कोताही से निरन्तर कहर बनता कोरोना

ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है, कोरोना वायरस के रंग हर दिन बदल रहे हैं। कई बार लगता है कि सारी दुनिया में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक व्यवस्था को तहस-नहस करने वाले इस वायरस की नब्ज पकड़ में आ गई है। अगले ही पल इसके बदलते स्वरूप, इसकी मार के परिवर्तित कुप्रभाव और इससे निपटने के सलीकों के असफल होने की निराशा के घनघोर बादल और घने हो जाते हैं। इसकी वैक्सीन की आस अभी और कुछ महीनों तक तो नहीं दिख रही।  आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि कोरोना वायरस से फैलने वाले रोग कोविड-19 की गति दस दिन में तीन गुना तक हो गई है। अब कई चर्चित चेहरे व राजनेता इसकी गिरफ्त में आ रहे हैं। कम से कम दस विधायक या सांसद इसके शिकार हो कर काल के गाल में समा चुके हैं। विडम्बना यह है कि जैसे-जैसे चुनौतियां दूभर हो रही हैं, वैसे-वैसे आम लोगों की लापरवाही कोरोना को फलने-फूलने का अवसर दे रही है।राजधानी दिल्ली, जहां कोरोना की मार सबसे तगड़ी है, जहां कई लोगों को एक बार ठीक होने के बाद फिर से इसने जकड़ लिया, वहां तीन सवारियों के लिए अधिकृत तिपहिया स्क्ूटर में आठ से दस लोगों की सवारी, बगैर मास्क के ठुंसे हुए लोग देखने को मिल जाएंगे। हर बार सवारी के उतरने-चढ़ने पर सैनेटाइजर से सीट को साफ  करने के सरकार के दिशा-निर्देश तो कही दिखते ही नहीं। सार्वजनिक बसों के पीछे भागते लोग, बाहर तक लटकी सवारियों के साथ ग्रामीण सेवा, यह दृश्य पूरे दिल्ली एनसीआर में आम हैं। सनद रहे, दो महीने पहले लागू हुए नए परिवहन कानून में क्षमता से अधिक सवारी बैठाने पर बहुत अधिक जुर्माना राशि है, लेकिन ना किसी को जान की परवाह है, न ही जुर्माना की। यदि एक लाख से कम आबादी वाले कस्बे में जाएं तो पूरे देश में एक से हालात हैं—ना मास्क है, ना शारीरिक दूरी और ना ही बार-बार हाथ धोने की अनिवार्यता। ज़ाहिर है कि इस तरह की अव्यवस्था, समाज और सरकार दोनों के सहकार से ही संभव होती है। यह तो एक बानगी है कि अब लोग या तो उकता गए हैं या अभी उनके लिए कोरोना एक सामान्य सी बात है। गौर करना होगा कि इज़राइल में फिर से दो सप्ताह का लॉकडाउन लागू करना पड़ा, क्योंकि वहां तालाबंदी खुलने के बाद आम लोगों की बाज़ार-व्यापार, सामाजिक आयोजनों में आमदर-फ्त इतनी बढ़ी कि वहां के आंकड़े डराने लगे। छत्तीसगढ़ के शहरी क्षेत्रों में कई जगह लॉकडाउन की वापिसी हो गई है। राजस्थान में भी ऐसी संभावना बन रही है। भारत में राजनीति, चुनाव व सस्ती लोकप्रियता  के कारण कोरोना अनियंत्रित हो रहा है, यदि यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। मध्य प्रदेश का इंदौर चीन के वुहान से अधिक भयानक हालत में है। इसके बावजूद वहां ताजिया हो या एक राजनीतिक दल की कलश यात्रा, पांच से दस हज़ार लोग एकत्र हो रहे हैं। प्रदेश के ग्वालियर में उप-चुनाव की घोषण होने से पहले ही हर राजनीतिक दल हजारों लोगों का जमावड़ा कर रहा है। यह भी दुर्भायपूर्ण है कि इस प्रदेश में मुख्यमंत्री सहित कम से कम तीस विधायक इस रोग की चपेट में आ चके हैं व दो की मौत भी हुई। जब इस तरह की राजनीतिक भीड़ सड़क पर होती है तो रोजगार, अन्य बीमारियों, सामाजिक प्रतिबद्धता के कार्यों से लोग सड़क पर निकलते ही हैं ।यह बात सच है कि हमोर देश में अभी तक सात करोड़ से ज्यादा लोगों के टैस्ट हो चुके हैं और अधिक टैस्ट का ही परिणाम है कि मरीजों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन यह जान लें कि टेस्ट व जागरूकता की ज़रूरत अभी अधिक है। एक-बारगी लगता है कि दिल्ली-मुंबई महानगरों में इसका चरम हो गया व अब यहां खतरा ज्यादा नहीं है। मध्यम व छोटे कस्बों तक जब यह परीक्षण पहुंचेगा, तब वहां कोरोना का कहर चरम पर होगा। यह भी समझना होगा कि जो लोग मार्च-अप्रैल में तालाबंदी से उपजे बेरोजगारी व भूख के हालात से उम्मीदों के साथ अपने गांव-कस्बे गए थे, अब उनका  ‘‘अतिथि-काल’’ समाप्त हो गया है व उनके सामने फिर से रोजगार का संकट मुंह बाए खड़ा है।  उनमें से अधिकतर लोग फिर से अपने पुराने काम-धंधे वाले महानगरों की तरफ  लौट रहे हैं। ऐसे में केवल सतर्कता, कड़ाई और बेवजह सार्वजनिक स्थानों पर लोगों को आने से रोकना, गरीब लोगों के लिए रोजगार की व्यवस्था, व्यापार-उद्योग को नए सलीके से संचालन को अपनी जीवन शैली में स्थायी रूप से जोड़ना होगा।