मूल्य वृद्धि और भ्रष्टाचार पर रोक ज़रूरी

आज के दौर में भ्रष्टाचार, वस्तुओं का अभाव और असंतोषपूर्ण जीवन का बोलबाला सर्वव्यापक प्रतीत होता है। बाहरी हालात को तो मनुष्य सुधार सकता है, परन्तु अंदरूनी हालात के बिगड़ने पर मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है। सीमाएं कितनी भी मजबूत क्यों न हों, लेकिन देश की आन्तरिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो जाए तो सारा ढांचा लड़खड़ा जाता है। मेरा विचार है कि आज का सियासी परिपेक्ष अर्थात् विरोधी पार्टियां भी जलती पर तेल का काम करने में महंगाई और भ्रष्टाचार के प्रति समर्पित दिखाई देती हैं। किसी वस्तु की कमी को भयावह मुद्दा बनाने में दिलोजान से लग जाती हैं, और उनको प्याज़ की कमी से कोई सरोकार न के बराबर होता है। विरोधी दलों का प्रयोजन सिर्फ और सिर्फ कुर्सी तक पहुंचना होता है। भ्रष्टाचारी की वकालत करना भी बड़ा भ्रष्टाचार है। 
देश में अराजकता की महंगाई और अभाव की जननी है। प्याज़ की कमी में कहीं न कहीं विरोधी सियासी पार्टियों का हाथ भी दिखाई देता है। सरकार अगर भाव दो रुपए ज्यादा करती है तो व्यापारी उस वस्तु की जमाखोरी शुरू कर देते हैं और भाव को मनमर्जी से अधिक कर देते हैं और वह व्यापारी सियासत की छतरी औढ़े रहते हैं। आज देश के कोल्ड स्टोरों पर छापे मारे जाएं तो प्याज़ की कमी आंखों से ओझल हो जायेगी, लेकिन अगर सरकारी महकमे ईमानदारी से काम करें तो ही इस समस्या पर पार पाया जा सकता है। दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं की बढ़ती कीमतें देश के सामने ज्वलंत समस्या है। आंकड़े बताते हैं कि रुपया वैसा ही है, लेकिन उसके मूल्य में वृद्धि के स्थान पर कमी आई है। बहुत समय तक गुलाम रहने के पश्चात् हमें अपना देश बहुत ही जर्जर हालत में मिला। तत्काल वित्त मंत्री का पद सम्भालने पर मोरारजी देसाई ने अपनी कर्मठ कारगुजारी से अर्थात् नीतियों द्वारा वस्तुओं के बढ़ते मूल्यों को रोका। लेकिन निहित स्वार्थों वाले जमाखोरों, मुनाफाखोरों और चोर बाज़ारी करने वाले तत्वों ने समाज को भ्रष्टाचार का अड्डा बना दिया। पड़ोसी शत्रुओं से देश की सीमाओं की रक्षा के लिए सुरक्षा पर अधिक धन सरकार द्वारा खर्च किया गया और आज भी अपनी शक्ति से अधिक धन लगा रहे हैं। परिणामस्वरूप मूल्यों में वृद्धि हुई। आज जनता में असंतोष बहुत बढ़ गया है और विरोधी दल इस स्थिति का नाजायज़ फायदा उठा रहे हैं और शरारती तत्वों को उकसा रहे हैं। जो बात जितनी नहीं है, वह उससे अधिक बढ़ा-चढ़ा कर कही जाती है। अधिकांश भोली-भाली जनता उनकी बातों के चक्रव्यूह में फंस जाती है। 
आज आवश्यकता है जनता के नैतिक उत्थान की, जिससे उसका कलुषित हृदय पवित्र हो और व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा वह राष्ट्रहित और देश हित को सर्वोच्च समझे। व्यापार में लाभ कमाने की कोई मनाही नहीं, परन्तु लाभ उतना ही कमाना चाहिए, जितना उचित हो। अपने स्वार्थ के लिए वस्तुओं में मिलावट करना तथा लोगों के जीवन से खिलवाड़ करना कहां तक उचित है? अगर सरकार देश की स्थिति में स्थायित्व एवं सुधार लाना चाहती है तो उसे अपनी नीतियों में कठोरता और पारदर्शिता, स्थिरता लानी होगी। यदि कृषि प्रधान देश में एक ओर अन्न उत्पादन तीव्र गति से होता रहा और दूसरी तरफ जन-कल्याण के लिए शासन का अंकुश यथावत् बना रहे तथा वितरण प्रणाली सुचारू हो तो मूल्य वृद्धि स्वयं ही रुक जायेगी।