वेतन और रुतबा नहीं, मानसिक स्वास्थ्य देता है खुशी  विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर विशेष

दरअसल आज की तेज रफ्तार ज़िन्दगी और हर दिन पहले से बढ़े टारगेट के कारण हर तीसरा कामकाजी शख्स मानसिक रूप से बीमार है। इसमें उनकी तादाद तो ज्यादा है ही, जो परेशानियों से घिरे हैं, खासकर कोरोना महामारी के चलते नौकरी छूट जाने या कमाई कम हो जाने के कारण। लेकिन अच्छा वेतन और कार्यस्थल तथा समाज में रुतबा भी मानसिक रूप से सेहतमंद होने की गारंटी नहीं है। अच्छा-खासा वेतन मिलता है और कार्यस्थल पर भी  महत्वपूर्ण पोस्ट है लेकिन मन सही नहीं रहता। बहुत लोग समझ नहीं पा रहे कि परेशानी क्या है? डॉक्टर इसे बहुत आम मानसिक बीमारी मानते हैं लेकिन मानसिक स्वास्थ्य को लेकर यह अकेली समस्या नहीं है। दर्जनों किस्म के सिमटम्स हैं जो मानसिक रूप से अस्वस्थ साबित करते हैं। मसलन मन में कोई बात घुन की तरह खाती रहती है किन्तु पता नहीं चलता वह क्या है। शायद इसकी एक बड़ी वजह यह है कि कहने और देखने, सुनने के लिए तो इस सोशल मीडिया के दौर में हमारे सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों लोगों से आभासी संबंध हैं। सिर्फ अपने इर्द-गिर्द के लोगों से ही नहीं, देश-विदेश के लोगों से भी हम इंट्रैक्ट करते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि सोशल मीडिया ने हमें पहले के मुकाबले कहीं और ज्यादा अलग-थलग कर दिया है। वास्तविकता यह है कि पिछले दो दशकों में जब से सोशल मीडिया हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ है, लोगों के आपस में बहुत कम संबंध रह गये हैं। हद तो यह है कि हम लोग अब त्यौहारों में भी आभासी तरीके से ही एक दूसरे से मिलते जुलते हैं। इस लाईफ स्टाइल ने हमारे मानसिक स्वास्थ्य को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है। 
सोशल मीडिया के इस कोढ़ में हाल की कोरोना तालाबंदी आत्मघाती खाज जैसी साबित हुई है। यह अकारण नहीं है कि अमरीका की साईकेट्रिक एसोसिएशन ने दावा किया है कि कोरोना के बाद अमरीका में 20 फीसदी मानसिक रोगी बढ़ गये हैं। हिंदुस्तान में हालांकि इस तरह का कोई डाटा सरकार की तरफ से या किसी एजेंसी की तरफ  से नहीं आया। हम दिन रात अपने इर्दगिर्द इस बात को बहुत अच्छी तरह से देख और सुन भी रहे हैं कि लोग किस तरह से कोरोना के बाद परेशान हैं। यह परेशानी सिर्फ कामकाज तक ही सीमित नहीं है। इसकी चपेट में हमारा मानसिक स्वास्थ्य भी है। इसकी दस्तक हमें हर दिन अखबारों और टीवी चैनलों पर बढ़ रहे अपराधों और पागलपन की घटनाओं से भी मिलती है। निजी स्तर पर हाल के दिनों में कई मनोचिकित्सकों ने  आंशका जतायी है कि कोरोना के बाद देश में 10 से 15 फीसदी मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ गई है। सवाल है हम अगर पारिवारिक और सामाजिक जकड़बंदी के चलते खुद को मानसिक रोगी कहलाने से बचना चाहते हैं, तो भी यह कैसे जानें कि हम किसी मानसिक रोग की गिरफ्त में तो नहीं? इस पर बहुत से मनोचिकित्सकों ने कुछ सिमटम्स बताये हैं जिनके मुताबिक यदि बिना किसी ठोस वजह के बार बार हम अनदेखी बातों और समस्याओं को लेकर घबराहट महसूस करें, बिना किसी कारण के उदास रहें और किसी वजह के बिना भी डरे डरे से रहें, तो हमें मान लेना चाहिए कि कोई न कोई मानसिक समस्या है। 
मानसिक बीमारियों और परेशानियों के लिहाज से यह सबसे खतरनाक समय है। इसलिए मनोविद कहते हैं कि जरा भी असहज स्थिति लगे और उसका शारीरिक परेशानी से रिश्ता समझ में न आए तो किसी मनोचिकित्सक से मिल लेना चाहिए। अपने आप या गूगल ज्ञान के चलते दवाइयां नहीं लेना चाहिए और सबसे बड़ी बात यह कि अपनी इन परेशानियों को परिवारजनों से छुपाना नहीं चाहिए, नहीं तो हम न चाहते हुए भी इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर