क्रांति का अमर स्वर है वंदे मातरम्

वंदे दे मातरम् गीत की बदौलत आज़ादी के दीवानों के हौसले बुलंद हुए थे। वे इस गीत की पंक्तियां गाकर, सुनकर देश भक्ति की भावना में लीन हो जाया करते। वैसे सबसे पहले ‘वन्दे मातरम्’ गीत को सन् 1886 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में गाया था। इस गीत को सर्वप्रथम कविवर हेमचन्द्र बंधोपाध्याय ने गाया था। कांग्रेस के 12वें अधिवेशन 1896 में तो स्वयं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने संपूर्ण ‘वंदे मारतम्’ गाया था। इस गीत को सुनाकर रवीन्द्रनाथ की आंखों में आंसू भर आये थे। रवीन्द्रनाथ की आंखों में आंसू देखकर हज़ारों कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की आंखों में हर्ष के आंसू उमड़ आये थे। यह गीत पुन: 6 जुलाई 1901 में दक्षिणारंजन सेन द्वारा तैयार स्वरलिपि में गाया गया। उसके बाद से यह गीत कांग्रेस अधिवेशनों का मंगलाचरण बन गया। जब भी यह गीत गाया जाता, इसके समान में लोग हाथ जोड़कर सीधे तनकर खड़े रहते। गीत समाप्ति पर गुलामी के प्रति नारे लगाये जाते तथा अंग्रेज़ सरकार को काफी धिक्कारा जाता था।इस गीत को कुछ अंग्रेज़ी अफसरों ने सुना तो इसकी शिकायत गवर्नर जनरल से की। गवर्नर जनरल ने 13 अगस्त, 1905 में ‘वन्दे मातरम्’ शब्द पर ही पाबंदी लगा दी। ‘वन्दे मातरम्’ शब्द का उच्चारण ही अपराध बन गया। अब आज़ादी के दीवानों के लिए समस्या यह थी कि बिना मंगलाचरण के अधिवेशन कैसे हो? 2 जनवरी, 1906 को फिर से एक विशाल अधिवेशन शुरू हुआ। इस अधिवेशन में देश के गणमान्य नेता लोकमान्य तिलक, विपिन चन्द्रपाल, सुरेन्द्र बनर्जी, लाला लाजपतराय आदि उपस्थित थे। सभी प्रतिनिधि ‘वन्दे मातरम्’ गान की एक-दूजे से चर्चा कर रहे थे, लेकिन अंग्रेज़ सरकार के भय से कोई भी इसे गाने से कतरा रहा था कि इस गीत को गाकर व्यर्थ ही क्यों सरकार से दुश्मनी मोल लें। अन्त में काफी बाद विवाद के उपरांत यह तय हुआ कि गीत की केवल एक पंक्ति गायी जाये। इस बात का स्वागत सभी उपस्थित लोगों ने ताली बजाकर किया।