ज़माना बदल गया
कल जो गुणवान कहलाते थे, आज वे दोषों के पुतले हो गये, और जिन्हें दोषी समाज अजनबी समझता था, या बहिष्कृत कर दिया जाता उन्हें लगातार सफलता की सीढ़ियां चढ़ कर महान होते देखते हैं। उनसे ईर्ष्या भी नहीं कर पाते, क्योंकि पीछे छूट गये लोगों के ईर्ष्या-द्वेष का कोई मतलब नहीं रह गया।
जो जमाने के साथ नहीं चल सके, वे आपके साथ ईर्ष्या द्वेष रखते हैं, तो उसका क्या मतलब? आजकल ईर्ष्या-द्वेष जैसी मासूम भावनायें रखने का कोई अर्थ नहीं। सीधे-सीधे जो रास्ते में अवरोध बन रहा है, उसे ध्वस्त करो, और अपने आप को धाकड़ बता दो। आज बहुत से पुराने मुहावरे बासी बताकर शब्द कोष से बाहर कर दिये गये हैं, लेकिन कुछ चलते भी हैं, जैसे समरथ को नहीं दोष गोसाईं।
सामर्थ्यवान बनना है और वह भी ऐसा कि आपके रास्ते का अवरोध बना आदमी ऊंट पर बैठा हो, तो उसे कुत्ता बनकर काट लो। चाणक्य की नीति जो कभी सफलता के द्वार खोलती थी, अर्थात साम, दाम और दण्ड और भेद ही अधिक कारगर हो गया है लेकिन बिकने वाले तो इतने सस्ते हो गये हैं कि उनका दाम बताते हुए भी शर्म आती है, और साम जैसी धमकी और पुचकार गिरगिट की तरह रंग बदलने लगी है।
वैसे भी मौसम में संवेदनहीनता हावी हो गयी है। लोग बिना मोल ही सफल आदमी के हक में नारा लगाने को तैयार हैं, उन्हें धमकी देने और पुचकार की भी ज़रूरत नहीं पड़ती।
संस्कृति की तलाश में चले थे, सांस्कृतिक तो हो नहीं सके, हां, शार्टकट संस्कृति अवश्य पल्ले पड़ गयी। आजकल शहरों, गांवों और मुहल्ले के नाम बदल कर अतीत का गौरव तलाश किया जाता है, इसलिए उसका नाम भी बदल कर संक्षिप्त मार्ग संस्कृति कर दिया गया है। पहले छात्रों में विश्वविद्यालयों को नकार कर आइलेट अकादमियों को घेरने का ज़माना था। विदेशों में किसी प्रकार तस्कर हो जाने का ज़माना था।
आजकल डंकी मार्ग मौत मार्ग बन गया है। जो बच गया, उसके हथकड़ी बेड़ी पहन कर बेरंग वापिस लौटने का ज़माना आ गया। इसलिये माहौल बदलेगा। पारपत्र दिलवाने दलाल जब तक पुलिसीय छापों की मार सह रहे हैं, युवकों के लिए अब आईलेट अकादमियां नहीं, हथेलियों पर सरसों जमाना सिखाने वाली अकादमियां बनानी पड़ेंगी।
विद्यालय के खाली परिसरों में इस पीढ़ी के लौटने की उम्मीद छोड़ दो क्योंकि पुस्तक संस्कृति की मौत हो गयी है, किंडल का ज़माना आ गया है। अब कृत्रिम मेधा आपकी सहायक बनकर नहीं, आपकी उंगली को पकड़ कर आपको जीवन की मैराथन में भगाने के लिए चली आयी लेकिन इस मेधा का अविष्कार करने वाले खुद चमत्कृत हो रहे हैं। जिसका आविष्कार किया उसकी मेधा उन पोंगे लोगों की अक्ल से छलांग मार कर आगे हो रही है। नया संकट यह पैदा हो गया कि ऐसे इन्सान की बनायी इस बुद्धि को अपनी जंग लगी बुद्धि से आगे न होने दें।
वैसे भी इस मेधा का इस्तेमाल पहले शार्टकट संस्कृति के रूप में चन्द चतुर सुजान कर लेते थे।
अपना काम निकालने के लिए आज जिसका प्रशस्ति गायन करते थे, उनके पीछे छूट जाने पर उन्हें निन्दा रस से भिगोने में परहेज नहीं करते थे। आज जो खुदा है, उसे मौका लगने पर नाखुदा बना देना ही इस संस्कृति का मूल मंत्र है। आज जिसका जयघोष बने हो, कल वह आपकी शोभायात्रा में शरीक हो जाये, यही लक्ष्य रह गया है।
आया राम का गया राम हो जाना कभी एक व्यंग्य था, आज कामयाबी का सिद्धांत बन गया। चाणक्य नीति की ध्वजा बन गया। कहीं कुछ भी हो जाये, इसके घटने से अब कोई चौंकता नहीं। यहां सब चलता है। इस समाज का परिचय बन गया और सम्पर्क संस्कृति एक स्वीकृत मार्ग।
कभी मोर हमारा प्रिय जीव था। बादल घुमड़ने से उसके नाचने की कल्पना सबको आह्लादित कर देती। अब गिरगिट के प्रिय अब तलाश लो। उसका रंग बदलना सबको जीना सिखा गया, और फुटपाथियों को झोंपड़ा बन जाने में मदद करने लगा।
उन्नति का अर्थ आध्यात्मिक उन्नति नहीं, परमात्मा से आत्मा का मिलन नहीं, बल्कि झोंपड़े से मकान और मकान से प्रासाद बन जाने की क्षमता बन गया है। जो इस मार्ग पर सफलता प्राप्त न कर सके, अब वही वैराग्य की बात करता है। इहलोक नहीं सधा तो परलोक साधने की बात करता है।
छोड़ो इन नये फार्मूलों के चिन्तन को। हथेली पर हिमालय उगाना है तो फर्जी होने का एक रास्ता और भी है। इस फर्जीवाड़े से ठगों का साम्राज्य चलता है। जो आप नहीं हो, उसके होने का अभिनय कर सको और अन्तत: उसी अभिनय में विश्वास करने लगो, यही इस बदलते जमाने का अर्थ है।
देश डिजिटल हो जाये, तो साइबर अपराधों का बोलबाला हो जाने दो। कृत्रिम मेधा की मैराथन दौड़ लगे, तो डीप फेक का इस्तेमाल करो अर्थात जो नहीं हो, वह बन जाने का विश्वास रखो। यन्त्र खरीदो और उसकी ऊर्जा से नाटकों के संवाद लिखवाओ, कवितायें लिखवाओ और राष्ट्रीय कवि बन जाओ।
इस मशीनी युग में मशीनी न हुए, भावुकता और प्रतिबद्धता को धत्ता न बताया तो इस बदलते जमाने के नये आदमी न बन सकोगे। तब तुम्हारा जन्म और जीवन भला किस काम का? ‘हे मानव, तूने वृथा जन्म गंवाया’ पहले एक भजन था, जिसे हम झूल-झूल कर गाया करते थे।
भजन तो आज भी वही है लेकिन अब उसे इस धरती पर चलते फिरते खुदाओं के लिए गाया जाता है। यह मामूली बात है कि अपने जीवन की विकास दर के तेज़ होते जाने के नाम पर समय-समय पर खुदा बदल जाता है लेकिन याद रखो, वैसे इच्छा भी यही है कि कितने दिन हम अपने खुदा बदलते रहें। एक दिन तो हमको स्वयं खुदा बन जाना है, वे कहते हैं।