झूठे सच की तलाश 

‘एक बात बताओगे सच सच?’ छक्कन ने बीच चौराहे रोक कर हमें पूछा। आज सच, सच कहना है हमें, यह सुन कर हम हैरान हो गये। अरे आजकल झूठा सच जीने वालों की दुनिया है। लोग बड़े मज़े से इसे उम्र भर जीते हैं। मौका-ए-हालात के मुताबिक अपना केंचुल भी बदल लेते हैं। फिर इस केंचुल को ही अपने जीवन का अन्तिम सत्य मान कर, इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर जाते हैं। उन निकट जनों, नाते-रिश्तेदारों और कथित प्रशंसकों के लिए आशीर्वाद की मुद्रा बना विदा लेते हुए, परन्तु उनसे आशीर्वाद लेने के लिए तनिक भी अन्दर से उत्सुक नज़र नहीं आते। 
भला हो इन संक्रमण से धमकी भरी महामारियों का। कोरोना से लेकर मंकीपाक्स तक का कि इनकी दहशत ने हर आदमी को उसकी जगह बता दी। यह अकाट्य सत्य बता दिया कि ‘अकेले आये हो अकेले ही जाना होगा।’ महामारियों के इस साथ-साथ चलते विकट मारक काल ने आदमी से आदमी, दोस्त से दोस्त, प्रेमी से प्रेमिका के संगसाथ स्पर्श अनुराग से अपरिचित बना दिया। कहां गयी, भावुकता भरी संवेदना? आपने कहा इस विकट युग में यह तो उस सलीब पर टंग गयी, जहां पहले युग पुरुष टंगते थे, अब युग भाव टंगने लगे? दम तोड़ने के लिए एक-दूसरे से मुंह छिपाने लगे?
पहले आंखें चुरा, मुंह फेर कर अपने भाव अलगाते थे, अब तो बाकायदा चेहरे को मास्क से ढकने का आदेश हो गया। नहीं ढकोगे तो अपरिचय के विंध्याचलों में दम तोड़ देने की त्रासदी तुम्हें घेर लेगी। एक ऐसी त्रासदी जो लाशों की बढ़ती हुई गिनती को ढोने से इन्कार कर देती है। 
संक्रमण का दबाव घट भी जाए, तो अपनों की मनोदशा तो ऊसर रेगिस्तान में बदल गयी। जब अच्छा समय था, और इनका सूरज बुलन्दियों पर था, तो यही लोग अपने सिर का ताज लगते थे। उनका वक्त बीत गया, नीचे की कुर्सी सरक गई, तो वही स्मृतिभ्रम बन गये। उनके पास से बिना पहचाने गुज़र जाना एक उपलब्धि लगता है, अपना विकास लगता है। 
महामारी का वक्त गुज़र भी जाये, तो भी राजपाट छूट जाने का दर्द सहा नहीं जाता। यह दर्द तो महामारी से भी भयानक है। कल तक आपकी शान में कसीदे पढ़ने वाले आज अपनी हरकत पर शर्मिंदा नज़र आते हैं। अब वक्त उनका है, समारोह उनके हैं। कभी भूतपूर्व हो जाने के बाद अपनी छवि के ज़िन्दा रहने के भ्रम में वहां चले जाओ, तो ढंग की कुर्सी भी न मिलेगी। शिकायत करो, तो जैसे संसद के एक विपक्षी नेता के राष्ट्राध्यक्ष गद्दी बदल समारोह में हुए व्यवहार पर उपेक्षा के छींटे उड़े थे, वैसा ही आपको संसद से सड़क तक होता हुआ महसूस होगा। 
कोई अच्छे वक्त को हाथ से फिसलने नहीं देना चाहता। साम, दाम, दण्ड, भेद से उसे अपने पास ही बनाये रखना चाहता है। आज हम समय के मीर मुंशी हैं। कुर्सी से उतर जायें, तो भी हमारा समय न बदले। आज यह समय हमारे पास बंधक है, कल हमारा बेटा आगे आये। फिर नाती हैं, पोते हैं। अजी युग के मसीहा क्यों इसे वंशवाद कह कर दुत्कारते हैं। क्यों देश की राजनीति को परिवारवाद की अजगर फांस से छुटकारा पाने की प्रे्ररणा देते हैं? लेकिन यह अजगर फांस रूप बदल-बदल कर हमारे युगसत्य को डसती है, और उसे एक नया सत्य बना देती है। बदलते युग का बदलता सत्य। नहीं-नहीं एक और लुभावना सच, झूठा सच। अभी तक नहीं जाना कि शासन करने की प्रतिभा से लेकर राजनीति की चौसर पर चाल दर चाल चलने की परम्परा वंशगत होती है, तभी तो दिल्ली दरबार से लेकर राज्य राजनीति के जन-दरबारों में नेताओं के वंशज नेताओं का मेरूदण्ड विरासत में चलता है, और उसे खूब निबाहते जाता है। जो इस वंशवाद के विरुद्ध झण्डा बुलन्द करने की बात कहते हैं, वे भी तो अपने लोगों के कन्धों पर ही अपना सिंहासन जमाते हैं। ये अपने लोग धर्म, जाति, सम्प्रदायों और इलाकाई विकास के कटघरे में बंटे हुए लोग होते हैं, या उसके कट्टरवाद के पहरुए। आप बन्धनों से आज़ाद होने की घोषणा करते-करते कट्टरवाद की बगिया में आस्था के फूलों का नाम ले महकते चले गये और मत प्रतिशत पर अपना सर्वाधिकार सुरक्षित करने लगे?
आप मुक्त गगन में मुखर उड़ान का नाम लेकर अपने लिए एक सुरक्षित आरक्षित छोटा छोटा आकाश क्यों रचने लगे? कहीं आकाश से आकाश टकरा जाता है, तो रक्त रंजित छींटे उड़ते हैं, नफरत के शोले उभरते हैं। चयनित हो जाने के संघर्ष में ये नयी बैसाखियां क्यों अपरिहार्य लगने लगीं? और यह सच फिर युगपुरुषों के सपनों की कदमबोसी करने लगा, कि नेता का बेटा नेता ही होगा, और प्रतिभा अपनी जाति की ही सर्वोत्तम।  लेकिन उधर समाजवाद की कल्पना किसी संक्रामक मज़र् की तरह नकाब के अलगाव का शिकार हो गयी। पीढ़ी दर पीढ़ी गरीब का बेटा गरीब ही नहीं, अंधेरे की विरासत झेलता फटीचर भी हो गया। हम इसे दिलासा देने के लिए एक झूठा सच भी तलाश नहीं पाये।