समय लिखेगा किसान संघर्ष की ऐतिहासिकता की गाथा

किसानों की मांगें अभी भी अधूरी हैं। उन्हें पूरा नहीं किया गया, बावजूद इसके कि तीन कृषि कानूनों को रद्द कर दिया गया मात्र क्षणों में, बिना किसी बहस के। पिछले मॉनसून सत्र जो कोविड-19 के आक्रमण के कारण सिर्फ  हफ्ते भर चल पाया था, में कम से कम पच्चीस बिल पारित कर दिये गए, प्रतिदिन 2.7 की दर से। इनमें इन्श्योरेन्स के निजीकरण और तीन कृषि कानून बिलों को भी ले लिया गया और वह भी बिना बहस के। इन सब कदमों में भारत के जनवाद के कमजोर होते कंधों की छाप थी। किसी भी बिल पर बहस नहीं हुई। पारित होने के लिये भी ध्वनिमत ही लिये गए बावजूद सारे शोर के। पूरे विरोधी पक्ष को नृशंसता से कुचल दिया गया। उस समय संसद में चलती इस पूरी गैर-कानूनी कार्रवाई का विरोध करने वालों में इस शीत सत्र में बारह सांसदों को निलंबित कर दिया गया।
इस बीच किसानों में तीनों कानूनों के खत्म हो जाने के बावजूद धरने से उठने को लेकर मतैक्य नहीं बना है। संयुक्त किसान मोर्चा ने धरने पर बैठे किसानों की ओर से प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है कि यह पूरा निर्णय ही एकपक्षीय है। इसमें किसानों की सहमति नहीं ली गई है। सारी बाधा-विपत्तियों को झेलते हुए किसान धरने पर पिछले एक साल से बैठे हैं। इस सिलसिले में उनके सात सौ से भी अधिक सहयोगी शहीद हो चुके हैं। वे अडिग हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी सभी मांगें उचित और वैध हैं। फिर भी सिर्फ  तीन ही कानूनों को वापस लिया गया और वह भी बिना उनसे परामर्श किये। इसलिये विरोध भी चलता रहेगा। इस बीच लखनऊ में जो किसानों की महापंचायत हुई, उसमें लखीमपुर खीरी के शहीदों के परिवारों को भी आमंत्रित किया गया और सम्मानपूर्वक मंच पर बिठाया गया। यह सरकार को संदेश था कि किसान अपने विरोध से पीछे नहीं हटेंगे। धरने में प्रतिदिन किसानों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। धरने का साल पूरे होने के साथ ही हर तरह के तबके के लोग इसमें शामिल हो रहे हैं। जनता में यह भावना घर करती जा रही है कि उनके साथ अन्याय हुआ है।
किसानों ने अपनी मांगों को पूरा करने का प्रधानमंत्री से आग्रह किया है। उनकी जो मांगें बची हैं, उनमें उनकी पहली मांग न्यूनतम समर्थन मूलय (एमएसपी) की है जिसकी उन्होंने सी-2़50 की बुनियाद पर कृषि में लगे सभी किसानों के लिये मांग की है, सारे कृषि उत्पादों के लिये। उन्होंने बिजली बिल 2020-2021 संशोधन कानून, दिल्ली के मौसम को हानि पहुंचाने वालों की सूची से किसानों को हटाने की मांग और इसके साथ ही राजधानी क्षेत्र में पर्यावरण स्तर को बनाए रखने के सिलसिले में बनाए कमीशन के 2021 में जोड़े गए भाग 15 को हटाने की भी मांग की है।
उन्होंने लखीमपुर खीरी से सांसद अजय मिश्रा टेनी को मंत्रिमंडल से हटाने की भी मांग की है। अंतत: इन सभी शहीदों के परिवार को हर्जाना देने की मांग भी है। इन सभी शहीदों के लिये उन्होंने सिंघु बॉर्डर पर स्मारक बनाने की भी मांग की है। किसानों ने यह भी लिखा है कि सड़क पर बैठना उन्हें भी अच्छा नहीं लगता, परन्तु यह उनकी मजबूरी है। आज, यह उनका फैसला है कि सारी मांगों को पूरा किए बिना वे यहां से हटेंगे नहीं। वे घर जाएं, अपने खेती के काम में लगें, परिवार के साथ रहें, इसके लिये सरकार को संयुक्त किसान मोर्चा के साथ परामर्श कर सारी मांगों को पूरा करने का निश्चय करना पड़ेगा। वस्तुत: किसानों की सबसे पहली मांग ही एमएसपी की है जो उनके जीवन का आधार है, क्योंकि उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिये यह एक अनिवार्य मांग है जिसे सरकार अब तक पूरा तो करती आई है लेकिन इसके लिए अब तक कोई कानूनी हक का दर्जा नहीं मिला है। अखिल भारतीय किसान सभा के अनुसार व्यापारी कम कीमत पर फसल की खरीद करते हैं। बिचौलिये तथा कॉरपोरेट घरानों को भी कम कीमत पर बेचते हैं, लेकिन खरीद के वक्त यही कीमत उपभोक्ताओं के लिये आसमान छूने लगती है। किसानों ने मांग की है कि खरीद के समय ही कीमतों को लागत की दर एमएसपी के अनुसार ही रखना चाहिए।
देश आज भूख के आंकड़ों में गहरी अंधेरी खाई तक पहुंच चुका है। 114 देशों के सर्वे में भारत को 101वां स्थान मिला है। जीवन को बचाए रखने के लिये ये सभी मांगें ज़रूरी हैं। इन्हें पूरा नहीं करने की स्थिति में हमारी मातृभूमि विकास के बजाय कब्रगाह में बदल जाएगी। वस्तुत: एमएसपी किसी भी बहस से परे है। इसकी अनिवार्यता पर प्रश्नचिन्ह लग ही नहीं सकता। यह उन किसानों से जुड़ा है जो 1.38 बिलियन जनता को जिन्दा रखने के लिये दिनरात मेहनत कर फसल उगाते हैं। 
यह बात स्वीकार कर ली गई है कि आम जनता बिना अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा किए जी लेती है परन्तु इनमें भोजन का अहम स्थान है, जो ज़िन्दा रहने की शर्त भी है। इसलिये उन्हें कम दर पर भोजन मुहैया किया जाए, और वैधानिक स्तर पर उन्हें एमएसपी तथा भोजन की गांरटी दी जाए, अन्यथा भुखमरी, जो आज आम है, अकाल की स्थिति में आ जाएगी। इसके लिये किसी बहस की आवश्यकता नहीं लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि जिस सरकार ने कृषि के तीनों कानूनों को वापस लिया है, उसी ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथ-पत्र दिया है कि एमएसपी को कानून का दर्जा देने का अर्थ है बाज़ार को चौपट करना। यह भी कि सभी 23 फसलों पर एमएसपी देने का अर्थ है बाज़ार का संतुलन बिगाड़ना, मुद्रास्फीति की स्थिति बनना और कृषि उत्पाद के निर्यात में गिरावट।
विभिन्न अवसरों पर यह घोषणा हुई है कि किसानों को सरकार एमएसपी अवश्य देगी, इस परिप्रेक्षय में यह शपथ-पत्र अपनी जगह कैसे बनाता है, यह प्रश्न रह ही जाता है। करोड़ों किसानों, जिनकी जीवन रेखा एकमात्र एमएसपी ही है, के साथ यह बर्ताव विश्वासघात से कम नहीं। (संवाद)