तालिबान का उदय भारत को घेरने की साज़िश तो नहीं !

अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कूटनीति जिस प्रकार से अपने पैर पसार रही है, वह पूरी तरह से संकेत दे रही है कि इसके पीछे का मकसद क्या है? जिस प्रकार से शतरंज की गोट बिछाई जा रही है, वह पूरी तरह से स्पष्ट संदेश दे रही है। विश्व की कूटनीति में शतरंज के घोड़े की अढ़ाई घर की चाल साफ दर्पण की भांति दिखाई दे रही है। बाइडन प्रशासन के द्वारा अ़फगानिस्तान से जाने का फैसला तुरंत बिना किसी रणनीति के लेकर अ़फगानिस्तान को फिर से उसी अतीत में झोंक दिया गया जहां वह पिछले दशकों में जीने के लिए मजबूर था। 
अमरीका के द्वारा बोरिया बिस्तर समेटते ही तालिबान पुन: अ़फगानिस्तान में घुस गया और हद तो यह हो गई कि राष्ट्रपति को स्वयं ही अपना देश छोड़कर भागना पड़ा। क्या यह मान लिया जाए कि यह सब तालिबान अपने बलबूते पर कर रहा है? नहीं ऐसा कदापि नहीं है। तालिबान के लड़ाके अपने बलबूते इस प्रकार से अफगान सेना पर हावी हो सकने की स्थिति में नहीं थे। तालिबानी लड़ाके अफगान सेना पर हावी कदापि नहीं हो सकते थे। इसका मुख्य कारण है था अफगान सेना के पास हवाई ताकत का होना जोकि तालिबान लड़ाकों के पास नहीं थी। अगर अफगान सेना अपनी हवाई क्षमता का प्रयोग करती तो तालिबानी लड़ाके कदापि सफल नहीं हो सकते थे। ऐसा न करना भी बहुत-से सवालों को जन्म देता है जिसमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि अफगान सेना के अंदर भी तालिबानी परस्ती अपने पैर जमा चुकी थी। अफगान सेना स्वयं ही दो धड़ों में बंट चुकी थी। यह एक बहुत बड़ी साज़िश को जन्म देते हुए दिखाई दे रहा है। इसके तार कहीं दूर से जुड़े हुए हैं। फिर सवाल उठता है कि आखिर इसके पीछे कौन है...? इसके लिए हमें उस अतीत की ओर झांकना पड़ेगा जहां अ़फगानिस्तान को झोंक दिया गया था। जब तक हम अ़फगानिस्तान के अतीत की ओर झांककर नहीं देखेंगे, तब तक साफ तस्वीर उभरकर सामने नहीं आएगी। अ़फगानिस्तान से कुछ देशों को इतनी घृणा क्यों है? अ़फगानिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दोस्ती और दुश्मनी को भी गंभीरतापूर्वक समझना पड़ेगा। 
सबसे पहले हमें सोवियत संघ की ओर झांककर देखना होगा। वह सन 1979 का दशक था। अ़फगानिस्तान में सोवियत सेना तथा मुजाहिदीन नामक लड़ाकों के द्वारा लड़ा गया अ़फगानिस्तानी गृहयुद्ध था। रूस पहले भी अ़फगानिस्तान की सरकार का तख्ता-पलट करना चाहता था। इस रणनीति में सोवितय सेना पूरी तरह से लगी हुई थी। साथ में पिछलग्गू पाकिस्तान भी अपने हित साध रहा था लेकिन अ़फगानिस्तानियों ने सोवियत सैनिकों को भागने पर मजबूर कर दिया। 
एक दशक तक चले इस युद्ध ने लाखाें अफगानियों को दूसरे देश में शरण लेने पर मजबूर होना पड़ा जबकि लाखों अफगानी गृह युद्ध में मारे गए थे।  रूस ने प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन होने के बावजूद मास्को में वार्ता के लिए कई बार तालिबान की मेजबानी करके समूह की अंतर्राष्ट्रीय विश्वसनीयता को बढ़ाने का प्रयास किया। जुलाई में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने तालिबान को एक बड़ी ताकत बताने का प्रयास किया था। सबसे बड़ी बात यह है कि रूस ने वार्ता में बाधा डालने के लिए अफगान सरकार को ही दोषी ठहराया था। रूस खुले रूप से लगातार तालिबान का पक्ष ले रहा है। यह वही रूस है जो 80 के दशक में अ़फगानिस्तान पर कब्जा कर अफगानियों को कुचल रहा था। रूस अपनी हार को नहीं पचा पाया। रूस ने अ़फगानिस्तान के प्रति गहरी साज़िश को गढ़ना शुरू कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि 1994 में तालिबान की स्थापना हुई और 1996 में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की मदद से संगठन ने देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया जिसे 2001 में अमरीकी सेना ने कुछ ही महीनों के आक्र मण के बाद जड़ से उखाड़ दिया था। इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास है। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे से गदगद पाकिस्तान अब कट्टरपंथी विद्रोही गुट के शासन को मान्यता दिलाने के लिए परेशान है। तालिबान के सहारे आतंकवाद को बढ़ाने की योजना में जुटे पाकिस्तान ने क्रूर लड़ाकों को संत बताने की मुहिम शुरू कर दी है। इस नापाक गठजोड़ में ड्रैगन को भी शामिल कर चुके पाकिस्तान ने चीन को भरोसा दिया है कि वह तालिबान को मान्यता दिलाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है।  विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने चीनी समकक्ष वांग यी से फोन पर बात की और कहा कि अ़फगानिस्तान पर क्षेत्रीय सहमति बनाने के लिए वह खुद दूसरे देशों में जाकर बात करेंगे।  चीन ने कहा है कि वह तालिबान से दोस्ताना और सहयोगपूर्ण रिश्ता बनाने को तैयार है। चीन और पाकिस्तान ने तालिबान के शासन को मान्यता देने की बात भी कही है। इन सभी घटनाक्र मों के देखने के बाद क्या यह तस्वीर साफ नहीं हो जाती कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को घेरने की साजिश रची जा रही है। अ़फगानिस्तान की सरकार के भारत के साथ संबंध बहुत ही मित्रतापूर्वक थे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान और चीन के साथ न जाकर अ़फगानिस्तान ने भारत के साथ जाना उचित समझा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश साफ एवं स्पष्ट था कि अ़फगानिस्तान चीन तथा पाकिस्तान 
अत: यह संदेश पूरी तरह से साफ है कि अ़फगानिस्तान में तख्ता पलटकर अपना मुखौटा बैठाने की साजिश में कई देश शामिल हैं जोकि अपना हित साधना चाहते हैं। इनमें चीन, पाकिस्तान तथा रूस मुख्य भूमिका में हैं। इस पर भारत को अपनी नजर बारीकी के साथ जमाए रखने की जरूरत है। चीन और पाकिस्तान की भारत के विरुद्ध रणनीति  किसी से भी छिपी हुई नहीं है। भारत को अपने हितों को ध्यान में रखते हुए जरूरी कदम उठाने की आवश्यकता है। यदि तालिबान ने अपनी जड़ें मजबूत कर लीं और सत्ता पर काबिज हो गया तो भारत के भविष्य के लिए यह ठीक नहीं होगा। (युवराज)