रावण दहन नहीं होता कुल्लू के दशहरे में 

भारत के अन्य भागों में दशहरा समाप्त हो जाता है तो हिमाचल के कुल्लू जनपद में दशहरा शुरू होता है। यह सात दिन चलता है।  इसकी अपनी अलग पहचान सदियों से बनी  है। इसे देखने कई प्रांतों के पर्यटक कुल्लू पहुंचते हैं और सात दिन यहां मेले जैसा माहौल बना रहता है। जनश्रुतियों के अनुसार इस की परम्परा यहां के राजा जगत सिंह से संबंधित है। सोहलवीं सदी में जगत सिंह शक्तिशाली, प्रतापी एंव दानी और प्रजा का हितकारक शासक थे। इनका शासन सन 1637 से 1662 तक रहा। इनकी राजधानी नग्गर रही। राजा से सम्बंधित एक दंतकथा है। एक राजदरबारी ने अपनी व्यक्तिगत शत्रुता के कारण राजा को झूठी बात बताई कि समीपवर्ती टिप्परीगांव के एक ब्राह्मण के घर में मणिकरण के फुव्वारे से प्राप्त असंख्य सुच्चे मोतियों का पथ है। पथ स्थानीय पैमाना तोल का है। राजा ने ब्राह्मण को प्रात: राज दरबार में बुलाया और मोतियों के पथ की मांग की। निर्धन ब्राह्मण ने राजा से प्रार्थना की कि उसके पास मोती होते तो वह क्यों निर्धनता से जीवन बसर करता। राजा की बुद्धि दरबारी के कहने पर भ्रष्ट हो गई थी। राजा नहीं माना और आदेश दिया कि कल मैं तुम्हारे गांव आऊंगा। मोतियों को मुझे भेंट कर देना। तुम्हारे परिवार और तुमको राजदण्ड सहना होगा। मरता क्या न करता। सोच-विचार के बाद ब्राह्मण ने राजा के आने से पूर्व सूचना दी, मैं मोतियों को गांववासियों के सम्मुख भेंट करूंगा। राजा प्रसन्न हुआ और  सैनिकों, कर्मचारियों सहित वहां पहुंचा। वहां क्या देखा। ब्राह्मण ने अपने घर में आग लगा दी। परिवार को जलाकर अपने प्राणों की आहूति धधकती आग में दे दी। इस दृश्य को देख कर राजा बहुत दुखी हुआ। अब कुछ नहीं हो सकता था।  वापिस महल में आने पर राजा को सारी रात वही दृश्य बार-बार दिखाई देता रहा। एक प्रकार से मानसिक रोग लग गया। राज पण्डितों एवं मंत्रियों को बुलाया। सारी व्यथा बताई।  झिडी के किशनदास महात्मा से समाधान पूछा। बाबा को सारी कथा का पूर्व ज्ञान था। बाबा ने कहा, आपने ब्राह्मण के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। निरापराध उसकी मौत के भागीदार हो गये हो। यह ब्रह्म हत्या है। मैंने यहां रह कर कुछ समय आप का अन्न, जल ग्रहण किया है। इसलिए बचने का उपाय बताता हूं।इसी समय अयोध्या प्रस्थान करो। वहां राम मंदिर में राम, सीता आदि की मूर्तियां त्रेतायुग की हैं। उनको किसी भांति  ले आओ। मंदिर बना कर स्थापित करो। राजपरिवार उसकी पूजा अर्चना करे। तभी आप बच सकते हो। राजा ने बाबा का धन्यवाद किया। लौट कर महल में सोचने लगे। कैसे मूर्तियों को लाया जाये। एक विश्वासपात्र बाबा के शिष्य दामोदर दास को तैयार किया। धन आदि देकर अयोध्या भेजा। वह कर्मचारी अयोध्या के रामलला मंदिर में रहने लगा। मुख्य पुजारी के साथ चार मास तक पूजा और काम में उसे सहयोग देता रहा। उसका विश्वासपात्र हो गया। एक दिन अवसर पा कर गोपनीय तरीके से मूर्तियों को लेकर कुल्लू पहुंचा। बाबा बहुत खुश हुए। स्वयं जाकर के दर्शन किये। मंदिर बनने से पूर्व विग्रह मणिकर्ण में स्थापित किये। बाद राजा के दुख, संकट समाप्त होने पर रघुनाथ की कृपा से मंदिर में स्थापित किये। उस समय से राज परिवार रघुनाथ भक्त हो गया। अपनी सारी सम्पति मंदिर को दान में दी। स्वयं इनका भक्त कहलाया। उस याद में कुल्लू का दशहरा शुरू हुआ। जिस दिन मूर्तियां कुल्लू पहुंची थीं, उसी दिन से यहां दशहरे का आयोजन होता है। उस दिन दशमी का दिन था। अगले वर्ष राजा ने सारी रियासत के देवताओं को कुल्लू बुलाया। शस्त्र पूजा की गई। सुखपाल में रघुनाथ और अन्य देवताओं के साथ रथ में बैठा कर नगर परिक्रमा की। यात्रा में राम भगवान के जयकारे लगे। रथ को खींचना धर्म का कार्य समझा जाता है। एक विशेष स्थान पर सब को सात दिन तक रखा जाता है। प्रतिदिन सब की पूजा अर्चना की जाती है। हज़ारों की संख्या में बाहर से आये श्रद्धालु यहां मेला देखते हैं, दशहरे का आनंद लेते हैं। सात दिनों में सभी देवता प्रात: नगर की परिक्रमा करते हैं। छठे दिन सभी देवताओं का दरबार लगाया जाता है। एक कार्यकर्ता उपस्थिति लेता है। सातवें दिन वहीं लंका दहन विपाशा अर्थात ब्यास नदी में किया जाता है। यह दश्य अलग प्रकार का होता है।रावण परिवार के पुतले नहीं दहन किये जाते। गाजे-बाजे के साथ रघुनाथ को पालकी में बैठा कर मंदिर में लाया जाता हैं।  वहां के वाद्य यंत्र बजाये जाते हैं।  वातावरण सुरम्य  होता है। लोग देवों का जयघोष करते हैं। राजा महल को प्रस्थान करता है। अन्य देव अपने-अपने स्थानों को प्रस्थान करते हैं। यहां अन्य प्रांतों के कलाकार भी आते हैं। यहां के लोगों का संगीत से अटूट रिश्ता है। बाहरी कलाकारों की पेशकारी देखने वाली होती है। देव संस्कृति देखने वाली है। निकटवर्ती गांवों के देव भाग लेते हैं। प्राचीन संस्कृति को कुल्लू जनपद  ने वर्तमान में संजोया है।

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