ज़माना सस्ते न्याय का!

मेएरे मुहल्ले के लड़कों ने इन दिनों कालर चढ़ा लिए हैं। आलम यह है कि अकड़ कर बैठे हैं कि पंगा न लेना, अब हम केवल मंडल-कमंडल वाले ही नहीं रहे। वैसे बताने की जरूरत नहीं, आप टीवी तो देखते ही होंगे....।  अब जो नयी उम्र की नयी फसल वाले हैं, उन्हें लगता है कि आगे चलकर वे भी अपनेमरहूम दादा की तरह गुंडई के रास्ते पर चल निकलें। जब वे बन गए, तो हम क्यों पीछे रहें। हमारा उनका वर्ण तो एक ही है। अब उनमें जो गोत्र वालेहैं, वे कहीं ज्यादा चौड़ाए डोल रहे हैं। पता है...धाँय-धाँय दादा हमारी ही गोत्र के थे। मेरी अम्मा तो उसके जनेऊ संस्कार में भी गई थीं....सच्ची।वैसे हमारे चंडूखाने के खुफिया रिपोर्टर ने खबर दी है कि गाँव देहातों में शर्मदारों के सिर झुक गए हैं। अब तक तो रावण का कलंक ही पीछा न छोड़ रहा था, अब इसका और लग गया। कमबख्त ने नाम भी ऐसा रखा जिसका नारा लगाते-लगाते हाशिये पर गए नेता भी सत्ता में आ जाते हैं। जो ये नाम ले लेता है, दुनिया उसकी दीवानी हो जाती है। आलम यह कि यह नाम लोकतंत्र के हर काल, परिस्थिति पर एकदम फिट बैठता है। फिर इस नामधारी ने यह काम क्यों किया...। चंडूखाने से निकल कर दूसरी बड़ी खबर यह आ रही है कि बड़ी कचहरी वाले सोच रहे हैं कि क्यों न हम ही अपना बोरिया-बिस्तरा समेट लें। जब न्याय धाँय-धाँय से हो जाए तो क्या जरूरत है मुकद्दमे की। एक की निगाह में खाकी न चढ़ी, सो कई टपका दिए। दूसरे की निगाह में टपकाने वाला न चढ़ा, सो उसे टपका दिया। एक ने बलात मारा, दूसरे ने दौड़ा-दौड़ाकर मारा। अपनी ही गाड़ी उलटा दी भाई लोगों ने। तुर्रा यह कि चोर की दाढ़ी में तिनका तक न
दिखा....सामने छाती से कर दी धाँय-धाँय...मारना ही था तो थोड़ा दिमाग ही दौड़ा लेते। वैसे इतनी ही अक्ल होती तो ठुल....थोड़े ही कहलाते, खैर....। सुना है, सरकार सोच रही है कि जब न्याय इतनी जल्दी मिल ही रहा है तो इन कोर्ट-कचहरियों का खर्चा क्यों बढ़ाया जाए। धाँय-धाँय से अपनों को इन्साफ तो मिल ही रहा है। जहाँगीरी न्याय इसे ही तो कहते हैं। एक अपनी अदालतें हैं जहाँ माननीय सांसद साहब ने अपनी ऐतिहासिक जिरह में कहा था.....तारीख पे तारीख....तारीख पे तारीख। श्रीमान जी ने वर्तमान व्यवस्था पर आक्र ोश व्यक्त करते हुए अपने हाथों को हथौड़े की संज्ञा देते हुए उच्चारा था कि यह हाथ नहीं, हथौड़ा है...। माननीय सांसद साहब के उद्गारों पर ध्यान देते हुए अदालतों को लगता है कि अब समय आ गया है, जब अपनी दुकान बढ़ानी पड़े क्योंकि अब किसी के पास इतना टाइम नहीं है जो अदालतों के चक्कर काटें, सो एक मर रहा है.....दूसरा मार रहा है।बात एकदम सहीहै....त्वरित न्याय देने वालों के काम में भला हम क्यों रुकावट बनें....। हो सकता है आगे चलकर अदालतें, क्रि केट के पाँच दिनी मैच की तरह आउटडेटिड हो जाएँ। रही-सही कसर मीडिया पूरी कर देता है। गुंडों की जीवनियाँ दिखा-दिखाकर शरीफ लोगों में काम्पलेक्स पैदा हो रहा है। हमारे चंडूखाने के रिपोर्टर बता रहे हैं कि शरीफ लोगों को अब यह लगने लगा है कि हमसे अच्छे तो ये गुंडे-मवाली हैं जो सुर्खियों में तो रहते हैं। सोकरियर बनाने वाले युवा सोच रहे हैं कि एक बार यदि खाकी न भी पहन पाएं....अंगोछा लटका के गुंडे ही बन जाएंगे। चर्चा में तो दोनों ही रहते हैं। इसकीकमान अक्सर खादी वालों अथवा बिना खादी वाले सत्तारूढ़ों के हाथ में रहती है। रही बात आम आदमी की.... वो तो सड़क पर ऊँची आवाज में बोलने सेभी डरता है, बाई गाड की कसम।

(अदिति)