अधूरे ख्वाबों के ताजमहल

‘क्या करें हम भय्यन?’ छक्कन ने हमें पूछा। हमें खबर मिली थी, इधर उन्हें गुमान हो गया है, वह स्थापित हो चुके हैं। जो स्थापित हो जाये, वह हमारी बस्ती में लौट आये। उन लोगों के पास जाये जो बरसों से इसके एक कोने में सिमट कर बैठे हैं। पिछली पौन सदी से सिमटे इन लोगों को एक संदेश और मिल गया कि अगली चौथाई सदी भी ऐसे ही उन्हें नुक्कड़ में बैठना है। फिर इन अंधेरी बस्तियों में कोई दिल वाला आयेगा, मुस्करा कर कह देगा, कि ‘लो मूलभूत ढांचा बन गया, अब तुम्हारे अच्छे दिन आने का समय है।’ अब उसी समय के स्वागत में थोड़ा सा नाच लो। इस बीच हमारे छक्कन तो स्थापित भी हो गये। खाली बैठे, रियायती अनाज के अपने घर तक पहुंचने का इन्तज़ार कर रहे थे। जब से इस अनाज को अपने जैसे घरों तक पहुंचाने का ठेका उन्होंने ले लिया, छक्कन की अंधेरी कोठरी के पीछे का चोर दरवाज़ा खुल गया।  जानते हो अली बाबा की कहानी में ‘खुल जा सिम-सिम’ कहने पर डाकुओं की बंद गुफा का द्वार खुल जाता था। अन्दर लूट के माल के अम्बार लगे थे। बौरायी सी एक आवाज़ कहती, ‘खुल जा सिम-सिम, खुल जा सिम-सिम।’ भाग्यहीनों के किस्मत द्वार खुल जाते, आंखें उपलब्धि से जगमगाने लगतीं। 
इधर हमारे छक्कन को भी लगा था, उनकी अंधेरी कोठरी का चोर दरवाज़ा भी खुल गया। खुदा रियायतों के इस स्वर्ग को और फलाफूला रखे। इन अंधेरी बस्तियों के पिछवाड़े सब गिरते पड़ते घरों के चोर दरवाज़े खुल जाएं, जो पौन सदी से लद्दड़ थे, और अपने लद्दड़ होने का महोत्सव भी मना चुके थे। अब उन्हें उसी पथ पर चलते रहना था, उसी अंदाज़ में। सिर्फ उनके रास्ते का नाम बदल गया था। प्रगति पथ नहीं, अब यह विकास पथ था। पूर्णतया की ओर बढ़ता हुआ विकास पथ, कि जिसकी अगली मंज़िल पर एक और ऐसा ही महोत्सव उनका इन्तज़ार कर रहा था।  लेकिन इस बीच छक्कन क्यों हमारे पास चले आये, एक सवालिया निशान बन कर, कि ‘अब हम क्या करें भय्यन?’ जो शार्ट कट संस्कृति का मोहरा बन कर हथेली पर सरसों जमा लेने के दिवास्पप्न में उलझा था, वह कैसे लौट कर चला आया, हमसे अगला राह पूछने?
अरे पूछना ही है तो अपने इलाके के माफिया डॉनों से अगला रास्ता पूछो या उनके मसीहा सत्ता के राजकुंवरों से पूछो, जो पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता की कुर्सियों पर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं, और वंशवाद और परिवारवाद के विरुद्ध तेज़तर्रार भाषण करते थकते नहीं या फिर उनसे पूछ लो जो बदलाव के नाम पर वही यथास्थितिवाद का बासी सालन जनता जनार्दन को परोस देते हैं, और फिर अपने आपको क्रांति पुरुष कहते हुए थकते नहीं। 
अस्पतालों, स्कूलों से लेकर हर कल्याण योजनाओं में उनके नाम के टैंडर खुलते हैं। वे इसे अन्याय और शोषण के विरुद्ध अपने संघर्ष का झण्डा बुलन्द कर देने की कीमत कहते हैं। एक दिन अखबारों की सुर्खी बन अपने सिद्धांतों को हवा देते हैं, दूसरे दिन उन्हीं शोषकों और अन्यायियों के साथ गले मिल अपने रात्रि भोजन को सामूहिक भोजन बना देते नज़र आते हैं। मिल बांट कर पचा लेने से बड़ी जनसेवा कोई और है क्या? वे अंधेरे रास्तों को अपनी लालटेन दिखा उन्हें और भी अंधेरा कर देते हैं, लेकिन अंधेरे की इस दौड़ में हमारे छक्कन कैसे पीछे रह गये? जिस पाये का खेल उपलब्धियों की ऊपरी मंज़िल पर होता है, शायद उसमें शरीक होना छक्कन के बस की बात नहीं। अब लौट कर उनका ठिकाना अपनी राह पिछड़ी बस्ती में भी तो नहीं था। अब क्या करें भय्यन? वह हमसे पूछें या किसी और लद्दड़ से, किसी के पास कोई जवाब नहीं है। 
जवाब तो उन टूटी सड़कों के पास भी नहीं, जो आवागमन में कायाकल्प के नाम पर कभी बननी शुरू हो गई थीं, अब उनका अधूरापन बारिश और सावन के दिनों में कोई मल्हार राग नहीं छेड़ता, सर्कस नुमायश बने उस मौत के कुएं सा माहौल पेश करता है, कि जहां मोटरसाइकिल चलाने वाला असमय खेत रहता है, और दर्शकदीर्घा से झांकते लोग इस त्रासदी के कारण अपनी टिकट का पैसा वापस करने की मांग भी नहीं कर पाते।  यहां मुरम्मत को तरसती सड़कें हों या अचानक मौत की खदान हो जाने जैसे टूटे पुल। यहां पुराने सपनों ने पूरे न होने की कसम खा रखी है, और नित्य नये मंचों से उद्घोषित होने वाले सपने देर से सिसकते वंचितों प्रवंचितों की आंखों के आंसू पोंछ लेने का भ्रम पैदा करते हैं। 
भ्रम जीना ही यहां जीवन विकास है, और सफलता के आंकड़ों का ताज पहन लेना एक ऐसा इन्द्रजाल कि जो इस देश के साधारण से साधारण आदमी को भी अस्मिता के गौरव से भर देता है, लेकिन यहीं इस विकासशील देश में रंकों के राजा हो जाने का आभास है मित्र। एक बहुमूल्य आभास।