लड़खड़ाती हुई भारतीय बैंकिंग 

भारत को डिज़ीटल इंडिया बना देने का सपना मोदी सरकार का है। डिज़ीटल बैंकिंग की कल्पना को साकार करने से ही भारत डिज़ीटल बनेगा, लेकिन जब यह आधार ही लड़खड़ाने लगे, और हैरान-परेशान लोग अपने पैसे निकालने के लिए असफल हो रहे बैंकों के सामने खड़े नज़र आएं, तो ऐसे सपनों को लोगों का विश्वास कैसे मिलेगा? कुछ दिन पहले यह सब पंजाब महाराष्ट्र सहकारी बैंक के बाहर अपनी जमा राशि निकालने के लिए रोते चीखते ग्राहकों में नज़र आया, और अब यही परेशानी भारत की किसी क्षेत्र के चौथे सबसे बड़े बैंक ‘येस बैंक’ के जमाकर्त्ता झेल रहे हैं। पिल्लई बैंक और लक्ष्मी कमर्शियल बैंक जब आधी सदी पहले फेल हुए थे, तो बैंकिंग में नये युग का आगाज़ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के चौदह बैंकों के राष्ट्रीयकरण से किया था। कालान्तर में अब इनकी प्रगति से कार्यकुशलता बढ़ाने के नाम पर इन राष्ट्रीयकृत बैंकों को विलय प्रक्रिया के साथ मैगा बैंकिंग के साथ किया जा रहा है। इससे पहले सभी सहयोगी स्टेट बैंकों को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में विलय के साथ इसकी शुरुआत हुई थी।बैंकिंग के सरकारी परामर्शदाताओं का मत था कि राष्ट्रीयकृत बैंकों की कारगुज़ारी उतनी विकासोन्मुख और त्वरित गति से विकास वाली नहीं रही, जितनी  कि उभरते-संवरते भारत की प्रगति के लिए चाहिए। इसके साथ ही यह भी देखा गया कि तरक्की की दौड़ में इन बैंकों ने भी बड़े निवेशकों को ऋण पूरी पड़ताल और ज़मानत राशि रख कर नहीं दिए। इसलिए इन बैंकों में मृत खातों की समस्या बढ़ती गई है। अर्थात निवेशकों और व्यापारियों ने ऋण लिये, लेकिन इन्हें लौटाने की परवाह नहीं की। जब ऋण लौटाने का दबाव बढ़ा तो यह धन पति कानून की गिरफ्त में न आने के लिए देश से भगौड़े हो गए। इस बीच बैंकिंग विस्तार के लिए पहले मनमोहन सिंह की यू.पी.ए. सरकार ने और फिर नरेन्द्र मोदी की एन.डी.ए. सरकार ने ग्रामीण, कस्बानी और छोटे शहरों के क्षेत्र में सहकारी बैंकों, और राष्ट्रीयकृत बैंकिंग को प्रतियोगिता देने के लिए निजी बैंकिंग के विस्तार का ढांचा खड़ा करना शुरू कर दिया। लेकिन दुर्भाग्य से इन बैंकों ने तत्काल सफलता और विकास के लिए हाथों पर सरसों जमाने की तरह जमाकर्ताओं को ऊंचे ब्याज का लालच दिया और ऋण लेने वाले निवेशकों को सख्त गारंटी नहीं और राहत भरे ब्याज पर ऋण देने की दौड़ शुरू कर दी। यह दोनों ही तरीके अनार्थिक थे। इसके साथ दुर्भाग्य से इन बैंकों के संचालकों के रूप में राजनीतिक प्रभाव से युक्त नेता भ्रष्ट वित्तीय उद्यमी और संचालकों की ऐसी जुंडलियां उभरने लगी जिन्होंने ऐसे निवेशकों और व्यापारियों को अंधाधुंध ऋण देने शुरू कर दिए, जिनकी सफलता संदिग्ध थी। इसके साथ ही पोंजी अथवा छदम कम्पनियों का एक और तानाबाना देश में खड़ा हो गया, जिसको ऋण देने का एक सुगम तरीका ढूंढ कर खुद अपने ही घर में जमाकर्ताओं की जमा भरने का अवैध काम इन बैंक संचालकों ने शुरू कर दिया। अब बताइए, ऐसे बैंकों के कज़र्े वापस आते तो कैसे? इसके साथ ही मृत खातों की यह समस्या अधिक निरंकुश और भयावह रूप लेकर सहकारी बैंकिंग एवं निजी बैंकिंग क्षेत्र के सामने आ गई।  सरकारी बैंकों के क्षेत्र में असफलता का मूल कारण, लापरवाही, दायित्वहीनता या निचले स्तर की अफसरशाही का भ्रष्ट व्यवहार था, वह निजी और सहाकारी बैंकिंग में इसका बैंकिंग नियमों का पालन न करना और उच्च स्तर पर संचालकों द्वारा अपनी कम्पनियों और अपने चहेतों को वैध-अवैध लाभ पहुंचाने की भावना। यही कारण पी.एम.सी. बैंक के दुर्भाग्य का कारण बना और यही दुर्भाग्य एक भयावह चुनौती बन कर ‘येस बैंक’ के सामने आ कर खड़ा हो गया है। रिज़र्व बैंक का हस्ताक्षेप चाहे अब इन बैंकों में जमाकर्ताओं का भविष्य उज़ड़ने से बचा भी दे, लेकिन इससे सन्देह नहीं कि एक के बाद दूसरे बैंक का फेल हो जाना एक ओर सहकारी बैंक आंदोलन को धक्का पहुंचाएगा, वहां निजी बैंकों के विस्तार को भी अनिश्चित कर देगा। यह क्षेत्र नियम-कायदे से चलें और बैंक नियमों की परवाह किए बिना ही अपने चहेतों का पिष्ट पोषण न करें, इस पर चौकसी रखने की ज़िम्मेदारी एक ओर रिज़र्व बैंक और दूसरी ओर सेबी की है, लेकिन ये दोनों संस्थाएं अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा पाईं, यह पी.एम.सी बैंक और येस बैंक की असफलता बता रही है। आम नागरिक भारतीय बैंकिंग पर अपना विश्वास खोये नहीं और सहकारी बैंकिंग और निजी बैंकिंग का व्यवसाय खोखले निवेशकों के लिए मुक्ति मार्ग न बन जाए, इसके लिए आवश्यक है कि रिज़र्व बैंक और शेयरों की नियामक सैबी अपनी चौकसी को और सावधान करें, और दोषियों की दण्ड प्रक्रिया को सख्त बनाए। किसी समय बैंक में जमा हर राशि का बीमा होता था, अब इसे पांच लाख रुपए तक सीमित क्यों कर दिया? कम से कम छोटे बचत कर्ताओं को तो पूरा संरक्षण मिलना चाहिए। बड़े व्यापारियों का वर्ग इनसे अलगाया जा सकता है।