महापुरुषों के विरोध पर केन्द्रित राजनीति ?

‘सबका साथ सबका विकास’ गुजरात से शुरू हुआ यह नारा 2013-14 के दौरान चुनाव प्रचार का सबसे प्रमुख नारा बनकर उभरा था। विदेशी मीडिया ने भी इस नारे पर कई सकारात्मक टिप्पणियां कीं। और इस बात के लिए प्रशंसा की गयी कि यदि वास्तव में भारत सरकार सबका साथ सबका विकास के नज़रिये के तहत काम करती है तो यह समग्र भारत वासियों के हित में ही होगा। परन्तु आज यही विकास ‘शब्द’ एक मज़ाक के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है। लोग व्यंग्यात्मक अंदाज़ में विकास  को ढूंढते नज़र आ रहे हैं। कोई पूछता है कि विकास पैदा हुआ भी या नहीं तो कोई पूछ रहा है कि विकास के पापा कहाँ चले गए। वैसे भी औद्योगिक उत्पादन, अर्थ व्यवस्था, जी.डी.पी., विकास दर व रोज़गार संबंधी तमाम आंकड़े भी यही बता रहे हैं कि भारत में विकास नाम की चीज़ कहीं ढूंढने पर भी दिखाई नहीं दे रही है। न स्मार्ट सिटी हैं, न आदर्श गांव हैं, न नौकरी, न नए उद्योग। हां सरकारी नवरत्न कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने के दृश्य ज़रूर दिखाई दे रहे हैं। रोज़गार के नाम पर देश के शिक्षित युवाओं को पकौड़े बेचने जैसी ‘बेशकीमती’ सलाह ज़रूर दी जा चुकी है। देश में साम्प्रदायिक व जातिगत आधार पर तनाव ज़रूर बढ़े हैं। सबका साथ सबका विकास करने के बजाए सब के ‘मतों का ध्रुवीकरण’ ज़रूर कराया जा रहा है। नोटबंदी से लेकर एन.आर.सी. जैसे प्रयोगों तक में अब तक सैकड़ों देशवासी अकारण ही अपनी जानें गंवा चुके हैं। अनिश्चितता के इस वातावरण में एक सवाल यह भी पूछा जाने लगा है कि जो सरकार, दल अथवा विचारधारा देश के महापुरुषों को समान रूप से सम्मान नहीं दे सकती, सम्मान देना तो दूर की बात है जो विचारधारा अपनी ‘राजनीतिक दुकानदारी’ चलाने के मुख्य हथकंडे के रूप में महापुरुषों की आलोचना, उनकी निंदा व बुराई करने को ही अपना ‘शस्त्र’ समझती हो उस से देश के लोगों को साथ लेकर चलने की उम्मीद करना आखिर कितना मुनासिब है?सकारात्मक राजनीति का तकाजा तो यही है कि आप अपने राजनीतिक आदर्श महापुरुषों की चर्चा करें, उनके विचारों को सार्वजनिक करें और उन्हें लोकप्रिय बनाने की कोशिश करें। परन्तु धर्म-निरपेक्ष भारत सहित पूरे विश्व में चूंकि अतिवादी विचारों की स्वीकार्यता की संभावना कम है इसीलिए अपने अतिवादी विचारकों का सार्वजनिक रूप से महिमामण्डन करने के बजाए धर्म-निरपेक्षता के ध्वजावाहक महापुरुषों को नीचा दिखाने के लगतार प्रयास किये जाते रहे हैं। देश और दुनिया के तमाम इतिहासकारों ने यहां तक कि आलोचकों व विरोधियों ने भी जिन महापुरुषों को सम्मान की दृष्टि से देखा, राष्ट्र का गौरव समझे जाने वाले उन्हीं महापुरुषों की आलोचना या निंदा करने में पूरी ताकत झोंकी जा रही है। गत एक दशक से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का विरोध इस स्तर तक फैल गया है मानो देश में एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों गोडसे फिर से पैदा हो गए हों। अतिवादी शिक्षा से प्रभावित आम लोगों द्वारा ही नहीं बल्कि महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों द्वारा गाँधी जी को अपमानित करने व उन्हें बदनाम करने के अनेक तरीके इस्तेमाल किये जा रहे हैं। जिस बापू की सोच, हौसले व विचारों के आगे अंग्रेज़ नत-मस्तक होते थे और आज तक जो गाँधी दुनिया के तमाम देशों, सरकारों व शीर्ष नेताओं के लिए प्रेरणा स्रोत बने हों उसी गांधी का कभी चरित्र हनन किया जाता है, कभी उन्हें शहीद भगत सिंह का विरोधी बताया जाता है, कभी उन्हें मुस्लिम परस्त या दलित परस्त बताया जाता है। गाँधी के साथ-साथ स्वतंत्र संग्राम के अनेक नायकों व योद्धाओं को भी अपमानित किया जा रहा है। इससे साफ ज़ाहिर हो रहा है कि रचनात्मक, विकास आधारित राजनीति करने के बजाए महापुरुषों के विरोध पर केंद्रित राजनीति करने में ही अपने राजनीतिक लाभ की तलाश की जा रही है।