किसान आन्दोलन को गंभीरता से ले केन्द्र सरकार

देश में विगत लगभग 4 माह से चलता आ रहा किसान आन्दोलन अब ऐसे चरण पर पहुंच गया है, जहां इसका सम्मानजनक हल निकाला जाना अति आवश्यक हो गया है। दिल्ली के साथ लगती पड़ोसी राज्यों की सीमाएं सिंघु, गाज़ीपुर, टिकरी व कुंडली आदि में चल रहे किसान धरनों में अब तक 150 के लगभग किसानों की मृत्यु हो चुकी है। इनमें 24 के लगभग किसानों द्वारा आत्महत्याएं भी की गई हैं। पंजाब में दो माह से चले आ रहे धरनों के बाद अब दो माह से अधिक समय दिल्ली के आस-पास लगे धरनों को भी हो गया है। सर्दी के मौसम में ठंडी रातें और यहां तक बारिश को भी किसानों ने अपने ऊपर सहन किया है। 26 जनवरी को लाल किले की घटनाओं को छोड़ कर समूचे तौर पर यह आन्दोलन शांतिपूर्वक और अनुशासन में रहा है तथा इसने एक नया इतिहास सृजित किया है। शुरू में चाहे इस में अधिक शिरकत पंजाब और हरियाणा के किसानों की थी परन्तु अब यह आन्दोलन उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडू, कर्नाटक एवं मध्य प्रदेश राज्यों तक भी तेज़ी से फैल रहा है या फैल चुका है।
पहले लम्बी अवधि तक केन्द्र ने इसे नज़रअंदाज़ किया परन्तु बाद में केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा दिल्ली में तीन कृषि कानूनों के संदर्भ में आरम्भ हुए किसान आन्दोलन के मुद्दे पर किसान नेताओं के साथ बातचीत करने का क्रम आरम्भ किया। प्रत्येक बैठक में केन्द्र सरकार द्वारा बार-बार यह बात दोहराई गई कि कानून किसी भी स्थिति में वापस नहीं लिये जाएंगे परन्तु सरकार कुछ संशोधन करने हेतु तैयार हो सकती है। दूसरी तरफ किसानों ने बड़ी दृढ़ता से बार-बार अपनी यही बात दोहराई कि कृषि संबंधी उपरोक्त कानून बनाने का केन्द्र सरकार को कोई अधिकार नहीं था, यह राज्यों का विषय है। इसलिए ये कानून रद्द किये जाने चाहिएं। इसके साथ ही किसानों ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि समर्थन मूल्य संबंधी बाकायदा कानून बनाया जाना चाहिए। केन्द्रीय कृषि लागत एवं कीमत आयोग द्वारा जिन सभी 23 फसलों के समर्थन मूल्य घोषित किये जाते हैं, उनकी समर्थन मूल्य पर खरीद भी विश्वसनीय बनाई जानी चाहिए। अत: दोनों पक्षों की पहुंच में बड़ा अन्तर होने के  कारण अब तक कोई समझौता नहीं हो सका। 
यदि केन्द्र सरकार के इस आन्दोलन के प्रति व्यवहार की बात देखें तो दो बातें सामने आती हैं। एक ओर सरकार ने किसानों के लिए कई पड़ावों तक बातचीत की और दूसरी तरफ किसान आन्दोलन की धार को कम करने के लिए इसे जाति एवं धर्म के आधार पर दरार डालने में भी कोई कमी नहीं छोड़ी। यहां तक कि केन्द्रीय मंत्री खुद ऐसे बयान देते रहे हैं और इस आन्दोलन में खालिस्तानी, नक्सली, माओवादी और  ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ से संबंधित लोग शामिल होने तथा आन्दोलन किसान नेताओं के हाथों में से निकल जाने के गंभीर आरोप भी अकसर लगाते रहे हैं। 26 जनवरी की घटनाओं के बाद केन्द्र सरकार का इस आन्दोलन के प्रति रवैया और भी सख्त होगया है। दिल्ली की सीमाओं पर किसान धरनों के आस-पास न केवल  की प्रकार के अवरोधक लगाये गये हैं, अपितु पक्की सड़कों पर सीमैंट और बजरी के साथ-साथ बड़े-बड़े कील भी लगा दिये गये हैं। बिजली पानी तथा इंटरनैट बंद करने की घटनाएं भी अकसर हो रही हैं। इंटरनैट बंद करने संबंधी शिकायतें तो सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंची हैं। दिल्ली की तरफ से आम लोगों और पत्रकारों का प्रवेश बंद कर दिया है। और तो और, गाज़ीपुर सीमा पर किसानों से मिलने के लिए विभिन्न पार्टियों के आए सांसदों को भी दिल्ली पुलिस ने रास्ता नहीं दिया। जो पत्रकार किसान धरनों की कवरेज कर रहे हैं, उनको 3-3, 4-4 किलोमीटर गांवों में कच्चे-पक्के रास्तों में से गुज़र कर धरने वाले स्थानों पर पहुंचना पड़ता है। दूसरी तरफ 26 जनवरी को लाल किले और दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में जो हिंसक घटनाएं घटित हुई थीं, आन्दोलन को दबाने के लिए उन घटनाओं का केन्द्र सरकार द्वारा दिल्ली के माध्यम से पूरा-पूरा लाभ उठाया जा रहा है। युवा और किसान नेताओं में दहशत पैदा करने के लिए देश द्रोह और इरादा-ए-कत्ल जैसे गम्भीर अपराधों के तहत केस दर्ज किये जा रहे हैं और धरपकड़ भी शुरू कर दी गई है। हिरासत में लिये गये लोगों के बारे भी दिल्ली पुलिस द्वारा कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी जा रही है। यहीं बस नहीं, जो किसान नेता 26 जनवरी को दिल्ली के भीतर नहीं गये और न ही लाल किले तक पहुंचे थे, उन पर भी संगीन धाराएं लगा कर केस दर्ज कर किये गये हैं। इस दमनकारी नीति की देश-विदेश में कड़ी आलोचना देखने को मिल रही है। अमरीका के प्रमुख समाचार पत्रों ‘द न्यूयार्क टाइम्ज़’ और ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ में मोदी सरकार की तानाशाही नीतियों के विरुद्ध लेख और सम्पादकीय प्रकाशित हो रहे हैं। विदेश में भारत का चेहरा बिगड़ रहा है। विशेषकर देश से बाहर मोदी सरकार द्वारा मीडिया पर लगाई जा रही पाबंदियों की कड़ी आलोचना हो रही है। ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ ने अपने सम्पादकीय में लिखा है, %स्ह्वष्द्ध ष्द्ब1द्बद्य द्यद्बश्चद्गह्म्ह्लद्बद्गह्य 1द्बशद्यड्डह्लद्बशठ्ठह्य ड्डह्म्द्ग श्चद्गह्म्द्धड्डश्चह्य ह्लश ड्ढद्ग द्ग3श्चद्गष्ह्लद्गस्र द्घह्म्शद्व ह्लद्धद्ग श्चद्गह्म्श्चद्गह्लह्म्ड्डह्लशह्म्ह्य शद्घ 2द्धड्डह्ल द्बह्य ह्वठ्ठह्नह्वद्गह्यह्लद्बशठ्ठड्डड्ढद्य4 ड्ड द्वद्बद्यद्बह्लड्डह्म्4 ष्शह्वश्च. ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड, द्धश2द्ग1द्गह्म्, ष्द्यड्डद्बद्वह्य ह्लद्धद्ग द्वड्डठ्ठह्लद्यद्ग शद्घ 2शह्म्स्रह्य%ह्य द्यड्डह्म्द्दद्गह्यह्ल स्रद्गद्वशष्ह्म्ड्डष्4-ड्ढह्वह्ल क्कह्म्द्बद्वद्ग रूद्बठ्ठद्बह्यह्लद्गह्म् हृड्डह्म्द्गठ्ठस्रह्म्ड्ड रूशस्रद्ब%ह्य ड्डस्रद्वद्बठ्ठद्बह्यह्लह्म्ड्डह्लद्बशठ्ठ ड्ढद्गद्धड्ड1द्गह्य द्वह्वष्द्म ह्लद्धद्ग ह्यड्डद्वद्ग ड्डह्य ड्ड स्रद्बष्ड्डह्लड्डह्लशह्म्ह्यद्धद्बश्च% इस संदर्भ में पॉप स्टार रिहाना, ग्रेटा थुम्मबर्ग और अन्य विदेशी शख्सियतों की प्रतिक्रिया को देखा जा सकता है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ को भी किसान आन्दोलन संबंधी टिप्पणी करनी पड़ी है। और तो और अमरीका कांग्रेस में भारत के समर्थकों, जिन्हें ‘इंडियन काक्स’ कहा जाता है, ने भी भारत सरकार को यह सलाह दी है कि वह किसान आन्दोलन से निपटने के लोकतांत्रिक नियमों पर अमल को सुनिश्चित बनाए।
किसान आन्दोलन के कारण पूरे विश्व में देश की हो रही बदनामी के कारण केन्द्र सरकार भी काफी दबाव में आई महसूस कर रही है। इसी कारण सरकार द्वारा कुछ भारतीय हस्तियों से सरकार के पत्र में ट्वीट करवाये गये हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा संसद के दोनों सदनों में गत दिवस जो भाषण दिये गए हैं, उनसे भी इस दवाब का प्रकटावा हो रहा है। उन्होंने अपने भाषणों में काफी समय किसान आन्दोलन और किसानों तथा कृषि के लिए उनकी सरकार द्वारा उठाए गये पगों की चर्चा की है। एक तरफ तो उन्होंने यह प्रभाव भी देने का यत्न किया है कि उनकी सरकार किसानों के साथ बातचीत करके मामले को हल करने के लिए तैयार है परन्तु दूसरी तरफ उन्होंने यह भी कहा है कि किसानों को अपना आन्दोलन वापस ले लेना चाहिए और कृषि कानूनों द्वारा कृषि क्षेत्र  में लाये जा रहे सुधारों को एक अवसर देना चाहिए और यदि इनमें त्रृटियां सामने आएंगी तो इन्हें सुधारा जा सकता है परन्तु किसानों में मोदी सरकार व प्रधानमंत्री मोदी की विश्वनीयता गिर चुकी है। नोटबंदी जी.एस.टी., नागरिकता संशोधन कानून के जो लाभ लोगों को गिनाये गये थे, वे देश के लोगों को देखने हेतु नहीं मिले। इसलिए किसान यह मानने के  लिए तैयार नहीं कि ये कृषि कानून किसानों के लिए लाभकारी हो सकते हैं।  
दूसरी तरफ प्रधानमंत्री ने किसान आन्दोलन का समर्थन करने वाले लोगों को आन्दोलनजीवी कह कर उनका मज़ाक  भी उड़ाया है। उसका पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग ने बहुत ही बुरा मनाया है तथा इन टिप्पणियों को लोकतंत्र व्यवस्था की घोर विरोधी करार दिया है। प्रधानमंत्री के लोकतंत्र तथा भरोसे पर भी प्रश्न उठाए गये हैं। इन हलकों का कहना है कि  प्रधानमंत्री स्वयं लम्बे समय तक भिन्न-भिन्न आन्दोलनों और सामाजिक संगठनों के साथ जुड़े रहे हैं। उनसे ऐसी टिप्पणियां की उम्मीद नहीं की जाती। किसान नेताओं ने भी प्रधानमंत्री की टिप्पणियों का बेहद बुरा मनाया है और कई नेताओं ने तो यह भी कहा है कि उनको आन्दोलनजीवी होने पर गर्व है। 
अवरोध बने रहने के कारण किसान आन्दोलन की गर्मी अब पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश के भाजपा नेताओं को भी महसूस होने लग पड़ी है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तराखंड में तो निचले स्तर पर भाजपा नेता अपने-आप को लोगों से अलग-थलग हुए महसूस कर रहे हैं। लोगों के विरोध को देखते हुए उनका घरों से निकला भी मुश्किल होता जा रहा है। विशेषकर हरियाणा और उत्तर प्रदेश में जितने बड़े स्तर पर किसानों की खाप पंचायतों के नाम पर बड़े-बड़े इकट्ठ होने शुरू हो गए हैं, उससे भाजपा में बड़े स्तर पर चिन्ता पैदा होनी शुरू हो गई है। 
नि:संदेह 26 जनवरी की असुखद घटनाओं के बाद किसान आन्दोलन एक बार पुन: शक्तिशाली होकर उभरा है और किसान नेता इस कारण अधिक हौसले में भी नज़र आ रहे हैं। परन्तु सार्वजनिक संघर्षों का इतिहास यह भी बताता है कि बड़े से बड़े आन्दोलन भी लगातार जन समर्थन के पक्ष से भी अपनी चढ़त बनाकर नहीं रख सकता। हर आन्दोलन की अवधि एवं चढ़त के पक्ष से भी एक सीमा होती है। इसलिए किसान नेताओं के लिए यह भी बेहद ज़रूरी है कि वे अपने संघर्ष की सीमाओं के प्रति पूरी तरह सुचेत रहने और कृषि कानूनों संबंधी केन्द्र सरकार के साथ कोई सम्मानजनक समझौते करने के लिए स्वयं को तैयार रखें। जिस तरह 26 जनवरी को किसान आन्दोलन के कुछ भाग अनियंत्रित हुये नज़र आये थे, उसी तरह का कोई अन्य घटनाक्रम कहीं किसान आन्दोलन को बड़ी क्षति पहुंचाने वाला साबित न हो। जीत के निकट पहुंचा आन्दोलन कहीं बिना कुछ प्राप्त किये ही  समाप्त न हो जाए। इन सभी बातों को किसान आन्दोलन नेताओं को अपने ध्यान में रखना होगा। नि:सन्देह यह आन्दोलन बहुत विशाल है और किसानों ने इसे अपने खून-पसीने के साथ सींचा है। आर्थिक और मानवीय तौर पर इसके लिए बड़ी कुर्बानियां दी गई हैं। समूचे तौर पर पंजाब और हरियाणा को भी आर्थिक तौर पर इससे बड़ा नुकसान हुआ है। इसलिए देश-विदेश में रहते प्रत्येक किसान समर्थक की यही इच्छा है कि यह आन्दोलन बड़ी उपलब्धियां हासिल करके सम्मानजनक ढंग से समाप्त हो।
केन्द्र सरकार को भी स्पष्ट रूप में यह बात समझ लेनी चाहिए कि यदि यह आन्दोलन अब और आगे बढ़ता है तो इससे जहां विदेशों में भारतीय लोकतंत्र की बड़ी बदनामी होगी, वहीं देश में राजनीतिक तौर पर भी केन्द्र सरकार और खास तौर पर सत्ताधारी पार्टी भाजपा को इसकी बड़ी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी। इसलिए बेहतर होगा कि सभी सम्बद्ध पक्ष तर्कसंगत एवं लचकदार रवैया अपना कर इस आन्दोलन का समाधान ढूंढें ताकि दिल्ली की सीमाओं पर बैठे लाखों किसान संतुष्ट हो कर अपने घरों को वापिस लौट सकें।