फिर वही कहानी

बरुण ने फोन पर बता दिया था कि वह छुट्टी से पहले नहीं आ पाएगा तो कल्पना को अकेले ही मार्किट जाना पड़ेगा। खैर, वरुण की मजबूरी को समझते हुए कल्पना ने सारा सामान खुद ही खरीद लिया और सिर्फ केक लेने के लिए वरुण को बोल दिया। शाम का समय था कल्पना घर पर पार्टी की तैयारी में जुटी हुई थी तभी फोन बजा, ‘वरुण कहां हो तुम? अभी तक आए नहीं?’ कल्पना ने फोन उठाते ही बोल दिया।
‘हां, बस निकल चुका हूं आफिस से। केक भी ले लिया। बस 20 मिनट में पहुंचता हूं।’ वरुण ने उत्तर दिया।कल्पना फिर से अपने काम में जुट गई। 10 मिनट... दो...घंटे...तीन घंटे... कितना टाईम बीत गया पर वरुण नहीं आया। बार-बार कल्पना उसका फोन लगा रही थी परन्तु फोन भी बंद था। कल्पना को बहुत चिंता होने लगी। इधर-उधर चक्कर लगाती कल्पना चिंता के मारे बैठ भी नहीं पा रही थी। अचानक फोन बजा। नम्बर स्क्रीन पर वरुण का नाम देखकर बिना एक सैकेंड की देरी के लिए कल्पना ने तपाक से फोन उठाया। ‘कहां हो वरुण? कितना टाईम लग गया? फोन तो कर देते तुम्हें पता है कि मैं....।’ दूसरी तरफ से किसी व्यक्ति ने कल्पना से कुछ कहा और कल्पना फोन वहीं फैंक कर बिना चप्पल पहने वैकल्प को गोदी में उठाकर सड़क की तरफ भागी।घर के बाहर मेन रोड पर लोगों की भीड़ जमा थी। भीड़ को चीरती हुई कल्पना आगे बढ़ी तो सामने का दृश्य उसकी सारी ज़िन्दगी पलट देने वाला था। एक तरफ कुचला हुआ केक पड़ा था। थोड़ी दूरी पर वरुण की बाइक थी जो केवल नाम से  बाइक थी जबकि ऐसा लग रहा था कि किसी भारी वाहन के नीचे आकर उसने अपना दम तोड़ दिया हो।कल्पना यह दृश्य देखकर सुन्न खड़ी रही उसे तो पता ही नहीं चला कि कब तूफान आया और उसके जीवन की सारी खुशियां झटके से उड़ा ले गया।ससुराल और मायके वालों को जब पता चला तो भागे आए। सभी कर्म कांड के बाद कल्पना और वैकल्प को साथ चलने के लिए कहने लगे पर कल्पना इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी वो नहीं चाहती थी कि जिस घर से उसने वरुण के साथ अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत की थी उस घर को वो छोड़ कर जाए इसीलिए उसने किसी का प्रस्ताव स्वीकार न किया।वैकल्प बड़ा होता गया। स्कूल की शिक्षा, फिर कालेज की शिक्षा। वकालत की पढ़ाई खूब मन लगाकर करता रहा वैकल्प। कड़ी मेहनत के बल पर एक दिन एडवोकेट बन कर कल्पना के सामने आ खड़ा हुआ।काला कोट पहने वैकल्प को देख कर कल्पना की आंखों से खुशी के आंसू छलक उठे। वैकल्प ने आगे बढ़कर जब आंसू पौंछने चाहे तो कल्पना फूट-फूट कर रो पड़ी, मानो आज उसे वरुण की मौत के बाद उसकी कमी खली हो और इस बात का दुख कि वरुण इस पल से कैसे महरूम रह गया। उसने भी तो वैकल्प के लिए यही सपना देखा था।एडवोकेट स्नेहा, वैकल्प के साथ ही कचहरी में काम करती थी। धीरे-धीरे दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई और फिर प्यार...। मां के अकेलेपन को दूर करने का एक ही उपचार था वैकल्प की शादी। धीरे-धीरे स्नेहा का घर पर भी आना जाना होने लगा। बात आगे बढ़ी और दोनों परिवारों की मंजूरी से दोनों का विवाह पक्का कर दिया गया।विवाह के दिन गृह प्रवेश से पहले कल्पना ने अपनी बहू से वादा किया कि उसे कभी भी यह घर छोड़कर जाना नहीं पड़ेगा, क्योंकि वो उसे बहू नहीं बेटी की तरह रखेगी। शायद कल्पना को अपनी शादी के कड़वे लम्हे याद आ गए होंगे। जिसकी वजह से उसे अपना ससुराल छोड़ना पड़ा था। अब स्नेहा और वैकल्प भी वरुण और कल्पना की तरह हर रोज सुबह तैयार होकर कचहरी के लिए निकल जाते। कुछ दिनों तक तो ठीक था पर नये विचारों वाली स्नेहा को कुछ दिनों के बाद अपनी सासू मां घर में खटकने लगी थी। उसे बिल्कुल पसंद नहीं था कि वैकल्प शाम को आकर घंटों अपनी मां से बातें करे। (क्रमश:)