देश में बढ़ रही है कुपोषण की समस्या

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 19.5 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं। दुनिया के कुपोषितों में यह अनुपात करीब 25 प्रतिशत है। यदि बच्चों के स्तर पर बात करें तो देश के 10 बच्चों में से चार कुपोषित हैं। यह स्थिति उस कृषि प्रधान देश की है, जो खाद्यान्न उत्पादन के मामले में तो आत्मनिर्भर है ही, अनाज की कई किस्मों का निर्यात भी करता है। दुनिया के कई देश अपनी भुखमरी से निपटने के लिए भारत से ही अनाज खरीदते हैं। साफ  है, देश में भुखमरी व कुपोषण की समस्या खाद्यान्न की कमी से नहीं, बल्कि प्रशासन के कुप्रबंधन एवं भ्रष्टाचार का परिणाम है। बावजूद देश की नौकरशाही का हाल देखिए कि वह भुखमरी से निपटने के लिए मांस से बने उत्पादों को जन-वितरण केंद्रों (पीडीएस) के माध्ययम से गरीबों को उपलब्ध कराने का उपाय करने जा रही है। जिससे लोगों को ज्यादा प्रोटीन युक्त भोजन मिले। यह अफ लातूनी प्रस्ताव ‘नेशनल इंस्टीट्यूट फ ॉर ट्रांसफार्मिंग इंडिया’ (नीति आयोग) ने भारत सरकार को दिया है। यह प्रस्ताव केंद्रीय मंत्रिमंडल स्वीकार कर लेता है तो पीडीएस के जरिए चिकन, मटन, मछली और अण्डा रियायती दरों पर उपलब्ध होगा। यह प्रस्ताव आयोग के 15 साल के ‘दृष्टि-पत्र’ में शामिल है। यदि बाईदवे यह प्रस्ताव मंजूर हो जाता है तो समस्या से निजात मिलने की बजाय, कुपोषण की समस्या और भयावह रूप में पेश आएगी। क्योंकि एक तो मांस उत्पादन में अनाज ज्यादा खर्च होता है और दूसरे इसे वितरण के लिए हर पीडीएस केंद्र पर बिजली की 24 घंटे उपलब्धता के साथ रेफ्रिजरेटरों की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि मांस से बने उत्पाद कुछ घंटे ही सामान्य तापमान पर रखे रहें, तो खराब होने लगते हैं। दूसरे इन उत्पादों को केंद्रों तक पहुंचाने के लिए भी वातानुकूलित वाहनों की जरूरत होगी। इससे एक नई समस्या शाकाहार लोगों के लिए खड़ी होगी, क्योंकि भारत में धार्मिक आधार पर ऐसे अनेक धर्म व जातीय समूह हैं, जो मांस को छूते तक नहीं हैं।    योजनाकारों का यह तथ्य तार्किक हो सकता है कि मांस प्रोटीन का बड़ा स्रोत है। यदि यह लोगों को सस्ते में उपलब्ध होगा तो उनके स्वास्थ्य के लिए लाभदायी भी हो सकता है। इसके विपरीत दुनिया में हुए अनेक शोधों से पता चला है कि दूध एवं शहद में न केवल सबसे ज्यादा प्रोटीनयुक्त तत्व होते हैं, बल्कि इन्हें संपूर्ण आहार भी माना गया है। प्रकृति के नियम भी इस तथ्य की नैसर्गिक रूप में पुष्टि करते हैं। स्त्री समेत जितनी भी मादा प्रजातियां हैं, वह जब गर्भवती होने के बाद शिशु को जन्म देती हैं तो उनके आंचल से दूध निकलता है, न कि खून की धारा ! इससे स्पष्ट होता है कि दूध सबसे प्रमुख पौष्टिक प्राकृतिक आहार है। इसके दूसरे पहलू की पड़ताल करने से पता चलता है कि सौ कैलोरी के बराबर मांस तैयार करने के लिए 700 कैलोरी के बराबर अनाज खर्च होता है। जिस तरह बकरे या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे भोजन के रूप में प्रयोग में लाया जाए तो कहीं ज्यादा लोगों की भूख मिटा सकता है। भोजन में मांस का चलन बढ़ने का कारण भारत में 20 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों को भुखमरी का अभिशाप झेलना पड़ा है। जाहिर है, यदि देश को मांसाहारी बनाने की कोशिशें की जाती हैं तो भुखमरी की समस्या और भयावह रूप में सामने आएगी। नीति-आयोग के इस प्रस्ताव में मुझे अमरीका का दबाव अंतरर्निहित लग रहा है। दरअसल, अमरीका भारत को अपने डेयरी उत्पाद बेचना चाहता है। भारत इससे इन्कार कर रहा है। दरअसल ये उत्पाद नहीं खरीदने के पीछे भारत की सांस्कृतिक मान्यताएं और धार्मिक संवेदनाएं हैं। इनसे समझौता नमुमकिन है। लिहाजा भारत को कहना पड़ा है कि वहां दुधारू पशुओं को मांसाहार (ब्लड मील) मिला जो चारा खिलाया जाता है, उससे पैदा होने वाला दूध और उससे बना कोई भी उत्पाद नहीं खरीद सकते हैं। अमरीका और यूरोप के कई देशों में दुधारू मवेशियों को चारे में गाय-बछड़ा, सुअर, भेड़ का मांस और खून मिलाया जाता है। इस मांस मिले आहार को खिलाने से मवेशी ज्यादा दूध देते हैं। गाय में दूध देने की मात्रा कहीं अधिक बढ़ जाती है। गोया, अमरीकी कंपनियां भारत में अपने डेयरी उत्पाद खपाने की कोशिश में अर्से से लगी हुई हैं। यदि उन्हें इन उत्पादों के निर्यात की सुविधा मिल जाती है तो सौ मिलियन डॉलर से भी ज्यादा का मुनाफा होगा, लेकिन एक तो भारत के जो लोग धार्मिक भावना के चलते मांसाहार का सेवन नहीं करते हैं, उनकी भावनाओं को ठेस लगेगी, दूसरे भारतीय डेयरी उद्योग भी बुरी तरह प्रभावित होगा।हमारे यहां गाय-भैंसें भले ही कूड़े-कचरे में मुंह मारती फि रती हों, लेकिन दुधारू पशुओं को मांस खिलाने की बात कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। लिहाजा अमरीका को चीज बेचने की इजाजत नहीं मिल पा रही है। लेकिन इससे इतना तो तय होता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाहें हमारे दूध के कारोबार को हड़पने में लग गई हैं।