समय का डरावना परिदृश्य 

जिस विषय पर आप से बात की जा रही है, यह कोरोना काल से कुछ पूर्व का है लेकिन हालात आज भी वही हैं और जिस तनाव व संकट से हम गुज़र रहे हैं लगता है कि आने वाले कल की स्थिति भी वैसे ही रहने वाले हैं क्योंकि आज एक बड़े बदलाव का अनुमान लगाना मुश्किल लग रहा है। इस तरह घटते अन्याय का सीधा अनुभव हमारे मित्र लेखक और सम्पादक हेतु भारद्वाज का है जो कि एक साहित्यिक हिन्दी पत्रिका के सम्पादक हैं। वह इस समय भयावह परिदृश्य दिखा रहे हैं। समझ नहीं पा रहे कि इस समय को परिभाषित कैसे करें। भाजपा सत्ताधारी पार्टी है तो भाजपा सांसद, विधायक और पार्टी पदाधिकारी सरकार की उपलब्धियां गिनवा रहे हैं जबकि हत्या, लूटपाट, दुष्कर्म  की घटनाएं थम नहीं रहीं। जगह-जगह तस्करी, रिश्वतखोरी, घोटालेबाजी हो रही है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसी स्थितियों के बीच लेखक खुद एक भयानक दौर से गुजर रहे हैं। यह राजस्थान के ही सीकर जिले के नीम का थाना कस्बे के निवासी हैं परन्तु उससे कुछ नहीं होता।पूरे भारत में कहीं भी यह सब घट सकता है। जहां वह रहते हैं उस वार्ड में शराब का ठेका खोलने की अनुमति आबकारी विभाग से मिली थी। तब उन लोगों ने विरोध ज़ाहिर कर ठेका नहीं खुलने दिया लेकिन तीन साल बाद विभाग ने उसी स्थल पर शराब की दुकान खोलने की अनुमति दे दी। वह भी दो साल के लिए। जिस स्थल के लिए अनुमति दी गई है, वहां से दिल्ली, अलवर आदि के लिए चलने वाली सरकारी अथवा प्राइवेट बसों का तांता लगा रहता है। आटो और निजी वाहन भी दिन भर आते-जाते हैं। यहीं से सिर्फ 500 मीटर की दूरी पर बालिकाओं का सीनियर हायर सैकेडरी स्कूल है, राजकीय महाविद्यालय है, संतोषी माता का मंदिर है जहां महिलाएं भक्ति भाव से आती-जाती हैं। शराब की दुकान से जिन ग्यारह परिवारों को असुरक्षा होने वाली थी, उन परिवारों के सदस्यों ने इसका विरोध करना आरंभ कर दिया। वार्ड की महिलाओं ने धरना देना आरंभ कर दिया। अन्य सदस्यों ने भी विरोध जाहिर किया। ठेकेदार दुकान तो खोल नहीं पाए परन्तु वहां के निवासियों को धमकियां मिलने लगी। महिलाओं ने सख्त गर्मी में भी धरना जारी रखा। ठेकेदार ने भाड़े के गुंडे भेज दिए। वे आक्रामक मुद्रा में थे। धरने पर बैठी महिलाओं पर हमला किया, पत्थरबाजी की। ग्यारह महिलाओं ने डटकर विरोध किया। दुकान में शराब की पेटियां नहीं रखने दीं। हिम्मत दिखा कर उन्हें वापस भेज दिया। हालांकि उन्हें चोटें भी आईं। उनका मैडीकल करवाया गया।गुंडागर्दी के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करवा दी गई। प्रशासन ने न हीं आस-पास के लोगों ने महिलाओं की कोई मदद की। लोग भी तमाशबीन बने रहे। स्वयं आप कल्पना कर सकते हैं कि नगर के सर्वोच्च अधिकारी महिलाओं की रक्षा करने की बजाय उनसे कहा कि क्या आप लोगों के घर के लोग शराब नहीं पीते? फिर लेखक भी अन्य लोगों के साथ क्षेत्रीय विधायक से जाकर मिले जिन्होंने आबकारी वृत्ताधिकारी को फोन कर  यहां की दुकान निरस्त करने का निर्देश दिया था। वे उसके बाद वृत्ताधिकारी  से भी मिले जिन्होंने कहा था कि यह तो आरंभ सें ही इस स्थल का विरोध कर रही हैं परन्तु व्यवहारिक स्तर पर कुछ हो न पाया। उन्हें लगा कि प्रशासन के लिए जैसे कुछ हुआ ही नहीं। उन्हें ख्याल आया कि प्रधानमंत्री वी.आई.पी. कल्चर समाप्त करना चाहते हैं। इसलिए लाल बत्ती परम्परा समाप्त कर दी है किन्तु इस मानसिकता का क्या करें जो पार्षद से पंच तक को वी.आई.पी. बनाए रखती है।  पार्षद धरना स्तल पर आए और कहा कि वह पहले ही मना कर चुके हैं वहां ठेका खोलने को।  लेखक को यह अनुभव होने लगा कि न्याय के साथ कोई भी नहीं। न जनता का सहयोग, न प्रशासन का हस्ताक्षेप, न जनप्रतिनिधियों का आश्वासन। इस स्थिति में धरने पर बैठी महिलाएं क्या करें? सभी के अपने-अपने काम हैं। शराब ठेकेदार की ज़िद है कि ठेका वहीं खुलेगा क्योंकि प्रशासन और आबकारी विभाग का सहयोग उसे मिल ही रहा है। उनके सामने सोच है कि जंगलराज और क्या होता है? असामाजिक तत्व लगातार हावी हो रहे हैं। यह सब निराशाजनक है। परन्तु यह भारत के किसी भी प्रांत, किसी भी कस्बे, शहर की कहानी हो सकती है जिस पर जनप्रतिनिधियों को सोचना चाहिए।