कुपोषण की गम्भीर होती समस्या

देश में कुपोषण की गम्भीर होती जाती समस्या ने कृषि विशेषज्ञों के साथ स्वास्थ्य संबंधी वैज्ञानिकों को भी चौंकाया है। इस समस्या का सर्वाधिक असर बच्चों पर पड़ता है, और निरन्तर पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका शिकार होते जाने से खास तौर पर देश की आगामी बाल-आबादी प्रभावित होने लगती है। यह बात लोकसभा में केन्द्रीय बाल एवं महिला कल्याण मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा एक प्रश्न के दिये गये उत्तर से प्रकट हुई है। मंत्री महोदया ने स्वीकार किया है कि कुपोषण से देश के 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों पर शारीरिक दुर्बलताएं उभरने लगती हैं। जिन क्षेत्रों में यह समस्या पाई जाती है, वहां की बाल आबादी में शारीरिक कद के छोटा रह जाने और वज़न कम होने के चिन्ह साफ दिखाई देने लगते हैं। ऐसे क्षेत्रों में 35 से 38 प्रतिशत तक बच्चे इन अलामतों के शिकार पाये गये हैं। मंत्री ने बेशक यह दावा किया है कि वर्ष 2005 से वर्ष 2016 तक के अरसा के बीच देश में यह समस्या धीरे-धीरे कम हुई है,  परन्तु लोकसभा में दिये गये इस उत्तर से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि इस समस्या की विकरालता भी है, और स्वयं सरकार इससे अवगत भी है। इस जवाब में वर्णित आंकड़े स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा संचालित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से आधिकारिक तौर पर एकत्रित किये गये हैं।नि:संदेह यह सर्वेक्षण रिपोर्ट चौंकाती भी है, और इससे चिन्ता भी उपजती है। देश आज न केवल अन्न-उत्पादन के मामले में आत्म-निर्भर है, अपितु देश में अतिरिक्त अनाज भी है, और देश का अन्न उत्पादन निरन्तर बढ़ा भी है। प्रत्येक मौसम में देश में फालतू अन्न भंडारण के समाचार मिलने लगते हैं। पंजाब जैसे फालतू अन्न उत्पादन वाले प्रांतों में प्रत्येक वर्ष करोड़ों रुपये के अन्न भंडार नष्ट हो जाने के समाचार भी मिलते रहते हैं। अन्न भंडारों के खुले-बन्दों धूप-वर्षा में पड़े रहने के समाचार देश के अन्य प्रांतों में भी मिलते हैं, परन्तु पंजाब में यह समस्या अधिक गम्भीर होकर प्रकट होती है। इसके बावजूद देश के कई प्रांतों में अनाज कम पहुंचने अथवा न पहुंचने से भुखमरी और कुपोषण की समस्या उपजने लगती है। नि:संदेह इसके लिए प्रशासनिक तंत्र और सरकारी धरातल पर लाल-फीताशाही वाला आचरण उत्तरदायी है। पंजाब में अन्न-उत्पादन की सार-सम्भाल के लिए जितनी बड़ी संख्या में गोदाम चाहिएं, उतने उपलब्ध नहीं हैं। यह स्थिति एकबारगी अथवा पहली बार पैदा नहीं हुई अपितु प्रत्येक वर्ष किसान और व्यापारी को इससे दो-चार होना पड़ता है। कभी बारदाने की कमी आड़े आती है, तो कभी मंडियों से उठान नहीं हो पाता। गोदामों की कमी तो प्रत्येक वर्ष पेश आती है। धान और गेहूं के प्रत्येक मौसम में वर्ष में दो बार देश और प्रदेश को इस समस्या की पीड़ा को भोगना पड़ता है, परन्तु प्रशासनिक तंत्र अथवा राजनीतिज्ञों का इसमें पता नहीं, क्या हित है, कि सत्ता-व्यवस्था इसे हल होने ही नहीं देती। लिहाज़ा देश के कई भागों में अनाज की पर्याप्त सप्लाई नहीं हो पाती। देरी एवं अवहेलना के कारण खुले आकाश के नीचे पड़ा गेहूं एवं धान वर्षा और धूप में खराब हो जाते हैं, और कि यह तथ्य भी इन क्षेत्रों में कुपोषण का कारण बनता है।  कुपोषण के दुष्प्रभावों वाले तथ्य को देश के स्वास्थ्य संबंधी संगठन भी कई बार स्वीकार कर चुके हैं कि भारतीय लोगों के शारीरिक शौष्ठव एवं क्षमताओं में समय के अन्तराल के साथ फर्क आया है। हम समझते हैं कि यह स्थिति किसी भी विकसित अथवा विकासशील देश के लिए कदापि अच्छी नहीं है। देश में मौजूदा समय में पर्याप्त अन्न भंडार है। प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली हानि को छोड़ दें, तो खाद्यान्न की प्रत्येक जिन्स का पर्याप्त उत्पादन भी होता है। देश की कुल जन-संख्या का पेट भर जाने के बाद भी देश के पास भारी मात्रा में खाद्यान्न भंडार पड़ा रह जाता है। देश में प्रत्येक वर्ष अरबों रुपये का अनाज खराब भी होता है। आवश्यकता इस खाद्यान्न की समुचित सार-सम्भाल करने, और फिर इस भंडार को देश के प्रत्येक हिस्से में पहुंचाये जाने की समुचित व्यवस्था किये जाने की है। भारत जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में इस प्रकार की व्यवस्था न हो पाना राजनीतिक धरातल पर इच्छा-शक्ति के अभाव को ही दर्शाता है। मौजूदा चरण पर भी ऐसा ही प्रतीत होता है। अभी दो दिन पहले ही अरबों रुपये के खाद्यान्न भंडारों के नष्ट हो जाने की सूचना प्रकाशित हुई थी। इस अन्न भंडार को यदि समुचित व्यवस्था के साथ कमी वाले इलाकों में पहुंचाया जाता तो भुखमरी एवं कुपोषण की समस्या से बचा जा सकता था। अभी भी अधिक नहीं बिगड़ा है। स्थितियों को सम्भाला जा सकता है। स्थितियों की यह सम्भाल जितनी शीघ्र होगी, उतना ही देश के लोगों और राष्ट्र की छवि के लिए अच्छा होगा।