आत्म-प्रशंसा करते लाऊड स्पीकर

सरकारें चाहे वो केंद्र सरकार हो या राज्यों की सरकारें हों, अपनी उपलब्धियों का बखान करते नहीं थकतीं। प्रश्न उठता है कि वे ये सब किसको बतला रही हैं और क्यों बतला रही है? किसे जतला रही हैं और क्यों? सरकार की कोशिशों से जिन्हें लाभ हुआ है, उन्हें या जिन्हें लाभ नहीं हुआ है उन्हें? जिनको लाभ हुआ है क्या उनको नहीं पता चला कि सरकार ने क्या काम किया है? फिर चीख-चीखकर बतलाने की क्या ज़रूरत है?
आपने काम किया, अच्छी बात है। आपने ईमानदारी से काम किया और भी अच्छी बात है। इसीलिए तो आपको चुना गया था। पिछली सरकार ख़राब थी, भ्रष्ट थी तभी तो उसे नकार दिया गया था। अब बार-बार उसको कोसते रहने की क्या ज़रूरत है? क्या औचित्य हो सकता है पिछली या किसी भी ग़लत पार्टी को बार-बार ग़लत बतलाने का? आप प्राप्त ऊर्जा व संसाधनों का, जो जनता द्वारा आपको उपलब्ध करवाए गए हैं, जिन्हें कई लोग अपनी बपौती मान बैठे हैं, ग़लत कामों या व्यक्तियों की निंदा करने में क्यों अपव्यय कर रहे हैं? उसका आम जन के हित में सकारात्मक उपयोग क्यों नहीं करते?
आप जनता के धन से रैलियाँ करके न केवल सार्वजनिक धन का अपव्यय करते रहते हैं अपितु अव्यवस्था उत्पन्न करके आम जनजीवन को भी बुरी तरह से प्रभावित करते रहते हैं। सरकारी मशीनरी जो जनता की सेवा व सुविधा के लिए है क्यों उसका दुरुपयोग कर रहे हैं? आप छाती ठोक-ठोककर कहते हैं कि आपने ये किया, आपने वो किया। क्या आपने अपने घर से किया है? क्या मतदाताओं को भीख दी है जो इतना चीख-चीखकर बतला रहे हैं? इतना अहसान जतला रहे हैं? सत्ता आपके हाथों में है तो काम कोई और आकर करेगा क्या? आपने सचमुच जनता के लिए काम किया है अथवा अपनी पार्टी के लिए अथवा स्वयं के लिए, यह तो भविष्य बतलाएगा। यह तो उस दिन पता चलेगा जब आप सत्ता में नहीं होंगे। इस समय जबकि आप सत्ता पर क़ाबिज़ होने के कारण सक्षम व समर्थ हैं, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने की क्या ज़रूरत है?  यदि आपकी सरकार ने बहुत अच्छा किया है तो भाई उसे इसी काम के लिए चुना गया था। वैसे भी आपको ज़बरदस्ती पकड़कर कुर्सी पर नहीं बिठाया गया था। आप स्वयं जनता की सेवा करने को तत्पर व उद्यत ही नहीं थे, मरे जा रहे थे इसके लिए। अब सेवा करिए न। सेवा कर भी रहे हैं तो इतना बखान करने की क्या ज़रूरत आन पड़ी? सेवा की बीच में भी क़ीमत चाहिए क्या? यदि अपनी उपलब्धियों का बखान करने की इतनी आवश्यकता पड़ रही है तो कहीं  दाल में काला तो नहीं  है।
कौन नहीं जानता कि रैलियों में लोग आते नहीं, लाए जाते हैं? मज़ा तो तब है जब आपके काम का मूल्यांकन रैलियाँ नहीं, लोगों के चेहरों के भाव अथवा देश के नगरों व गाँवों के हालात बयाँ करें। रोज़ी-रोटी पाने और ज़िंदगी की सलामती के लिए लोगों का पलायन रुके। वास्तविकता पर आइए। अपने नैनों को आकर्षक बनाइए। उनमें सुरमा लगाकर लोगों को रिझाने की कोशिश बंद कीजिए। (युवराज)