सरकारी असफलता और कोताही

जो देश चांद पर उतरने के लिए प्रयासरत हुआ हो, जिसकी सरकारें आगामी वर्षों में दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्ति बनने के दमगजे मार रही हों, यदि उससे आवारा पशुओं और आवारा कुत्तों की समस्या का अब तक कोई हल न निकले तो इससे बड़े अफसोस और दु:ख की बात क्या हो सकती है? यह मामला आज का नहीं, दशकों से चला आ रहा है और दिन-प्रतिदिन गम्भीर होता जा रहा है। इसको धर्मों की रंगत लगाकर और भी गहरा किया जा रहा है। पंजाब की ही नहीं, हरियाणा की ही नहीं, उत्तर प्रदेश की ही नहीं अपितु यह समस्या गम्भीर रूप में समूचे देश के लिए ही एक चुनौती बनती जा रही है। इससे आम लोग भी परेशान हैं, व्यापारी भी परेशान हैं। शहरों वाले भी परेशान हैं और गांवों वाले भी परेशान हैं। सबसे बड़ा दुख लाखों की संख्या में घूमते इन बेजुबानों को देखकर होता है, जिनको कोई पानी पिलाने वाला नहीं है, कोई चारा डालने वाला नहीं है, जहां भी ये घूमते हैं वहां इनको धक्के ही नहीं अपितु लाठियां भी पड़ती हैं। कई बार इनको इस सीमा तक घायल कर दिया जाता है कि यह चलने-फिरने से भी असमर्थ हो जाते हैं। इस तरह बैठे, लड़खड़ाते इन जानवरों को कोई नहीं पूछता, क्योंकि इनकी जुबान नहीं है और बैठे-बैठे अंतत: भूखे-प्यासे यह पिंजर हो जाते हैं और कई बार गंदगी या प्लास्टिक खाकर यह महीनों तक तड़पते पड़े रहते हैं। क्या ऐसी हालत देखकर इनके भक्तों को दया नहीं आती? क्या इन ‘रक्षकों’ की कोई नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं बनती? क्या ऐसे हालात में विचरते इन बेजुबानों को देखकर उनकी आत्मा नहीं तड़पती? उनमें पैदा हुई यह किस तरह की धार्मिकता है? आज उत्तर भारत में आवारा पशुओं के झुण्डों के झुण्ड आवारा घूमते देखे जा सकते हैं। भूख लगने पर यह आसपास मुंह मारते हैं, फसलों का उजाड़ा करते हैं, तो इनको बुरी तरह से मारपीट कर आगे भगा दिया जाता है। अब तो इन पशुओं को दूसरे स्थानों पर छोड़ने के लिए ठेके भी दिए जाने लगे हैं। अब तो गली-मोहल्लों में ये बेजुबान आम ही बैठे दिखाई देते हैं। इनके कारण नित्यदिन हादसे होते हैं, अनेक मानवीय जानें जाती हैं। केन्द्र और राज्य की सरकारों के लिए अनावश्यक छोटे  पशुओं के बिकने पर रोक लगाने के कानून पास करना तो आसान था, परन्तु इन असंख्यक बांझ पशुओं को पालना किसने है? इस बारे में सरकारें हमेशा लापरवाह बनीं रही हैं। अनेक वस्तुओं पर सैस भी लगा दिए गए, परन्तु जितनी गौशालाएं खोली गईं या खोली जा रही हैं, यह समस्या इससे कहीं अधिक है। लाखों ही बांझ पशुओं के सड़कों पर आने के कारण पहले ही मुश्किलों से जूझ रही गौशालाएं इनकी क्या संभाल करेंगी? शहरियों और ग्रामीणों ने इस समस्या की ओर अंधी और बहरी सरकारों का ध्यान खींचने के लिए इनको एकत्रित करके सरकारी संस्थानों में भी छोड़ा। धरने और जलूस भी निकाले परन्तु सरकारें जैसे बेपरवाह और बेसुध होकर इस पक्ष से सोई पड़ी हैं। 
यह घटनाक्रम तो सभी शहरों और गांवों में है, परन्तु हम विशेष तौर पर मानसा वासियों द्वारा इस समस्या के प्रति दिखाई गई हिम्मत की सराहना करते हैं। गत काफी दिनों से शहर वासियों ने प्रशासन को जगाने का प्रयास किया परन्तु इस ज़िले के अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। इसलिए धरने और जलूस निकालने के बाद अब मानसा वासियों ने अनिश्चितकाल के लिए भूख हड़ताल शुरू की है, जिसमें सभी वर्गों के लोग शामिल हैं। इसमें हम मानसा वासी मनीश बब्बी की सराहना करते हैं, जिन्होंने सभी वर्गों को एकजुट किया। उन्होंने कई बार कहा कि लोग देसी गाय को माता मानते हैं, परन्तु दोगली नस्ल की गायों और बैलों से उनका कोई संबंध नहीं है। जनकराज ने कहा कि सरकार छूट दे, और उसके द्वारा उनकी खरीद और आवागमन पर लगाई गई रुकावटें खत्म की जाएं। एक्ट बनाने के बाद यह समस्या बेहद गम्भीर हो गई है। मानसा वासियों ने संबंधित डिप्टी कमिश्नर को मांग-पत्र देने का प्रयास किया, परन्तु उन्होंने इसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया, जिस पर उन्होंने प्रशासन के खिलाफ नारेबाज़ी जारी रखी हुई है। उनके साथ प्रत्येक वर्ग, समाज के लोग शामिल होते हैं। डिप्टी कमिश्नर ने तो धरने में आकर इन समाज के प्रतिनिधि वर्ग का मांग पत्र लेने की भी जहमत नहीं उठाई। इसके रोष स्वरूप ही उनको अनिश्चितकाल के लिए धरना जारी रखने का ऐलान करना पड़ा, ताकि सोये प्रशासन को जगाया जा सके। शहरियों ने आवारा पशु संघर्ष कमेटी बना ली है, ताकि बेहद गम्भीर हुई इस समस्या का कोई हल निकाला जा सके। शिव सेना (बाल ठाकरे) ज़िला मानसा के प्रधान हरमहिन्द्र बांसल, उप-प्रधान तरसेम चंद डेलुआणा ने तो यह भी कहा कि बेसहारा विदेशी पशु किसी धर्म से भी संबंध नहीं रखते, इनको बेचने की अनुमति सरकारी तौर पर दी जानी चाहिए। दु:ख इस बात का है कि लगातार लगाए जा रहे बड़े धरनों के बाद भी ज़िला प्रशासन ने कोई सुनवाई नहीं की। लोगों में इस बात का रोष है कि गाय के नाम पर टैक्स वसूलने के बाद भी आवारा पशुओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। जहां तक धरनों में भागीदारी का संबंध है, इसमें महिलाएं भी शामिल हैं। राजनीतिक पार्टियों में से भाजपा, शिरोमणि अकाली दल, सी.पी.आई. आदि के सदस्य शामिल हैं। सुनाम क्षेत्र के विधायक अमन अरोड़ा ने तो यह भी कहा है कि सिर्फ देसी गाय ही पूजनीय है, जबकि अमरीकन नस्ल के पशुओं का किसी धर्म से कोई संबंध नहीं है। नींद से जागी सरकार ने अब इस समस्या से निपटने के लिए एक कैबिनेट सब-कमेटी के गठन का ऐलान किया है। यह कमेटी अन्य सरकारी ‘उपलब्धियों’ की तरह क्या करेगी, कैसे करेगी और कब किसी परिणाम पर पहुंचेंगी और उसके बाद क्या अमल होगा। इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं? कुछ दिनों बाद लोग शायद इस कमेटी के बारे में तो भूल जाएंगे परन्तु यह समस्या बनी रहेगी। हम समझते हैं कि वर्तमान प्रशासन की यह सबसे बड़ी असफलता और कोताही है, जिसका आगामी समय में उसको अंजाम भुगतना पड़ेगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द