हिन्दी भाषा के साथ क्षेत्रीय भाषाओं को समन्वयक होने की आवश्यकता 

भारत भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं भाषाई विविधता वाला देश है। अनेकताओं के होने के बावजूद भारत की एकता एवं अखंडता विश्व के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करती है। इन्हीं विभिन्नताओं में भाषाई विविधता भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है। भाषाई विभिन्नताओं तथा विविधता के कारण भारत भाषाओं को लेकर भी काफी समृद्ध रहा है। भारत की यही भाषाई विविधता तथा विभिन्नता वैश्विक स्तर पर भारत की एक विशिष्ट छवि निर्मित करती है। पूर्व काल से ही देश-विदेश के भाषा प्रेमी भारत में आकर अनेक भाषाओं को सीखकर विद्वत्ता से लाभान्वित हुए हैं। जैसे प्राचीन काल में चीनी यात्री ह्वेन सांग व फाह्यान आदि भारत आकर भारत की विविध भाषाओं का लाभ प्राप्त कर चुके हैं। भारत में भाषाएं क्षेत्रीय और अलग-अलग प्रकार की हैं जैसे तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम और इंडो चाइना परिवार से संबंधित भाषाओं में मणिपुरी, बोडो, गारो,खासी, लेपचा आदि शामिल हैं। उत्तर भारत में पंजाबी, राजस्थानी, भोजपुरी, हरियाणवी आदि क्षेत्रीय भाषाओं में सम्मिलित हैं। प्राचीन भारत में ऋ ग्वैदिक काल में संस्कृत भाषा भी मुख्य भाषा के रूप में मानी गई है।
भारत में स्वतंत्रता काल में अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष करने में भाषाई विविधता ने बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया परन्तु स्वतंत्रता के बाद भाषा के आधार पर पृथक राज्यों के निर्माण की मांग भी समय-समय पर तीव्रता से उठती रही है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न भाषाएं न सिर्फ  लाभ देती हैं अपितु चुनौतियां भी पेश करती हैं। भाषाई आधार पर राज्य निर्माण की मांग एवं हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने पर दक्षिण भारत तथा उत्तर पूर्वी राज्यों में विरोध उत्पन्न हुआ था। इसके अलावा उनकी अपनी स्थानीय भाषाओं जैसे राजस्थानी, मैथिली, डोंगरी आदि को भारतीय संविधान की आठवीं सूची में शामिल किया जाए, यह मांग लगातार उठती रही है। ऐसी भाषाई विविधता एवं विभिन्नता को लेकर यह सवाल समक्ष आता है कि भाषाई स्वरूप क्या होना चाहिए। भाषाओं और बोलियों को राष्ट्रीय चरित्र निर्माण एवं राष्ट्रीय विकास के लिए बाधक तो किसी भी तरह नहीं होना चाहिए, बल्कि एक अच्छे समन्वयक की भूमिका निभानी चाहिए अन्यथा देश व समाज में कानून व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित होने लगेंगे। इसके अलावा एक जन्म भूमि, मातृ भूमि के लोगों को भाषा के आधार पर फूट डाल कर आपस में शत्रुता करवाने का अंग्रेज़ों का तरीका फिर सामने आने लगेगा जिससे राष्ट्रीयता की एकाग्रता भंग होगी। देश की हर भाषा एवं बोली को बोलने वाले लोगों को भाषाई मित्र, सहेली बन कर शालीनता का परिचय देना चाहिए। देश की विभिन्न भाषाओं को एक दूसरे का पूरक होना चाहिए एवं एक अच्छे समन्वयक की तरह राष्ट्र की संस्कृति, साहित्य और विकास में योगदान दिया जाना चाहिए। 
समन्वयक भाषा राष्ट्र के लिए अत्यंत आवश्यक होती है। यह लोगों के मध्य में सभी संचार तथा बोलचाल का सुगम माध्यम हो सकती है जिससे विभिन्न समुदाय के लोगों में भाईचारा, प्रेम, शांति व सहयोग बढ़ता है। इससे समरसता भी निर्मित होती है और समाज में शक्ति के साथ शांति भी शामिल होती है। हर समाज में भाषा का बहुत ज्यादा महत्व तथा भूमिका होती है। समृद्ध भाषा राष्ट्र निर्माण को बढ़ावा देकर एकता और अखंडता को मजबूत करती है। विभिन्न भाषाएं ही भारत राष्ट्र की विशेषताएं हैं। भाषा का समन्वय होना कई मायनों में महत्वपूर्ण तथा प्रभावी होता है। यह वोट बैंक की राजनीति को  दुर्बल करती है, राजनीतिक दलों द्वारा संकीर्ण मुद्दों तथा हितों को परे कर राष्ट्रीयता तथा राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देती है। 
भाषा पूरे देश में एक से दूसरे प्रदेश में जाने के लिए एक माध्यम का काम कर भारतीय पर्यटन को बढ़ावा देती है जिससे विदेशी मुद्रा का भी लाभ होता है। सभी भाषाओं के एक सूत्र में पिरोने का समन्वय करने से क्षेत्रीयता में कमी ला कर आतंकवाद, नक्सलवाद, अलगाववाद, क्षेत्रवाद की चुनौतियों को न्यून भी करती है। गांधी जी ने कहा था कि भाषा हिंद स्वराज, सर्वोदय को बढ़ावा देने का काम करती है।
 भारत सरकार ने विभिन्न भाषाई मुद्दों को समझाने का बहुत पहले 1956 में प्रयास कर भाषायी पुनर्गठन आयोग बनाकर भाषा के आधार पर राज्यों का गठन करने की पेशकश की थी। वैसे भी भारत सरकार राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी तथा अन्य भाषा भाषाई क्षेत्र के लोगों को भाषा सीखने के लिए प्रोत्साहित करती रही है। विभिन्न भाषाओं तथा अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र होने के बावजूद भारत अखंड माना जाता है। अत: भाषाओं का समन्वयक होकर रहना ही श्रेष्ठतम होगा।
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