गरीब कल्याण अन्न योजना की अवधि बढ़ाए जाने के सरोकार

केद्र सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना की अवधि तीन महीने और बढ़ाकर पेट की भूख से जूझ
रहे लोगों को राहत दी है। मार्च 2020 से चल रही इस योजना के अंतर्गत गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर
रहे परिवारों को प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज हर महीने निशुल्क दिया जाता है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून
के अंतर्गत आने वाले लगभग अस्सी करोड़ लोग इस योजना से लाभ पाते हैं। कोरोना महामारी के दौरान जब
काम-धंधे पूरी तरह बंद हो गए थे, तब रोज़ कुआं खोदकर प्यास बुझाने वाले लोगों के लिए भोजन का संकट
गहरा गया था। अतएव भारत सरकार ने गरीबों को राहत पहुंचाने की दृष्टि से पूर्व से मिल रहे सस्ते अनाज के
अतिरिक्ति पांच किलो मुफ्त अनाज देने की व्यवस्था तीन महीने के लिए शुरू की थी।
 उम्मीद थी कि तीन माह बाद कोरोना का प्रकोप खत्म हो जाएगा। लेकिन इसका सुरसा-मुख लम्बे समय तक
खुला रहा। इसलिए इस अवधि को क्रमश: बढ़ाया जाता रहा। यह अवधि 30 सितम्बर को खत्म हो गई थी।
हालांकि इस दौरान तालाबंदी पूरी तरह खोल दी गई है। नतीजतन शहरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्थाएं पटरी पर
लौटने लगी हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने का काम धार्मिक पर्यटन ने पूरे देश में कर दिया है। ऐसे में
अन्न योजना अनिश्चित आय वाले लोगों के लिए सोने पर सुहागा जैसी है। 
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पूरे देश में लागू है। इस कानून के तहत देश भर के 80 करोड़ लोगों को 2 रुपये
किलो गेहूं और 3 रुपये किलो चावल मिलते हैं। गरीबों को मिले इस सस्ते अनाज के अधिकार को इस कानून
का उज्जवल पक्ष माना जाता है लेकिन इतनी बड़ी संख्या में देश के लोग भूखे हैं, तो यह चिंता का विषय है
कि आज़ादी के अमृत महोत्सव में भी यह भूख क्यों बनी हुई है। अतएव संदेह होना लाज़िमी है कि नीतियां
कुछ ऐसी ज़रूर हैं जो बड़ी संख्या में लोगों को रोटी के हक से वंचित बनाए रखने का काम कर रही हैं। पूंजी
और संसाधनों पर अधिकार आबादी के चंद लोगों की मुट्ठी में सिमटता जा रहा है। इस लिहाज से भूख की
समस्या का यह हल सम्मानजनक व स्थायी नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में अब देश के नीति-नियंताओं की कोशिशें
ये होनी चाहिएं कि लोग श्रम से आजीविका कमाने के उपायों से खुद जुड़ें और आगे भूख सूचकांक का जब भी
नया सर्वेक्षण आए, तो उसमें भूखों की संख्या घटती दिखे।
 खाद्य सुरक्षा के तहत करीब 67 फीसदी आबादी मसलन करीब 80 करोड़ लोगों को रियायती दर पर अनाज
दिया जा रहा है। इसके दायरे में शहरों में रहने वाले 50 प्रतिशत और गांवों में रहने वाले 75 फीसदी लोग आते
हैं। इस कल्याणकारी योजना पर 1 लाख 40 हज़ार करोड़ रुपये का खर्च सब्सिडी के रूप में दिया जाता है।
लोगों तक इस अनाज को पहुंचाने के लिए पीडीएस की 1,61,854 दुकानों पर ईपीओएस मशीनें लगाई गई हैं
जिनसे अनाज का तौल सही हो। सही लोगों को इसका लाभ मिले। इसके लिए राशन कार्डों को आधार नंबर से
भी जोड़ा गया है। बावजूद पूरे देश में यह वितरण प्रणाली संदिग्ध बनी हुई है। 
निशुल्क अनाज योजना के अंतर्गत एक हज़ार लाख टन से अधिक अनाज प्रतिमाह बांटा जा रहा है। अब तक
इस योजना पर 3.40 लाख करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। इसलिए  पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री और
उद्योगपति इस अनाज को मुफ्त बांटने का विरोध कर रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन की भी यही मंशा है।
हालांकि भारत सरकार केवल गरीबों को अनाज में सब्सिडी देती हो, ऐसा नहीं है। उद्योगपतियों के भी हजारों
करोड़ के कर हर साल माफ  कर दिए जाते हैं। सरकारी कर्मचारियों और निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के न केवल
वेतन बढ़ा दिए जाते हैं, बल्कि सुविधाएं भी बढ़ा दी जाती हैं। इसलिए वंचितों को राहत देना आवश्यक है।  
दरअसल किसी भी देश के राष्ट्रप्रमुख की प्रतिबद्धता विश्व व्यापार से कहीं ज्यादा देश के गरीब व वंचित तबकों
की खाद्य सुरक्षा के प्रति होती है। लिहाजा जेनेवा में 2014 में आयोजित हुए 160 सदस्यों वाले विश्व व्यापार
संगठन के सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने समुचित व्यापार अनुबंध (टे्रड फैलिसिटेशन एग्रीमेंट) पर हस्ताक्षर करने
से मना कर दिया था। इस करार की सबसे महत्वपूर्ण शर्त थी कि संगठन का कोई भी सदस्य देश, अपने देश
में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के मूल्य का 10 फीसदी से ज्यादा अनुदान खाद्य सुरक्षा पर नहीं दे सकता।
जबकि भारत के साथ विडम्बना है कि खाद्य सुरक्षा कानून और मुफ्त अन्न योजना के तहत देश की 67
फीसदी आबादी खाद्य सुरक्षा के दायरे में है। इसके लिए बतौर सब्सिडी जिस धनराशि की जरूरत पड़ती है, वह
सकल फसल उत्पाद मूल्य के 10 फीसदी से कहीं ज्यादा बैठती है। इस लिहाज से मोदी ने करार पर हस्ताक्षर
नहीं करके यह मंशा जता दी थी कि उनकी सरकार गरीबों के हक में है। इस कानून में गरीब, गर्भवती
महिलाआें और स्तनपान कराने वाली माताओं तथा बच्चों के लिए अलग से पौष्टिक आहार की व्यवस्था भी
है।
 सरकार को सबसे बड़ी चुनौती अनाज की खरीद और उसके उचित भण्डारण की रहती है। अनाज ज्यादा खरीदा
जाएगा तो उसके भण्डारण की अतिरिक्त व्यवस्था को अंजाम देना होता है, जो नहीं हो पा रहा है। उचित
व्यवस्था की कमी के चलते गोदामों में लाखों टन अनाज हर साल खराब हो जाता है। यह अनाज इतनी बड़ी
मात्रा में होता है कि एक साल तक 2 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन कराया जा सकता है। 
अनाज की यह बर्बादी भण्डारों की कमी की बजाय अनाज भण्डारण में बरती जा रही लापरवाहियों के चलते कहीं
ज्यादा होती है। देश में किसानों की मेहनत और जैविक व पारम्परिक खेती को बढ़ावा देने के उपायों के चलते
कृषि पैदावार लगातार बढ़ रही है। अब तक हरियाणा और पंजाब ही गेहूं उत्पादन में अग्रणी प्रदेश माने जाते थे,
लेकिन अब मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी गेहूं की रिकार्ड पैदावार हो रही है। इसमें धान,
गेहूं, मक्का, ज्वार, दालें और मोटे अनाज व तिलहन भी शामिल हैं। 2021-22 में 29 करोड़ टन अनाज की
पैदावार हुई है। 
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