राजनीति में महिलाओं के लिए अभी भी दुर्लभ हैं अवसर 

लगभग छह महीनों से पूरे देश में चुनावी चर्चा सब ओर थी। मीडिया के सभी चैनल अपने-अपने अनुमान सुनाने तथा अपनी प्रिय राजनीतिक पार्टियों के गुणगान करने में लगे थे। कुछ टीवी चैनल वालों को यह विश्वास रहता है कि जिस दल का वे गुणगान करेंगे, संभवत: वही सारे देशवासियों का कंठहार हो जाएगा। आश्चर्य यह है कि चुनाव तो केवल पांच राज्यों में थे, लेकिन चर्चा पूरे देश में रही। संभवत: उत्तर प्रदेश का महत्व पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचता रहा। इन चुनावों में भी पहले सभी चुनावों की तरह महिलाओं ने भी बढ़चढ़ कर भाग लिया। घर-घर जाकर प्रचार करने से लेकर उम्मीदवारों की आरती उतारने, उनके पक्ष में नारे लगाने, मतदान करने से लेकर ऐसा कोई काम नहीं रहा जो चुनावी समर में महिलाओं ने न किया हो। नेताओं ने भी महिलाओं के लिए बड़े बढ़िया भाषण दिए, उनकी शक्ति का गुणगान किया। आधी आबादी तो उन्हें कहते ही हैं पर एक राजनीतिक दल की नेता ने तो ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ कहकर पूरे उत्तर प्रदेश में चुनावी अभियान चलाया। कौन जीता, कौन हारा, यह अलग बात है, पर मुझे ऐसा लगता है कि इस चुनावी युद्ध में अगर कोई हारता है तो वे इस देश की महिलाएं हैं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए हर राजनीतिक दल के नेता बड़े-बड़े मनोहारी शब्दों में वक्तव्य देते रहे। 
यह ठीक भी है कि जिस देश की महिला सुरक्षित नहीं, उनके सम्मान की रक्षा शासन प्रशासन नहीं कर पाता, वह देश और समाज कभी सभ्य नहीं कहा जा सकता। फिर भी मैं यह कह रही हूं कि चुनावी युद्ध में महिलाएं हार जाती हैं। वे वोट डालती हैं, नारे लगाती हैं पर जब सत्ता को बांटने का समय आता है तो उनके हाथ में  प्राय: कुछ नहीं आता या केवल तुष्टिकरण का साधारण सा प्रयास किया जाता है। वैसे महिलाओं को तुष्ट करने की किसी राजनीतिक दल को चिंता भी नहीं है। अगर बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा का अवसर ले कर ही वे बेचारी बहुत प्रसन्न हो जाती हैं तो सत्ता में उन्हें भागीदार बनाने का अर्थ भी कोई नहीं रहता। पंजाब में पिछली अकाली-भाजपा सरकार ने तो लड़कियों को साइकिल बांटकर ही वाहवाही लूट ली थी और अब पंजाब में आम आदमी पार्टी ने चुनाव पूर्व 18 वर्ष से ऊपर की आयु की हर महिला को एक हजार रुपया प्रतिमाह देने का भरोसा दिया है। संभवत: दे भी देंगे, पर सत्ता में क्या मिला? दस मंत्रियों में एक महिला। चूंकि वह आंख रोग विशेषज्ञ डाक्टर है, अत: उसे महिला बाल विकास विभाग देकर सुशोभित कर दिया। पूरे देश में भी क्या हो रहा है? पांच राज्यों में चुनाव हुए। पांच में से किसी एक की महिला मुख्यमंत्री नहीं बनी। पंजाब के पांच राज्यसभा पदों के लिए एक भी महिला सत्तापक्ष को योग्य नहीं लगी। यह ठीक है कि जिन व्यक्तियों को राज्यसभा में भेजा है, वे बड़े योग्य होंगे, पर क्या पंजाब की एक भी महिला ऐसी नहीं जो राज्यसभा में पहुंचा दी जाती। 
पूरे देश में ही इस समय मेरी जानकारी के अनुसार केवल ममता बैनर्जी ही बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। वह भी किसी की दया से नहीं बनीं, अपितु अपने संघर्ष से अपनी पार्टी को बहुमत दिलवाकर मुख्यमंत्री पद प्राप्त कर पाई हैं। 75 वर्ष के स्वतंत्र भारत के इतिहास में बहुत कम नाम महिला मुख्यमंत्रियों के हैं।  श्रीमती सुचेता कृपलानी स्वतंत्रता के पश्चात पहली मुख्यमंत्री बनीं। उसके बाद तो नाम इतने थोड़े हैं कि दस अंगुलियों पर भी पूरे नहीं उतरते। राजनीतिक पार्टियों ने दिल्ली में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री बनाया और गुजरात में कुछ समय के लिए आनंदी बेन को। इसके अतिरिक्त जय ललिता, मायावती और ममता अपनी हिम्मत और पार्टी का नेतृत्व करती हुई मुख्यमंत्री पद पर पहुंचीं। बात सीधी है कि जिस देश में राजनीतिक दलों का काम केवल कुछ मुफ्त सुविधाएं, थोड़ी सी पेंशन और बहुत कम महिला मंत्री बनाकर चल जाए, वे अपनी शक्ति महिला-हाथों में क्यों सौंपेंगे। सच्चाई यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में कोई भी राजनीतिक दल महिलाओं को राजनीतिक शक्ति और प्रशासनिक नियंत्रण स्वेच्छा से देने को तैयार नहीं। 
महिलाओं की हालत यह है कि चुनाव सम्पन्न हो गए। यूं कह सकते हैं कि कारवां गुजर गया और वे अर्थात इस देश की महिलाएं गुबार देखती रह गईं। कारवां की जो धूल मिट्टी है वह इनके हिस्से में आई है। शायद इसी से ही वे प्रसन्न है’ शायद वे अपनी शक्ति को नहीं जानतीं, इसलिए अपने लिए सत्ता नहीं मांगतीं। वर्तमान चुनावों से पहले कांग्रेसी खेमे से महिला मोर्चा की कार्यकर्ताओं ने जो आवाज़ बुलंद की थी अपने लिए विधानसभा में टिकटें और भागीदारी मांगने की, उससे बड़ी आशा बंधी थी, पर वह आवाज़ थोड़े बहुत विरोध के बाद शांत हो गई। मजबूरी भी हो सकती है और राजनेताओं का असहयोगपूर्ण व्यवहार भी। इसके अतिरिक्त किसी भी पार्टी की महिलाओं ने यह आवाज नहीं उठाई। 
सुखद पक्ष यह है कि इस बार पंजाब में आम आदमी पार्टी की महिला वालंटियर्स ने महत्वपूर्ण कार्य किया, जो दिखाई भी दिया। शिक्षित महिलाएं आम आदमी पार्टी के साथ जुड़ भी गईं। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को टिकट भी दिया। 11 महिलाएं अधिकतर उच्च शिक्षित विधानसभा में पहुंच भी गईं। भविष्य में संभवत: वे कोई सुधार कर लें, पर अभी तो मंत्री पद प्राप्त करने में महिलाएं बहुत पीछे रह गईं। यह ठीक है कि देश की महिलाओं ने हर क्षेत्र में वह सब प्राप्त कर लिया है जो वे अपनी योग्यता से, संकल्प से, शिक्षा से प्राप्त कर सकती हैं। आकाश से लेकर सागर की पनडुब्बियों में वे काम कर रही हैं। राफेल उड़ाती हैं। भारी शस्त्र लेकर बर्फीले पहाड़ों पर देश की सुरक्षा करती हैं। सुप्रीम कोर्ट में भी महत्वपूर्ण योगदान देने में सक्षम हो चुकी हैं। सभी प्रकार के प्रशासनिक पदों पर अपनी योग्यता की धाक जमा रही हैं, पर जो कुछ उन्होंने पुरुष प्रधान राजनीति से लेना है, वह अभी उन्हें प्राप्त नहीं हुआ। कुछ समय पूर्व भारत सरकार के उन 11 महिला मंत्रियों का चित्र दिखाया जा रहा था जो केंद्र में मंत्री हैं। प्रश्न यह है कि ये 11 ही क्यों रह गईं, जबकि संसद में पहली बार 78 महिला सांसद हैं।  महाकवि नीरज के शब्दों, में और हम खड़े-खड़े, बहार देखते रहे, कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।