कहीं सांकेतिक बन कर न रह जाये ट्विन टॉवर गिराने का फैसला

पिछले एक दशक से न्यायिक प्रक्रिया में फंसा नोएडा के सुपरटैक बिल्डर द्वारा गैर-कानूनी ढंग से बनाया गया ट्विन टॉवर 28 अगस्त को ज़मींदोज़ हो गया। कुतुब मीनार से बड़ी इस इमारत को ध्वस्त होने में कुल 12 सैकेंड का समय लगा, जिसके चश्मदीद बनने के लिए मीडिया तथा लोगों का समूह दूर-दराज इमारतों तथा स्थानों पर खड़ा था, क्योंकि देश के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी इमारत को कानूनी  अनियमितताओं  का अंजाम भुगतना पड़ रहा था। इमारतों तथा टी.वी.चैनलों द्वारा उन ऐतिहासिक पलों की गवाही भर रहे लोग तालियां बजा कर इस फैसले का स्वागत कर रहे थे। आम तौर पर सब्र का प्याला पीकर बैठी जनता इस फैसले को एक उदाहरण मान रही थी कि कानून तोड़ने वालों तथा अनियमितताएं करने वालों के लिए यह एक सबक के रूप में याद रखा जाएगा।
पलों के इस घटनाक्रम को पूरा करने के पीछे 18 वर्षों का अतीत है, जिसमें रसूखदारों की ताकत के अहं की झलक भी है तथा इस अहं को चुनौती देने वालों का लम्बा संघर्ष भी है। ट्विन टॉवर के बनने से लेकर ध्वस्त होने तक के स़फर से आम तौर पर ज्यादातर  लोग अवगत हैं। फिर भी इसके गुबार की परतों तक पहुंचने के लिए बहुत ही संक्षिप्त में इसकी चर्चा करते हैं। वर्ष 2004 में नोएडा प्रशासन ने सैक्टर-93 में एक हाऊसिंग सोसायटी बनाने हेतु सुपरटैक को प्लाट अलाट किया। 2005 में स्वीकृत हुए बिल्ंिडग ब्लाक में 10 मंज़िलों के 14 टॉवर बनाये जाने की इजाज़त मिली। 2006 में सुपरटैक के प्रस्ताव में परिवर्तन करके 24 मंज़िलों के जुड़वां टॉवर अर्थात ट्विन टॉवर योजना में शामिल कर लिए गये। ट्विन टॉवर वाला स्थान पहले ग्रीन एरिया के रूप में स्वीकृत किया गया था। अपैक्स तथा सियान नामक इन टॉवरों को बाद में 24 मंज़िल से बढ़ा कर 40 मंज़िला कर लिया गया।  दिसम्बर 2012 में एक्साइटिड हाऊसिंग सोसायटी के लोगों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में इन अवैध टावरों का मामला दर्ज करवाया, जिस पर न्यायालय ने निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया। उस समय तक 633 फ्लैट बुक हो चुके थे। अप्रैल 2014 में हाईकोर्ट ने टॉवर गिराने का आदेश दे दिया जिसके उपरांत आगामी 8 वर्ष तक मामला न्यायिक प्रक्रिया में उलझा रहा। अभिप्राय यह, कि मामला हाईकोर्ट से सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया परन्तु टॉवर गिराने का फैसला बरकरार रहा। अंतत: 28 अगस्त को न्यायिक फैसला क्रियान्वयन में आ गया।
नि:संदेह न्यायालय का यह फैसला एक कड़ा सन्देश देता है परन्तु टॉवरों को गिराने के बाद उठी बेपनाह धूल की भांति कुछ प्रश्न अभी भी फिज़ा में ठहरे हुये हैं।
पहला— क्या यह फैसला अनुसरणीय सिद्ध होगा? क्या कोई बिल्डर या कोई भी रसूखदार कानून का उल्लंघन करते समय सोचेगा  तथा कदम वापिस खींचेगा? या सिस्टम में पड़ चुकी दरारों के कारण वे पर्दे के पीछे से कोई और मार्ग तलाश कर लेंगे।
मुख्य समस्या यह है कि जब निर्भया कांड की तरह का कोई मामला उभरता है तो आगे चल कर सिर्फ कानून बनाने या वर्षों में एक फैसला सुनाने तक ही सीमित हो जाता है, जबकि मामला न्यायिक सिस्टम को सुधारने का है। मामला न्यायिक  प्रक्रिया में तेज़ी लाने तथा फैसलों में निरन्तरता लाने का है।
परन्तु व्यवहारिक तथ्य यह भी है कि इस पूरे सिस्टम, पूरे न्यायिक तंत्र पर जो आशाएं लगाई जाती हैं, उन्हें पूरा करने के लिए साधनों की कमी ही उन आशाओं को धूल-धूसरित करने में काफी होती है। न्यायालयों की कमी, जजों की नियुक्ति में देरी, बकाया मामलों की लम्बी सूची आदि अर्थात् सिर्फ न्यायिक तंत्र तथा सिस्टम को दोष देने से ही सरकारें अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकतीं। सभी किनारे इकट्ठे पकड़ कर चलना पड़ेगा, ताकि व्यवस्था में व्यापक सुधार किये जा सकें तथा उनका प्रभाव भी दिखाई दे अन्यथा ऐसे कड़े फैसले भी सांकेतिक फैसले बन कर रह जाएंगे।
दूसरा— इमारत गिराने का अदालत का यह फैसला प्रतिक्रिया अर्थात् ह्म्द्गड्डष्ह्लद्बशठ्ठड्डह्म्4 फैसला है जोकि किसी कार्रवाई के होने के उपरांत लिया जाता है। परन्तु प्रतिक्रियात्मक फैसले की कीमत की जांच करें तो बिल्डर द्वारा किये दावों के अनुसार उसे 500 करोड़ रुपया नुकसान हुआ है। टॉवर को ध्वस्त करने पर 20 करोड़ का खर्च हुआ है। इसमें लगभग 3700 किलो विस्फोटक सामग्री का उपयोग किया गया। इस 20 करोड़ की लागत में से 5 करोड़ रुपये सुपरटैक से तथा 15 करोड़ रुपये मलबा बेच कर इकट्ठा किये जाएंगे। टॉवरों को गिराने में आस-पास की इमारतों को भी कुछ नुकसान हुआ है, जिसकी पूर्ति करना भी इस न्यायिक फैसले की लागत में शामिल है।
करोड़ों की यह क्षति क्या राष्ट्रीय पूंजी का नुक्सान नहीं है? क्या प्रतिक्रियात्मक फैसले के स्थान पर निवारण अर्थात क्कह्म्द्ग1द्गठ्ठह्लड्डद्य फैसले समय की ज़रूरत नहीं हैं ताकि समय व्यतीत हो जाने के स्थान पर समय रहते आवश्यक पग उठाये जा सकें।
तीसरा—सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्डर तथा नोएडा प्रशासन के इस कथित गठबंधन को लेकर गहन नाराज़गी व्यक्त की है, परन्तु उनके विरुद्ध किसी भी एजेन्सी द्वारा अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई। प्रदेश सरकार ने 26 सरकारी अधिकारियों पर कार्रवाई के निर्देश दिये हैं जबकि नोएडा फायर विभाग के 3 अधिकारियों के नाम एफ.आई.आर. में भी दर्ज किये गये हैं। टॉवर के निर्माण के समय ये अधिकारी नोएडा विकास अथारिटी के किसी न किसी पद पर तैनात थे। इनमें ज्यादातर अधिकारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं।
इनमें से कोई भी अधिकारी—सुपरटैक, नोएडा अथारिटी तथा फायर विभाग से संबंधित, जेल में नहीं है। इन अनियमितताओं हेतु सिर्फ बिल्डर को ही दोषी करार नहीं दिया जा सकता। इसके लिए प्रशासनिक अधिकारी भी एक समान रूप से ज़िम्मेदार हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक इस फैसले को 9 वर्ष का समय लगा है। आगे दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई करने में कितना समय लगेगा, यह भी देखने वाली बात है?
चौथा—क्या टॉवर गिराना ही एकमात्र विकल्प था? कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि टॉवरों को मलबे में बदलने के स्थान पर बिल्डर से लेकर इसका उपयोग सरकारी या फिर किसी अन्य कार्य हेतु किया जा सकता था, ताकि निर्माण  कार्य में लगी राशि को मिट्टी में मिलने से बचाया जा सकता।
पांचवां- ट्विन टॉवरों के मलबे में परिवर्तित की क्षति वास्तव में कौन भरेगा? 
फैसले के अनुसार प्रथम दृष्टि में यह आघात बिल्डर तथा उसकी कथित अनियमितताओं पर है, परन्तु इस फैसले के आने तक उठाये गये अन्य पगों के प्रभाव को कुछ गहनता से देखें तो पता चलता है कि इस समय बिल्डर अर्थात् सुपरटैक ष्टशह्म्श्चशह्म्ड्डह्लद्ग ढ्ढठ्ठह्यशद्य1द्गठ्ठह्म्4 क्त्रद्गह्यशद्यह्वह्लद्बशठ्ठ क्कह्म्शष्द्गह्यह्य  अर्थात् दीवालिया होने की प्रक्रिया में है।
दीवालिया होने की क्रिया के तहत सुपरटैक की सभी सम्पत्तियों की जांच की जाएगी तथा निपटारे हेतु जितनी राशि उपलब्ध होगी, उसका प्रभाव भी लेनदारों अर्थात बैंकों तथा ग्राहकों पर ही पड़ेगा।  बिल्डर द्वारा यह मामला पहले ही नैशनल कम्पनी लॉ ट्रिब्यूनल (एन.सी.एल.टी.) के पास पहुंचाया जा चुका है। एन.सी.एल.टी. द्वारा एक अंतरिम निपटारा अधिकारी भी नियुक्त किया गया है जो कम्पनी के वित्तीय लेखा-जोखा की समीक्षा करेगा। इस क्रिया के  ज्यादातर मामलों में बैंकों द्वारा अदा की गई राशि पूरी वापिस मिलने की सम्भावना कम ही होती है। जब कोई कम्पनी दीवालिया घोषित की जाती है, तब ग्राहक या बैंक को ही नुकसान सहन करना पड़ता है।
अंत में विशेषज्ञों के अनुसार ट्विन टॉवरों के ज़मींदोज़ होने के बाद मलबे के निपटारे में भी कम से कम 3 महीने का समय लगेगा, परन्तु ़िफज़ा में ठहरे इन प्रश्नों का मलबा कब तक साफ होगा, यह अभी आगामी समय ही बताएगा।