क्या नेपाल में राजा की वापिसी हो पायेगी ?
काठमांडू के दरबार चौराहे पर स्थित तलेजू मंदिर में पहली नवरात्रि की घंटियां शांत भी न हुईं थीं कि ‘राजा आऊं पारचा’ (राजा को वापस लाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है) की कानाफूसी शुरू हो गई। यह नेपाल में राजशाही वापस लाने और उसे हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए आंदोलन की शुरुआत थी। आंदोलन आरंभ करने के समय के महत्व को हर कोई समझ रहा था। रामनवमी कुछ ही दिन बाद है और यह वह मौसम है जब न्यायप्रिय राजाओं का जश्न मनाया जाता है। हालांकि पहली नवरात्रि 30 मार्च, 2025 को थी लेकिन उससे दो दिन पहले यानी 28 मार्च को राजशाही के समर्थन में हिंसा हुई थी, जिसमें एक पत्रकार सहित दो व्यक्तियों की मौत हो गई थी। यह हिंसा कराने के आरोप में पुलिस ने राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी), जो इस आंदोलन की अगुवाई कर रही है, के दो वरिष्ठ नेताओं को 31 मार्च को अदालत में पेश किया। सांसद धवल शमशेर राणा और रबिन्द्र मिश्रा के पास्पोर्ट ज़ब्त कर लिए गये है और अनुमान यह है कि उन पर राष्ट्रद्रोह के मुकद्दमे चलाये जायेंगे। नेपाल में इस अपराध की सज़ा आजीवन कारावास है। नेपाल की संसद में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के पास्पोर्ट को ज़ब्त करने की मांग भी उठी है। अपने नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में राजशाही समर्थक और हिन्दू राष्ट्र की मांग करने वाले आरपीपी के कार्यकर्ताओं ने 12 शहरों में ‘मशाल’ रैली निकाली है।
नेपाल में हर गुजरते दिन के साथ राजा को वापस लाने की मुहिम तेज़, उग्र व हिंसक होती जा रही है। दूसरी ओर लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले सत्तारूढ़ दल इस आंदोलन को सख्ती से कुचलने का प्रयास कर रहे हैं। गौरतलब है कि नेपाल में हिंसक आंदोलन से ही राजशाही पर विराम लगाया गया था और फिर कड़ी जद्दोजहद के बाद नये संविधान का गठन करके लोकतांत्रिक मूल्यों पर राजनीतिक व्यवस्था स्थापित की गई थी, जिसके तहत जनता चुनाव के माध्यम से अपनी सरकार का गठन करती है। अब हिंसक आंदोलन से ही राजशाही को पुन: स्थापित करने का प्रयास है, जिसमें भावनात्मक कारणों से नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग अतिरिक्त जोड़ दी गई है। राजनीतिक दृष्टि से नेपाल में वामपंथी और मध्यमार्गी दल काफी मज़बूत हैं जो लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं व राजशाही या राज-तंत्र का विरोध करते हैं। इसलिए सवाल यह है कि क्या नेपाल में राजशाही पुन: लौट सकती है?
आरपीपी की केंद्रीय समिति की सदस्य स्वाति थापा तोल-मोल कर बताती हैं, ‘लोग राजा की वापसी चाहते हैं, एक शासक के रूप में नहीं बल्कि एक संरक्षक के तौर पर ताकि देश में स्थिरता आ सके। साथ ही वे नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। अब ये राजनीतिक नारे नहीं रहे। ये लोगों की अस्तित्व वृत्ति हैं।’ ध्यान रहे कि बहुदलीय लोकतंत्र की स्थापना के बाद आरपीपी का गठन 1990 में हुआ था। उसने 1991 के चुनाव में 4 सीटें जीतीं और उसके बाद से संसद में उसने अपनी मौजूदगी बनाये रखी है। अक्सर सरकार बनाने में भी उसकी भूमिका रही है। आरपीपी ने 2022 के चुनाव में 275 सीटों में से 14 पर विजय दर्ज की। वह वर्तमान सरकार का फरवरी 2023 तक हिस्सा थी। आरपीपी ने हमेशा से ही संवैधानिक राजशाही व हिन्दू राष्ट्र का समर्थन किया है और संघीय संरचना का विरोध किया है। आरपीपी के दृष्टिकोण के केंद्र में हिन्दू राष्ट्र है। थापा का कहना है, ‘अपने लोगों से मालूम किये बिना यह देश धर्मनिरपेक्ष बन गया। यही सच है। हमारा मानना है कि 80 प्रतिशत से अधिक नेपाली अब भी हिन्दू राष्ट्र की चाहत रखते हैं।’
नेपाल में एक तरह से जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के चर्चित नाटक ‘एप्पल कार्ट’ को दोहराने की कोशिश की जा रही है। इस राजनीतिक व्यंग्य में राजा मैग्नस एक काल्पनिक देश के सम्राट हैं और उनका मंत्रिमंडल उनके शेष राजनीतिक प्रभाव पर भी विराम लगाना चाहता है। इसलिए राजा मैग्नस स्वयं चुनावी मैदान में उतरने की धमकी देकर अपने मंत्रिमंडल को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। नेपाल में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के सियासी तौर पर सक्रिय होने से राज-तंत्र के समर्थन में आंदोलन तेज़ हुआ है। आरपीपी शाही परिवार से नियमित संपर्क में है लेकिन राजा के उत्तराधिकारी का मुद्दा विवादित है। आरपीपी इस बारे में स्पष्ट है कि उत्तराधिकारी स्वत: नहीं बनेगा। थापा के अनुसार, ‘अगला राजा विश्वास व क्षमता के आधार पर चुना जायेगा।’ यह विवाद तब हो रहा है जब ज्ञानेंद्र शाह के पुत्र पारस ने कहा है कि वह राजा नहीं बनना चाहते। आरपीपी की बातों से चंद चीज़ें एकदम स्पष्ट नज़र आ रही हैं। एक, वह राजा की वापसी तो चाहती है लेकिन शासक के रूप में नहीं बल्कि सजावटी संरक्षक के रूप में, जैसा कि ब्रिटेन में किंग चार्ल्स हैं। दो, उसे अपनी मज़र्ी का राजा चाहिए जो उसके हाथों की कठपुतली हो। अंतिम यह कि हिन्दू राष्ट्र का मुद्दा वह जनता में भावनात्मक जोश भरने के लिए उठा रही है। ज़ाहिर है, ये सब प्रयास केवल इसलिए हैं ताकि आरपीपी के राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र में विस्तार हो सके। कहने का अर्थ यह है कि आरपीपी अपनी सियासत मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) और हिन्दू राष्ट्रवाद की तर्ज पर करना चाह रही है। वह इसके ज़रिये राजनीतिज्ञों की नाकामी को अपने पक्ष में भुनाना चाहती है लेकिन यह भूल रही है कि राजा तो राजनीतिज्ञों से भी अधिक असफल रहे थे।
इसलिए विशेषज्ञों का मानना है कि नेपाल को राजा की ज़रूरत नहीं है और उसे राजा मिलने भी नहीं जा रहा है। यह सही है कि हाल के वर्षों में नेपाल के कुछ वर्गों ने राजशाही की वापसी में दिलचस्पी दिखायी है। इस दिलचस्पी के अनेक कारण रहे हैं। नेपाल की पहली संविधान सभा ने 28 मई 2008 को आधिकारिक तौर पर राजशाही को खत्म कर दिया था, फेडरल डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑ़फ नेपाल की घोषणा की थी लेकिन तभी से ही नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त है। बार-बार सरकारें बदलती हैं, भ्रष्टाचार चरम पर है और अनेक प्रशासनिक चुनौतियां मौजूद हैं। कोविड के दौरान चुनौतियों में इज़ाफा हुआ जैसे महंगाई बढ़ी, आय में कमी आयी, वित्तीय घोटाले हुए जिनमें सहकारी बैंक फ्रॉड भी शामिल है जिसमें सभी राजनीतिक दलों के नेताओं के नाम प्रकाश में आये थे। इस असंतोष के वातावरण में अनेक लोग यह मानने लगे हैं कि नेपाल की लोकतांत्रिक व्यवस्था असफल हो गई है।
साथ ही अन्य देशों से प्रेरित अति दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी लहर भी नेपाल में तेज़ चलने लगी है। नतीजतन आरपीपी जैसी पार्टियां अपने एजेंडा पर बल देने लगी हैं विशेषकर मुख्य मुद्दों के संदर्भ में जैसे चीन का बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव, अमरीका का एमसीसी कॉम्पैक्ट और भारत के साथ सीमा विवाद। कुछ लोगों को लगता है कि राजशाही के खात्मे से नेपाल कमजोर हो गया है और अपने पड़ोसियों से सही से डील नहीं कर पा रहा है। इसलिए वह राजशाही (जो नेपाल की हिन्दू पहचान का प्रतीक थी) की वापसी के पक्ष में हैं लेकिन दूसरी ओर अनेक कारणों से लोगों को शाही परिवार पर विश्वास नहीं है।
सत्ता के लालच में राजकुमार दीपेंद्र द्वारा जून 2001 में महल के सबसे अहम स्थान पर राजा बीरेंद्र के पूरे परिवार को मौत के घाट उतरना, तानाशाह बनने के चक्कर में ज्ञानेंद्र शाह द्वारा 2005 में चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करना, पारस शाह का अनेक घोटालों में लिप्त होना आदि। शाही परिवार राजनीतिज्ञों की तुलना में अधिक बदनाम व भ्रष्ट है। राजशाही को वापस लाने के दावेदार भी आपस में बुरी तरह से बंटे हुए हैं, विशेषकर उसकी भूमिका को लेकर। अत: नेपाल में राजा की वापसी लगभग असंभव है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर