तासीर बदलने की उम्मीद 

बदलाव, बदलाव, बदलाव। बदलाव लाओ। हमारी हालत बदलो। हमें ऐसी शिक्षा दो जो इस बदलते हुए कम्प्यूटर, यन्त्रीकरण और डिजिटल ज़माने में किसी काम भी आये। यह न हो कि इस बदलते युग में नये निपुण कामगार तो हमें मिलें नहीं। इनकी आसामियां, नौकरियां खाली रहें। उनके लिए हार कर रोबोट युग लाने की कल्पना की जाए। आदमी के हाथ की जगह स्वचालित मशीनें लें। आदमी की मौलिक अन्वेषक बुद्धि की जगह बनावटी बुद्धि और चेतना ले, लेकिन अगर सब कुछ इस्पाती बना, उसे यन्त्रीकरण कर दोगे, तो आपकी संवेदना किस कतार में दम तोड़ती नज़र आएगी। उपेक्षित कतार?
क्या लगातार बढ़ती हुई उस राहत और रियायत संस्कृति में जहां हाथ हिलाये बिना पेट भर जाए, अच्छा ओढ़ने-बिछौने की भावना पलती रहे, और आदमी तप-तपस्या, साधना और अध्यवसाय की जगह शार्ट कट की पतली गलियां तलाशने लगे?  नज़र आता है, एक दौड़ लगती है देश के कर्णधारों में नव-निर्माण की नहीं, उसके नाम पर तो अधूरी सड़कें मिलती हैं, और बीच में छोड़ दिये गये अधबने पुल। आज उस की जगह सपनों के ताजमहल नहीं, ताश महल खड़े किये जा रहे हैं, जो कब खड़े हुए, और किस फूंक से गिर गये, कुछ पता ही नहीं चला। कभी कहा जाता था, ‘फूंकों से चिराग बुझाया न जाएगा।’ अब न तो चिराग जलते हैं, और न उनकी रौशनी सुरक्षित रखने के लिए नया खून कटिबद्ध होते नज़र आता है बल्कि यहां तो फूंक अब एक दूसरे के कानों में मारी जाती है। उसकी कटुता फुसफुसाती नहीं, सारे माहौल में फैल जाती है। ज़हर फैलता है तो उसे काटने के लिए किसी अमृत की तलाश नहीं होती, बल्कि उसे काटने के लिए अधिक ज़हर फैलाया जाता है। ‘मानस की जात सब एक ही पहचानबो’ के देश में इक्कीसवीं सदी से वापस अठारहवीं सदी में लौट जाने का युग आएगा क्या? बुर्के और घूंघट की पर्दादारी का युग। जात बिरादरी, धर्म और वर्ग की बात कह कर धरती के सीने पर हंगामे और क्रोध की या अलगाव की लकीरें खींचने का युग। कार्यशील होने की चाह रखने वाले लोगों को विदेश में करोड़पति हो जाने के सब्ज़बाग दिखाने का युग।  यहां बात रोज़गारोन्मुख व्यावहारिक नई शिक्षा नीति की होती है लेकिन यह कैसा बदलाव है कि घोषणा शिक्षा को उपयोगी बनाने की होती है और हर मोड़ पर जाल बिछ जाते हैं, इनलैट अकादमियों के।  उन देशों की तलाश होती है, जहां प्रवासी परीक्षाओं में कम बैंड पाने वाले भी घुस सकें। यूक्रेन मिला तो बीस हज़ार भारतीय नौजवान वहां डाक्टर बनने के लिए चले गये। अब महाशक्तियों में टकराव हुआ तो उन्हें वहां से निकालने का गंगा अभियान चला हुआ है, सफल घोषित हुआ है। अभियान तो सफल हो गया लेकिन वापस लौटे पूछते हैं, जिनकी डिग्रियां अधूरी रह गईं, उन्हें पूरा करने के लिए रियायती रास्ते निकाले जाएंगे क्या?
देश में महामारी आती है, तो उसे भगाने के लिए ऐसा टीकाकरण अभियान चलाया जाता है, कि जिसकी सार्थकता रोग उन्मूलन में नहीं, रोग से बचने की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में है। कह दिया जाता है कि टीके के बावजूद महामारी का प्रभाव अब भी हो सकता है, लेकिन दिलासा दे दिया जाता है कि प्रहार हो भी गया तो अब मरोगे नहीं। थोड़ी कम क्षति से बच निकलोगे। 
लेकिन कभी-कभी इससे आजिज़ आयी चुप रह यह अत्याचार और अनाचार सहने वाली बहुसंख्या अपने वोटों से बोल भी देती है। चिल्ला कर कह देती है कि हमें चेहरों की नहीं, बातूनी लोगों की नहीं, बदलाव की राजनीति चाहिए। लंगर की पांत नहीं एक-दूसरे के सहयोग के साथ ठोस काम की, निर्माण की पाबन्दी चाहिए। संवेदना के सीने पर जाति-धर्म के अलगाववाद के ज़हर की लकीरें न खींचो। माफिया और आतंकी कुचेष्टाओं की जगह इन्सान को अपना इन्सानियत का धर्म सीखने दो, पहचानने दो। 
चाहे राजनीति के सिद्धहस्त और शातिर खिलाड़ी अपनी वितण्डावाद लेकर भौंचक्के खड़े रह जाते हैं। उधर अभी तक चुप बहुसंख्या ऐसे अनजान लोगों को सामने ले आती है, जो जनसाधारण के दुख-दर्द में शरीक हो सकते हैं, उसे सुख भरे दिनों में बदल देने का वायदा कर सकते हैं।  लेकिन सही ज़िन्दगी में लौटने की चाह रखने वाले अब भी एक ही बात कह रहे हैं कि बदलाव का यह अंगरखा उतरने पर फिर कहीं यह त्रासदी न घट जाये कि वायदों ने ही मुखौटा बदल गद्दी हथिया ली, और फिर बदलाव की चाह स्वधर्म घोषणा की जानी पहचानी राह पर चल निकली।  पिछला अनुभव यही कहता है कि ऐसा ही हो सकता है, लेकिन कभी-कभी इन अनुभवों की तासीर बदलनी भी तो चाहिए।