गौरवमय नैतिक मूल्यों पर पहरा देने की ज़रूरत

भारतीय संविधान की महानता इसके धर्म-निरपेक्ष होने, देश के प्रत्येक वर्ग के लोगों को हर क्षेत्र में एक समान अधिकार देने, देश में कहीं भी जाकर रहने के साथ-साथ अपने-अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को मानने की स्वीकृति देने में है। यह बात आज भी बड़े गर्व से कही जाती है कि आज़ादी के बाद हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने विश्व भर के देशों के संविधानों को जांच कर उनमें से अच्छे नैतिक-मूल्यों को लेकर एक उत्तम लिखित संविधान की रचना की थी, जो उच्च मानवीय नैतिक-मूल्यों को समर्पित है। इसे लचीला भी कहा जा सकता है, क्योंकि पिछले 70 वर्षों में समय-समय पर हालात के अनुसार पैदा हुई ज़रूरतों या आधुनिक समय में लोगों के जीवन के बदलते हुए सरोकारों को मुख्य रख कर देश की संसद ने इसमें लगातार नये संशोधन किये हैं। इसीलिए ही संविधान आज तक देश के लिए सार्थक एवं प्रासंगिक बना रहा है। देश विशाल है। यहां अलग-अलग भागों में अनेकानेक जाति-समुदाय एवं अपने-अपने विश्वासों को मानने वाले लोग रहते हैं। इसलिए समय के साक्षी होने के लिए किये जाते रहे ये संशोधन गुणकारी बने रहे हैं। घटित होते राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम भी हमारे संवैधानिक क्रियान्वयन व लोगों की ज़िन्दगी को प्रभावित करते रहे हैं।
यहां के नागरिक उन प्रभावों के तहत अपनी-अपनी जीवन शैली एवं विचारों को भी बदलते रहे हैं। समय-समय पर घटित हो रहे घटनाक्रम के कारण अलग-अलग धर्मों से संबंधित लोगों में सैद्धांतिक रूप से आपसी दूरियां भी बनी रही हैं। ये दूरियां राजनीतिज्ञों के स्वार्थों के कारण अलग-अलग समुदायों के मध्य ऩफरत में भी परिवर्तित होती रहीं और कई बार मतभेद हिंसक रूप भी लेते रहे हैं। ऐसी हिंसा हमेशा ही भारतीय समाज के लिए बेहद नुक्सानदेय साबित होती रही है। विदेशी ताकतें इसका लाभ भी उठाती रही हैं। हज़ारों वर्ष पहले केन्द्रीय एशिया से होते रहे विदेशी हमलों की बात को छोड़ भी दिया जाये, तो भी आज़ादी से पहले 200 वर्ष तक भारत ब्रिटिश शासन का भी गुलाम रहा है। निर्धारित नीति के तहत भारतीय समाज में विश्वासों, परम्पराओं एवं धर्मों को आधार बना कर दरार डालने का यत्न किया गया। ज्यादातर वे इसमें सफल भी हो गये। इसीलिए उस समय हुई आपसी ऩफरत अलग-अलग समय में भयावह रूप भी धारण करती रही और भारतीय समाज का भारी क्षरण भी करती रही। ऐसा क्षरण आज तक भी जारी है। ऐसी ऩफरत आज भी देश की हवा में घृणा का विष घोल रही है। चाहिए तो यह था कि हमारे समाज के प्रत्येक वर्ग के नेता एवं राजनीतिज्ञ इस पक्ष से सुचेत होकर अपना फज़र् निभाते हुये बढ़ रही साम्प्रदायिक भावनाओं को खत्म करने का यत्न करते, परन्तु हम बेहद अफसोस से यह लिख रहे हैं कि आज राजनीति में कुर्सियों के लिए एवं समाज में अपनी चौधर बनाने के लिए किसी न किसी रूप में राजनीतिज्ञों एवं कथित धार्मिक संगठनों की ओर से साम्प्रदायिकता को हवा दी जाती रही है।
इसीलिए अब भी चुनावी गतिविधियों के दौरान राजनीतिज्ञों की ओर से ऐसी टिप्पणियां सामने आ रही हैं, जो एक-दूसरे के भाईचारे को चोट पहुंचाने वाली हैं। इसी क्रम में एक बार फिर फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ को दूरदर्शन के माध्यम से दिखाया गया है। दूसरी ओर प्रतिक्रिया-स्वरूप मणिपुर की हिंसा को लेकर भी फिल्में बना कर दिखाई जा रही हैं। दु:ख की बात यह है कि आज ज्यादातर नेता खुले रूप में ऐसी भावनाओं का प्रकटावा कर रहे हैं जो अलग-अलग भाईचारों में ऩफरत पैदा करने वाली हैं।
इसके पीछे की भावना लोगों को भावुक करके वोट बटोरने की ही है। ऐसे नारे यदि धर्म के नाम पर लगाये जाएं तो वे समाज के लिए बेहद हानिकारक हो सकते हैं एवं समाज में अनेकानेक विभाजनों को और भी बढ़ाने का कारण बन सकते हैं। हम सभी पार्टियों, सभी नेताओं और समाज के प्रतिनिधियों को यह अपील करते हैं कि यह देश तभी सही अर्थों में विकास के मार्ग पर आगे बढ़ सकेगा, यदि इसके सदियों पुराने सदाचारक नैतिक मूल्यों के प्रति आज के ज़िम्मेदार लोग एवं संस्थाएं सचेत हों। देश में ऩफरत फैला कर इसके विकास की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि ऩफरत की बदबू हर तरह की खुशबू को मद्धम करने के समर्थ होती है। इस महान देश की सदियों पुरानी परम्परा को कायम रख पाना एवं इसके गौरवमय नैतिक-मूल्यों को बनाये रखना आज हमारा सबसे बड़ा एवं पहला फज़र् होना चाहिए।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द