घृणा टिप्पणियों को रोकने हेतु सुप्रीम कोर्ट हुआ सख्त...!

हेट स्पीच ज़हर की तरह है जो देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को भारी नुकसान पहुंचा रही है और राजनीतिक पार्टियां सामाजिक सौहार्द की कीमत पर इससे चुनावी लाभ उठाने का प्रयास कर रही हैं। इस तथ्य का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 21 सितम्बर को कहा कि ऐसे दोषियों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही होनी चाहिए और साथ ही केंद्र से मालूम किया कि विधि आयोग की सिफारिशों के तहत क्या वह इस खतरे पर विराम लगाने के लिए कानून गठित करने पर विचार कर रहा है क्योंकि वर्तमान व्यवस्था अर्थपूर्ण अंदाज़ में इस प्रकार की घटनाओं को रोकने के लिए अपर्याप्त है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि टीवी पर नफरत प्रसारित नहीं की जा सकती। अदालत ने यह भी संकेत दिया कि अगर सरकार ने इस संदर्भ में जल्द कुछ नहीं किया तो वह स्वयं खालीपन को भरने के लिए आदेश पारित करेगी और विशाखा केस की तरह दिशा-निर्देश फ्रेम करेगी। गौरतलब है कि विशाखा केस में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी किये थे।
न्यायाधीश के.एम. जोसफ  व न्यायाधीश ऋषिकेश रॉय की खंडपीठ टीवी चैनलों व उनके एंकरों से विशेष रूप से नाराज़ दिखायी दी कि वे अपने कार्यक्रमों में व प्लेटफॉर्म्स पर दूसरों को नफरत फैलाने का अवसर प्रदान करते हैं। अदालत के अनुसार जो लोग ऐसी हरकतें कर रहे हैं उनके विरुद्ध सख्त कार्यवाही होनी चाहिए और उन्हें ऑफ  एयर कर देना चाहिए ताकि यह संदेश सब तक पहुंच जाये कि टीआरपी के लिए नफरत का प्रयोग नहीं किया जा सकता। अदालत ने केंद्र से भी कहा कि वह ‘मूक दर्शक’ न बना रहे और इसे ‘मामूली मसले’ की तरह न ले बल्कि समस्या के समाधान में पहल करे।  
सवाल यह है कि क्या सरकार इस संदर्भ में पहल करेगी? दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का एक सार्वजनिक बयान वायरल है,जिसमें उन्होंने यह गंभीर आरोप लगाया है कि पीएमओ के एक मीडिया सलाहकार (जिसका उन्होंने नाम भी लिया है) टीवी के ‘बड़े बड़े सम्पादकों’ को एक खास दिशा में कार्यक्रम प्रसारित करने का ‘आदेश’ देते हैं और ऐसा न करने पर उन्हें ‘गालियां व धमकियां’ देते हैं। केजरीवाल का यह आरोप राजनीति से प्रेरित हो सकता है, लेकिन आश्चर्य यह है कि अभी तक किसी मीडिया हाउस ने इसका खंडन नहीं किया है। बहरहाल, अगर इस आरोप में तनिक भी सच्चाई है तो फिर बेलगाम हो चुके अधिकतर टीवी चैनलों व उनके एंकरों को नियंत्रित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को ही विशाखा केस की तरह दिशानिर्देश जारी करने होंगे।
दरअसल, टीवी पर नफरत प्रसारित करने से भी अधिक चिंताजनक है टीवी पत्रकारिता का विश्वसनीय न रह जाना। आपको जानकर हैरानी होगी कि बड़ी संख्या में लोगों ने टीवी पर न्यूज़ व डिबेट कार्यक्रम देखने बंद कर दिए हैं। ऐसा अकारण नहीं हुआ है। एक, टीवी पर खबरें दिखायी कम और छुपायी ज्यादा जाने लगी हैं। दो, एजेंडा व प्रोपेगंडा पर अधिक बल दिया जाने लगा है। तीन, फेक व झूठ को बिना क्रॉस चेक किये प्रसारित कर दिया जाता है और फैक्ट चेक सामने आने पर बाद में लापरवाही के अंदाज़ में माफी मांग ली जाती है, जिसकी अक्सर ज़रूरत भी नहीं समझी जाती है। चार, अपराध की खबरों को अनावश्यक साम्प्रदायिक रंग दिया जाता है। अंतिम यह कि अपने एजेंडा को बल देने के लिए डिबेट में गैर-जानकर लोगों को आमंत्रित किया जाता है और भूले भटके अगर कोई जानकर व्यक्ति आ भी जाये तो उसे बोलने का अवसर ही नहीं दिया जाता।
 तथ्य यह है कि आज टीवी के कारण पत्रकारिता की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई है। लोगों ने पत्रकारों व उनकी खबरों पर विश्वास करना बंद कर दिया है और जो वास्तव में ईमानदार, निष्पक्ष व पढ़े लिखे पत्रकार (जिनमें से अधिकतर का संबंध प्रिंट मीडिया से है) बचे हैं, उन्हें अब खुद को पत्रकार कहने पर शर्म आने लगी है। यह स्थिति न लोकतंत्र के लिए बेहतर है और न ही देश के लिए क्योंकि जिम्मेदाराना पत्रकारिता ही चौथे स्तम्भ के रूप में लोकतंत्र में चेक एंड बैलेंस का काम कर सकती है वरन् सरकारों को निरंकुश व तानाशाह होने में देर नहीं लगती है, जिसका खमियाजा देश को ही भुगतना पड़ता है। इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट का स्वत:अवलोकन महत्वपूर्ण हो जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोगों को यह समझने की आवश्यकता है कि कोई धर्म नफरत की शिक्षा नहीं देता है और यह देश हर किसी का है जिसमें नफरत के लिए कोई स्थान नहीं है। अदालत का मानना है कि वर्तमान कानून में हेट स्पीच को परिभाषित नहीं किया गया है और इस पर विराम लगाने के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है। इसलिए पुलिस को आईपीसी धारा 153(अ) व 295 का सहारा लेना पड़ता है, जिनका संबंध समुदायों में असंतोष फैलाने व भड़काने से है, ज़ाहिर है ये धाराएं हेट स्पीच को नियंत्रित करने के लिए अपर्याप्त हैं, हालांकि ये मांग तेज़ी से बढ़ती जा रही है कि कानून में एंटी-हेट स्पीच के लिए विशेष प्रावधान हों, लेकिन हेट स्पीच को परिभाषित करना आसान काम नहीं और इसमें यह खतरा भी है कि इसके बहाने अधिकारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही खत्म करने का प्रयास न करने लगें। विधि आयोग ने आईपीसी में धारा 153(सी) शामिल करने की सिफारिश की थी, जिसके तहत धर्म, नस्ल, जाति या समुदाय, लिंग, जेंडर आइडेंटिटी, यौन झुकाव, जन्म स्थान, निवास, भाषा, अपंगता आदि के संदर्भ में अगर अति धमकी भरे शब्दों (चाहे बोले या लिखे गये हों) या नफरत का समर्थन किया जाता है तो वह दंडनीय अपराध होगा, जिसमें दो वर्ष तक की कैद व 5000 रुपये तक का जुर्माना किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट में इस विषय पर बहस शुरू होते ही खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं से मालूम किया कि हेट स्पीच से आख़िरकार लाभ किसे होता है? जवाब मिला—राजनीतिज्ञों को। खंडपीठ ने कहा, ‘यह सत्य है। राजनीतिक पार्टियां इससे लाभ उठा रही हैं। न्यूज़ चैनलों में एंकर की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। हेट स्पीच या तो मुख्यधारा के टेलीविज़न में प्रसारित की जाती है या सोशल मीडिया में। सोशल मीडिया मोटे तौरपर अनरेगुलेटेड है। जहां तक मुख्यधारा के टेलाविज़न चैनलों की बात है, यह एंकर की ज़िम्मेदारी है कि हेट स्पीच को रोके और संबंधित व्यक्ति को आगे बोलने न दे।’ अदालत ने कहा कि लोगों को हमेशा याद रखना चाहिए कि जिन्हें टारगेट किया जा रहा है, वे भी इस देश के नागरिक हैं। प्रेस जैसी संस्थाओं को संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर