क्या भारत में भी रंग आधारित नस्लवाद मौजूद है ?

जब से अश्वेत जार्ज फ्लायड की एक गोरे पुलिस अधिकारी ने अमरीका में हत्या की है, तभी से भारत में नस्लवाद पर बहस चल पड़ी है। इस चर्चा में भाग लेने वाले तकरीबन सभी लोगों को लगता है कि भारत में भी एक ऐसा नस्लवाद है जो भूरे, गेहुंए, श्याम और कम गोरे रंग पर गोरे रंग को प्राथमिकता देता है। यह साबित करने के लिए जो तर्क जुटाए जा रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख संस्कृत के शब्द ‘वर्ण’ को ले कर है। चूंकि वर्ण का मतलब होता है रंग, इसलिए दलील दी जा रही है कि हिंदू समाज का वर्णाश्रम धर्म अपने-आप में नस्लवाद के प्राचीन आधार की तऱफ इशारा करता है। अ़खबारों में ऐसी स्त्रियों के कड़वे अनुभव छापे जा रहे हैं जिन्हें अपने सांवले रंग के कारण कभी न कभी भेदभाव का शिकार होना पड़ा। एक गहरी सांवली स्त्री ने तो यहां तक वक्तव्य दिया है कि गोरा रंग न होने के कारण वह सुंदरता पर अपना ह़क ही मानती। जहां तक गोरे रंग को मिलने वाली प्राथमिकता का सवाल है, भारतीय मानस की इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता। हिंदी की दो विख्यात कथा-लेखिकाओं प्रभा खेतान और मन्नु भंडारी ने अपनी आत्मकथाओं में लिखा है कि वे रंग गोरा न होने के कारण बचपन में हीनता की ग्रंथि से पीड़ित थीं। उन्हें लगता था कि परिवार में जो गोरे बच्चे हैं, उन्हें अधिक तरजीह दी जाती है। इसी के साथ जोड़ कर अगर ‘़फेयर एंड लवली’ यानी गोरे रंग की क्रीम का हज़ारों करोड़ रुपए का व्यापार देखा जाए, तो यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि भारत में हर दूल्हे को गोरी दुल्हन क्यों चाहिए होती है। इसी तरह हर हीरोइन को मेकअपमेन लीप पोत कर गोरा क्यों बना देता है। हर टीवी एंकर स्त्री स्क्रीन पर अनिवार्य रूप से गोरी ही दिखती है।ज़ाहिर है कि समाज की सोच में रंग को लेकर एक ऐसी समस्या है जिसे ग्रंथि की संज्ञा भी दी जा सकती है। लेकिन, क्या यह समस्या नस्लवाद है, वैसा ही नस्लवाद जैसा पश्चिमी समाजों में व्याप्त है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस तरह हम पश्चिमी समाजों की ़खूबियों को अपने समाज में देखना चाहते हैं, उसी तरह हम उन समाजों की बुराइयों को भी अपने समाज में देखने की कोशिश करने लगते हैं? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए ज़रूरी है कि हम पहले यह पता लगाएं कि क्या भारतीय चिंतन में पारम्परिक ढंग से गोरे रंग को चमड़ी के दूसरे रंग पर प्राथमिकता दी गई है, और अगर दी गई है तो उस प्राथमिकता का किरदार क्या है? नव-प्राच्यवादी मोनियर मोनियर-विलियम्स भी वर्ण का अर्थग्रहण वर्ग, जनजाति, गण और जाति के रूप में करते हैं। ऋग्वेद में भी जहां आर्यों और दस्युओं के बीच अंतर किया गया है, वहां त्वचा के रंग का मानक इस्तेमाल नहीं किया गया है। संस्कृत के विद्वान और दुनिया के प्रमुख भाषाशास्त्रियों में से एक माधव देशपांडे ने पतंजलि के महाभाष्य  के हवाले से बताया है कि प्राचीनकाल में आम तौर पर ब्राह्मणों का रंग आम तौर पर गोरा समझा जाता था। कहा जाता था कि वे कृष्ण वर्ण के नहीं हो सकते। देशपांडे ने नौवीं सदी के सौंदर्यशास्त्री राजशेखर की कृति काव्यमीमांसा  के ज़रिये भारत में त्वचा के रंगों के भूगोल की जानकारी भी दी है। लेकिन, क्या इससे यह साबित होता है कि भारतीय समाज में रंग आधारित अलगाव, अवसरों की असमानता और परस्पर घृणा की संरचनाएं थीं? क्या भारत में रंग और रूप को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था? यानी गोरा रंग सुंदरता और काला रंग कुरूपता का पर्याय था? क्या विष्णु के दोनों प्रमुख अवतारों (राम और कृष्ण) और अन्य कई पूजनीय देवी-देवताओं का श्याम वर्ण त्वचा के रंग से जुड़ी प्राथमिकताओं के बारे में कुछ नहीं कहता? क्या कालिदास के मेघदूत की यक्षिणी ‘तन्वंगी श्यामा’ नहीं है? क्या महाभारत की द्रौपदी अपने सांवले रंग और सुंदरता के लिए नहीं सराही जाती? दरअसल, त्वचा के विविध रंगों से सम्पन्न एक बेहद विशाल समाज की संस्कृति-बहुल संरचना में रंग और दैहिकता में जन्मना मानकों के आधार पर कुछ पूर्वग्रहों का होना स्वाभाविक ही है, लेकिन उन पूर्वाग्रहों को दो या तीन विशालकाय नस्ली समुदायों के आपसी टकराव की तरह नहीं देखा जा सकता। व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो यह स्थिति और साफ हो जाती है। मैं अपना ही उदाहरण पेश करता हूँ। मेरी मां बहुत गोरे रंग की थीं। मेरे पिता दबते हुए गेहुंए रंग के थे। मेरी पत्नी भी गेहुंए रंग की है। मेरी बेटी भी। मेरा बेटा गोरे रंग का माना जाता है। मेरे श्वसुर गहरे सांवले थे, पर उनके छोटे भाई बहुत गोरे रंग के थे। दरअसल, यह स्थिति पूरे देश के करोड़ों परिवारों की है। हर परिवार में (कुछेक अपवादों को छोड़ कर) त्वचा के तरह-तरह के रंग देखे जा सकते हैं। ऐसे देश में त्वचा के रंग पर आधारित नस्लवाद असंभव है। इस समाज में गोरे रंग की ऐसी अनगिनत स्त्रियां हैं जिन्होंने सांवले रंग के पुरुषों को अपने प्रेम का पात्र बनाया। इसी तरह न जाने कितने गोरे पुरुष हैं जो सांवली स्त्रियों से प्रेम करके विवाहित हुए। मुझे लगता है कि भारतीय मानस बहुत ज़्यादा गोरे रंग पर मोहित होने के बजाय उससे चौंकता है। विश्व सुंदरी युक्ता मुखी और टीवी अभिनेत्री सौम्या टंडन आपबीती बताती हैं कि उन्हें उनके बहुत ज़्यादा गोरे रंग से शुरू से ही परेशानियों का सामना करना पड़ा। युक्ता मुखी बताती हैं कि बचपन में स्कूल में वह और उनका भाई बहुत गोरे रंग के कारण अपनी कक्षा मेें अकेले पड़ जाते थे। हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब भारतवासियों ने अंग्रेज़ों को पहली बार देखा तो उन्हें फिरंगी कहा, यानी फिरंग रोग का शिकार व्यक्ति। कोई भी भारतीय नहीं चाहता कि उसका रंग फिरंगियों जैसा हो जाए। जहां तक उत्तर-पूर्व के लोगों को चिंकी-मिंकी कहने वाली बात है, हमें देखना होगा कि यह अनावश्यक और बेहूदा टिप्पणी उनके नाक-नक्श पर होती है। रंग में तो वे देश के अन्य क्षेत्रों से गोरे ही होते हैं। यह टिप्पणी पश्चिमी किस्म के नस्लवाद के आईने में देखे जाने की अपेक्षा एक उप-महाद्वीपीय देश के विभिन्न क्षेत्रों के वासियों के बीच की सांस्कृतिक दूरी के रूप में देखी जानी चाहिए। यह सांस्कृतिक दूरी ‘अन्यता’ पैदा करती है। परस्पर सांस्कृतिक आत्मसातीकरण इस समस्या का क़ाफी हद तक निदान कर सकता है।