समग्र और दूरगामी नीति बनाकर दृढ़ता से आगे बढ़ें

चीन की सोच और उसकी पूरी रणनीति को समझने वाले जानते हैं कि उसके लिए किसी समझौते का अर्थ केवल अपनी विस्तारवादी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करना है। इसलिए यह मूल प्रश्न आज भी उसी तरह कायम है कि चीन से निपटा कैसे जाए। 1949 में कम्युनिस्ट क्रांति के साथ ही चीन के माओवादी साम्राज्यवादी कम्युनिज्म ने सभी पड़ोसी देशों के लिए समस्याएं पैदा करना शुरु कर दी थीं। 1962 के युद्ध के बाद से यह प्रश्न लगातार हम पर हथौड़ों की तरह प्रहार करता आ रहा है। तंग शिआओ पिंग ने राजीव गांधी के साथ जिस नीति की शुरुआत की, उसका मूल यही था कि सीमा विवाद को अगली पीढ़ी के लिए छोड़कर हमें आपसी सहयोग को आगे बढ़ाना चाहिए। उसके बाद से शांति, विश्वास स्थापना तथा सीमा व्यवहार के समझौते होते गए। किंतु चीन ने कभी भारतीय भूमि पर न अपना दावा छोड़ा, न सीमा विवाद को सुलझाने की कोशिश की और न ही भारत को कमज़ोर और दबाव में रखने की नीति बदली।  चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग स्वयं को जीवन भर का शासक बनाने के बाद माओ से आगे निकल जाने की कल्पना में चीन को विश्व पर दबदबा रखने वाली सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बनाने की योजना पर बढ़ रहे हैं। भारत से तनाव के बीच हुए अपने तीन भाषणों में उन्होंने सेना से सीमा तथा आर्थिक हितों की रक्षा के लिए युद्ध की तैयारी की बात की है। चीन के विरुद्ध दूरगामी रणनीति बनाने और उस पर आगे बढ़ने के पहले शी के इस निजी और राजनीतिक लक्ष्यों को गहराई से समझना होगा। हमारी 43 हज़ार वर्ग किलोमीटर भूमि पर पहले से उसका कब्जा है। 14 नवम्बर 1962 को समूची भूमि को वापस लेने का संसद का प्रस्ताव केवल कागज़ों पर ही तो नहीं रहना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि संप्रभुता की रक्षा के लिए भारत प्रतिबद्ध है। भारत ने सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सैनिकों से अपने स्तर पर निपटने की खुली छूट दी है। खुली छूट का अर्थ है चीनी सैनिकों से जैसे चाहें, निपटें। इसमें हथियार न चलाने की प्रतिबद्धता खत्म। यह बहुत बड़ा नीतिगत परिवर्तन है। थल सेना, वायुसेना और नौसेना हाई अलर्ट पर रहेंगे।  हमारा पड़ोसी तिब्बत था। 1951 में चीन ने उसे हड़प लिया। 1959 में तिब्बती धर्मगुरु तथा वहां के शासक दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी। सवाल है कि हमने दलाई लामा और तिब्बतियों को शरण क्यों दी? भारत खुलकर तिब्बत की आज़ादी का समर्थन करे। अमरीका, यूरोप और एशिया में भी जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देश तिब्बत पर चीन की नीति के विरुद्ध हैं। कहने का तात्पर्य यह कि चीन के संदर्भ में समूची विदेश नीति में आमूल परिवर्तन किया जाना चाहिए। चीन की सीमा 14 देशों से लगती है और अपनी विस्तारवादी महत्वाकांक्षा में इसने 23 देशों के साथ सीमा विवाद पैदा कर लिया है। जापान के साथ तो उसका समुद्री सीमा विवाद काफी तीखा हो चुका है। दक्षिणी चीन सागर पर दावों के कारण इंडोनेशिया, फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ताइवान और ब्रूनेई से उसका तनाव है। भारत आगे बढ़कर इन सभी देशों को साथ ले सकता है। चीन दुनिया का अकेला देश है जिसका आज कोई मित्र और विश्वसनीय साथी नहीं है। इसके विपरीत भारत के मित्र एवं सामरिक साझेदार देशों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। हिन्द महासागर और प्रशांत क्षेत्र के ज्यादातर देशों के साथ हमारा रक्षा सहयोग समझौता हो चुका है और वे सब चीन से आशंकित हैं। चीन के खिलाफ  घेरेबंदी के लिए इस पर तेजी से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। आखिर हम हिन्द प्रशांत क्षेत्र में जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमरीका के साथ मालाबार सैन्य अभ्यास क्यों करते हैं? इसका लाभ तो उठाएं। इसके साथ आता है चीन को आर्थिक रुप से धक्का देने का प्रश्न। भारत से चीन को व्यापार में करीब 50 अरब डॉलर का लाभ पिछले वर्ष हुआ है। इस समय चीनी सामग्रियों के बहिष्कार का माहौल है। बेशक, औषधियों के लिए कच्चा माल से लेकर ऐसी अनेक सामग्रिंयों के लिए हम उस पर निर्भर हैं, इसलिए एकबारगी सब पर शुल्क बढ़ाना या आयात रोक देना राष्ट्रीय हित में नहीं होगा। किंतु अन्य अनेक सामग्रियां हैं जिनको रोका जा सकता है। जहां तक इलेक्ट्रोनिक सामग्रियों तथा नई संचार तकनीक में सक्षम होने की कोशिश की जानी चाहिए। इस तरह कठोर, मुखर और दूरगामी रणनीतियों के साथ भारत आगे बढ़े तो चीन को समुचित जवाब दिया जा सकता है।