचे की ओर जाने लगता है। ऐसे में पहले गर्दन लम्बी होती है और फिर गर्दन की मांसपेशियां टूटने लगती हैं। इससे मस्तिष्क का सम्पर्क शरीर से टूट जाता है। चेतना खत्म हो जाती है, जिसे फांसी दी जा रही है, वो अचेत हो जाता है। साथ ही हृदय की ओर खून का बहाव रुक जाता है और सांस लेने की प्रक्रिया  भी गला घुटने से बंद हो जाती है। आमतौर पर फांसी लगने के बाद 5 मिनट से लेकर 20-25 मिनट के भीतर मौत हो जाती है। उसके बाद डाक्टर बाडी को चैक करता है और सज़ायाफ्ता शख्स को मृत घोषित करता है।
15 वर्ष में सिर्फ चार को फांसी
*  धनंजय चटर्जी, 2004 : नाबालिग से दुष्कर्म व हत्या, कोलकाता में फांसी दी गई।
* मोहम्मद अजमल कसाब, 2012 : मुम्बई हमले में शामिल आतंकी को पुणे की येरवदा जेल में फांसी दी गई।
*  मोहम्मद अफजल गुरु, 2013 : संसद हमले के दोषी को तिहाड़ जेल में फांसी दी गई।
* याकूब मेमन, 2015 : 1993 के मुम्बई सीरियल ब्लास्ट में शामिल आतंकी को नागपुर जेल में फांसी दी गई।
ब्रिटिश शासनकाल में फांसी पर लटकने वाला पहला भारतीय
महाराजा नंद कुमार, बंगाली क्रांतिकारी, जिसका जन्म बहादुरपुर (अब बीरभूम) में हुआ, को 5 अगस्त, 1775 को ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध करने और एक ब्रिटिश अधिकारी की हत्या करने के आरोप में फांसी दी गई।
जज क्यों तोड़ देते हैं पैन की निब
पैन की निब तोड़ना एक सांकेतिक क्रिया माना गया है। यह इसलिए किया जाता है कि जिस पैन से किसी व्यक्ति की मृत्यु का फैसला हुआ हो उस पैन से दोबारा ऐसा न हो पाए।