बेरोज़गारी सबसे बड़ा मसला

सरकारों के पास आंकड़ों की कभी कमी नहीं होती। केवल आंकड़े जमा करने के काम के लिए सैकड़ों बाबू दिन-रात जुटे रहते हैं। एक नेता विकास के कितने ही आंकड़े अपने भाषण में सुना देता है परन्तु भूख से मरने वालों और बेरोज़गार लोगों के बारे में कोई आंकड़ा सरकार के पास नहीं है, जबकि संविधान के अनुसार दो बड़े दायित्व सरकार के ही हैं जिनमें पहला लोगों के जानमाल की रक्षा करना और दूसरा है रोज़गार एवं उसके साधन उपलब्ध करवाना। जिन घरों में पढ़े-लिखे बेरोज़गार युवा लड़के-लड़कियां हैं, उन घरों की हालत बयां करना कठिन है। एक प्रकार का तनाव, एक अलग तरह की उदासी ऐसे घरों में छायी रहती है, जिसका घर के किसी सदस्य के पास कोई जवाब नहीं होता। 
ये पंजाब तथा अन्य चार राज्यों में चुनाव के दिन हैं। इन दिनों आदतन जनप्रतिनिधि मूल कमियों की बात किया करते हैं, परन्तु बेरोज़गारी जैसे संकटपूर्ण मुद्दे पर बहुत कम बात हो रही है। जैसे इसके लिए कोई खाका वोट चाहने वाले नेताओं के पास नहीं हो। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशें तो भरपूर हैं परन्तु नौकरी को लेकर कोई सकारात्मक रोड मैप कहीं नज़र आता नहीं। इतना ज़रूर सुनने में आ रहा है कि मेक इन इंडिया के तहत अगले पांच सालों में साठ लाख रोज़गार बढ़ाने की बात बजट में कही गई है। इसे यदि हर तरह से ठीक मान लिया जाए तब भी भयावह बेरोज़गारी के लिए कोई स्थायी उपाय शेष रह जाता है। 
फरवरी 1918 में अपने एक भाषण में प्रधानमंत्री ने संसद में कहा था कि 85 से 90 प्रतिशत रोज़गार असंगठित क्षेत्र में हैं, जहां रोज़गार संबंधी रोड मैप राज्यों और केन्द्र सरकार के पास नहीं होता। बेरोज़गारी एक ऐसा विषय बनता चला गया है, जहां पक्ष-विपक्ष सभी के रिकार्ड अधूरे हैं। इसीलिए पूछने पर भी भूख से मरने वाले लोगों की संख्या और बेहोज़गार लोगों का रिकार्ड ज़्यादा गड़बड़ है। 
वास्तव में एक वर्ग ऐसा बनता चला गया है, जिसको जन-साधारण के दुखदर्द की चिन्ता नहीं रही। मुम्बई और गुरुग्राम में जो इमारतें आकाश चूम रही हैं, उनमें रहने वालों को दुनिया की कोई चिन्ता परेशान नहीं करती। उनके परिसर में सभी सुविधाएं मौजूद हैं जैसे क्लब हाऊस, स्वींमिंग पूल, झूले, होम डिलिवरी की सेवा आदि। इस आरामतलबी, सुविधापूर्ण ज़िन्दगी पाकर वे सामान्य जन से कट गये हैं। तब तक जब समस्या की आंच उनके घरों को छू नहीं लेती। 
रोज़गार और नौकरियों के अनेक क्षेत्र बनाए जाते हैं परन्तु एक सर्वे यह बताता है कि भारत में नौकरियों को लेकर उतावलापन ज़्यादा है परन्तु दूसरा पक्ष यह है कि नौकरियों में पिछले कोविड के दिनों कमी आई है। सरकारी नौकरियां भी पिछले कुछ दशकों से कम हुई हैं, जबकि जनसंख्या बढ़ती ही रही है। आंकड़ों की बात करें तो सरकार ने 1.75 लाख करोड़ रुपये विनिवेश का लक्ष्य रखा था परन्तु मिले सिर्फ 12.29 करोड़। सरकारी कम्पनियों के देनदार भी कम ही हैं, और 12 सरकारी कम्पनियों में 41 हज़ार से ज़्यादा पद खाली पड़े हैं। बैंकों का निजीकरण हो रहा है। 
ऐसी परिस्थितियों में उड़ रहे पब्लिक सैक्टर के खाली पदों की भर्ती कैसे हो। उधर जब बात मिनिमम गवर्नमैंट और मैक्सीमम गवर्नमैंट की हो रही हो, तब वीआरएस का अच्छा पैकेज भी त्रासद हो जाता है। केन्द्र सरकार में 40 लाख स्वीकृत पदों पर 8.72 लाख पद खाली पड़े हैं। इन्हें भरने की जगह ठेके पर भर्ती की योजना अमल में लाई जाती है। बड़े-बड़े कंस्लटैंट अपने भरोसे ही काम चला रहे हैं। आईएएस अफसरों की प्रतिनियुक्ति पर विवाद बढ़ता चला गया। यूटी केडर की भर्ती पर प्रश्नवाचक लग रहे हैं, क्योंकि काफी सरकारी धन, बड़ा इन्कम का हिस्सा वेतन, पैंशन और प्रशासन के खाते में चला जाता है। इसलिए पद तो खाली हैं परन्तु भर्ती हो नहीं रही।