हिन्दी के बढ़ते वैश्विक प्रभाव में निरन्तर होती वृद्धि 

हिन्दी एक ऐसी भाषा है, जिसके सामने संघर्ष के दरवाजे न कभी बंद थे और न आज बंद हैं। फिर भी यह स्वत:स्फूर्त्त भाव से निरंतर प्रगतिमान है। वास्तव में भाषा कोई भी हो, केवल  विचार विनिमय का माध्यम नहीं होती। वह अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक चेतना की संरक्षक और संवाहक होती है। इसमें  लोगों के सपने पलते हैं। इस तथ्य को भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध  में विधिवत  पहचान लिया था। इसीलिए वह अपनी  ‘निज भाषा’ शीर्षक कविता में कहते है: 
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय के सूल।
उनका आशय यह था कि अंग्रेज़ी पढ़ के सभा-संगोष्ठी और रोजी-रोजगार के स्तर पर हम सफल हो सकते हैंए लेकिन आत्मविश्वास, आत्मविकास और आत्मोत्कर्ष के धरातल पर कमजोर रह जाएंगे। भाषा ज्ञान का माध्यम है। पराये माध्यम से हमारा मानस कितना मजबूत  बन  सकता है। पराधीनता से मुक्त होने वाले देशों ने इसीलिए अपनी भाषा के लिए प्राण प्रण से संघर्ष किया। अपने देश में तो और भी जटिल स्थिति थी। यहां राज-भाषा की राह में हिन्दी के मुकाबले में उर्दू एक तरह से बढ़त की स्थिति में थी। इसलिए महात्मा गांधी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, सेठ गोविंददास, पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी जैसे हिन्दी सेवियों को इसे राजभाषा के दरवाजे तक पहुँचने में कड़ी मेहनत करनी पड़ी।
अंतत: संविधान सभा में यह बात मानी गई कि आजादी की लड़ाई के दिनों में ‘हिन्दी’ ही वह भाषा थी, जो पूरे देश के अन्दर स्वतंत्रता सेनानियों के बीच संपर्क का सेतु बनी थी।  अस्तु 14 सितम्बर.1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को भारतीय गणराज्य के कामकाज की राजभाषा घोषित किया था। इतिहास में झाँकने पर हम पाते हैं कि संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव तमिलभाषी गोपाल स्वामी अयंगर ने रखा था। इसका समर्थन और अनुमोदन करने वालों में मराठी भाषी शंकरराव देव, तेलुगू भाषी दुर्गावती, उर्दू भाषी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, गुजराती भाषी के.एम. मुंशी और कन्नड़ भाषी कृष्णमूर्ति थे। इनका समेकित मत था कि राष्ट्रीय एकता और विकास का आधार हिन्दी ही हो सकती है।
हिन्दी राजभाषा बन तो गई, लेकिन कहा गया कि हिन्दी में  अभी प्रशासनिक, वैज्ञानिक, तकनीकी एवं विधि सम्बन्धी शब्दावली का अभाव है। साथ ही अहिंदी भाषी क्षेत्र के कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच इसका जनाधार कमजोर है इसलिए तत्काल हिन्दी नहीं लागू की जा सकती है। ऐसी स्थिति में हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी सरकारी कामकाज की भाषा बनी रही। आगे चलकर कुछ नकारात्मक राजनीतिक कारक भी उभरने लगे, विशेषकर अहिंदी भाषी क्षेत्र के राजनेता एवं स्थानीय राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता वहाँ के लोगों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए हिन्दी विरोध को एक भावात्मक हथियार के रूप में अपनाने लगे। जबकि यही राजनेता अपने बच्चों को उन स्कूलों में पढ़ाते हैं, जहां हिन्दी भी सीखने की व्यवस्था होती है। क्षेत्रीय विरोध के कारण केन्द्रीय सत्ता भी खुलकर हिन्दी की पक्षधरता का प्रदर्शन नहीं कर पाती।
इसके बाद भी हिन्दी की विकास यात्रा गतिमान है। आज स्थिति यह है कि प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, विधि, पुरातत्व, वाणिज्य, प्रशासन जैसे किसी भी क्षेत्र और विषय की तकनीकी शब्दावली की हिन्दी में कमी नहीं है। प्रतियोगी परीक्षा हो, या फिर शोध, न्यायालय, संसद और प्रशासन—तकनीकी रूप से सब जगह हिन्दी के लिए दरवाजे खुल चुके हैं मगर इसके बाद भी अभी हिन्दी की राह में बड़ी रुकावटें हैं। मोरारजी देसाई की ‘जनता पार्टी’ की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे। तब संयुक्त राष्ट्र संघ में उन्होंने अपना भाषण पहली बार हिन्दी में दिया था।  इसकी खूब प्रसंशा हुई थी। बाद में सांसदों ने इसके लिए उनको बधाई दी थी। वाजपेयी जी ने कटाक्ष किया था, ‘आपकी बधाई मुझे तब स्वीकार्य होगी जब आप संसद में अपना भाषण हिन्दी में देंगे।’   
यह कटाक्ष दोहरी मानसिकता पर था। अभी सैद्धान्तिक रूप में भले ही हिन्दी के लिए कोई दरवाज़ा न बंद हो, मगर व्यावहारिक स्तर पर उच्च व उच्चतम न्यायालय, अंतरिक्ष विज्ञान, प्रौद्योगिकी संस्थान, प्रबंधन शैक्षणिक संस्थान, शोध संस्थान और संसद से लेकर बड़े-बड़े सेमीनार में अंग्रेज़ी का दबदबा है। यहां तक कि हिन्दी बोलने वाला इन स्थानों पर स्वयं झेंप महसूस करने लगता है यानि हिन्दी अपने ही घर में पिट रही है। सन 2014 के बाद माननीय नरेंद्र मोदी जी की सरकार ने वैश्विक स्तर पर हिन्दी को पहचान दिलाने का काफी प्रयास किया है। परिणाम स्वरूप अभी 10 जून, 2022 को हिन्दी, बांग्ला, उर्दू भी पुर्तगाली, फारसी और स्वाहिली के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ की कामकाज की आधिकारिक भाषा के रूप में चुनी गई हैं। कुछ दिन पहले संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबूधाबी में भी वहां की सरकार ने अरबी और अंग्रेज़ी के साथ ही हिन्दी को भी अपने यहां की आधिकारिक अदालती भाषा के रूप में शामिल किया है। विदेश में 150 मान्य विश्वविद्यालयों के अलावा सैकड़ों स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में शोध स्तर तक हिन्दी के पठन-पाठन की   व्यवस्था है। 
हिन्दी भाषा का निरन्तर बढ़ता जनाधार भी इसका दबदबा बनाने में सहयोगी सिद्ध हो रहा है। सन 1991 की जनगणना में हिन्दी को अपनी मातृ भाषा बताने वालों की संख्या 33 करोड़ 72 लाख 72 हजार 114 थी, जबकि अंग्रेज़ी भाषी 33 करोड़ 70 लाख थे। इस प्रकार हिन्दी बोलने वाले अंग्रेजी भाषियों से अधिक थे। तब हिन्दी भाषियों की सख्या विश्व में दूसरे स्थान पर बताई गई थी। सन 2011 की जनगणना में देश की जनसंख्या 1.21 अरब थी। इनमें सर्वाधिक 41.03 प्रतिशत हिन्दी भाषी हैं। इस प्रकार इस भाषा समुदाय की संख्या 49 करोड़, 64 लाख, 63 हजार बनती है। इसके आधार पर कुछ विद्वान इसे चीन की मंदारिन से भी सघन जनाधार वाली भाषा मानते हुए हिन्दी को विश्व की  प्रथम भाषा घोषित करते हैं। आज की तारीख में डेढ़ करोड़ से अधिक भारतीय अन्य देशों में कार्यरत हैं । ये वे लोग हैं, जो देश के अन्दर क्षेत्र, सम्प्रदाय और भाषा के स्तर पर भले ही बंटे  रहते हैं मगर विदेश में जाकर वहाँ की चमक-दमक के पीछे छिपी वास्तविकता को देखने  और अकेले पड़ने की आशंका के बाद उनको भारतीयता, भारतीय संस्कृति और देश की राजभाषा हिन्दी पर बड़ा भरोसा बन जाता है।
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