प्रकृति के अंधाधुंध दोहन से विनाश की ओर बढ़ती पृथ्वी

सृष्टि के विकास का इतिहास देखते हैं तो पता चलता है कि ब्रिटिश सत्ता के दौरान हमारे संसाधनों एवं सम्पूर्ण प्रकृति का अंधाधुंध दोहन होता रहा है। आजादी हमें मिली ज़रूर लेकिन प्रकृति आजादी से अछूती रही है। अमूमन हमारी जरूरत रोटी, कपड़ा, मकान और जल की थी लेकिन हमको उद्योग धंधे का विकास तीव्र गति से करना पड़ा। मशीनें जितनी बड़ी से बड़ी होती गई आदमी उतना ही बौना होता गया। कृषि में नई-नई तकनीक ट्रैक्टर, रसायनिक उर्वरक, कीटनाशकों के प्रयोग से भूमि बंजर होकर कराहाने लगी। विकास का सही मायने माननीय शक्तियों के साथ ऊर्जा और उसकी शक्ति तथा सामर्थ्य का सही उपयोग ही होगा। जब से हमने विकास के पथ पर उड़ान भरी है उद्योगों की चिमनियों को ऊपर उठाया, मोबाइल क्रांति का बटन दबाया, ई-मेल पर सवार होकर विश्व संदेश को सुना, तब से हमारे झरनों का कल कल स्वर और संगीत बंद हो गया, पक्षियों का कलरव बंद हो गया। पक्षी अब चीत्कार कर रहे हैं।
नदी नाले सूखकर मृतप्राय हो गए हैं। समुद्र की लहरों की झंकार विलुप्त हो गई है और पानी कड़वा और खारा हो गया है। अब हमें यह सोचना है कि विकास के नाम पर हमें ग्रीन इंडिया चाहिए या इंटरनेट की सवारी कर डिजिटल इंडिया चाहिए। बच्चों की झोली में इंटरनेट को डालकर डिजिटल जेनरेशन का सपना देखना चाहिए या प्रकृति की गोद में सुगंधित वायु की लहरों में खो जाना चाहिए। झरनों में बैठकर नौका विहार का आनंद लेना चाहिए या कम्प्यूटर के समक्ष  बैठकर नेट खोल कर नन्हे मुन्ने की आंखों पर जोर डालकर उन्हें चश्मे वाला बनाना है। हरा भरा हिंदुस्तान यानी कि ग्रीन इंडिया और डिजिटल इंडिया का सपना नदी के दो कभी ना मिलने वाले किनारे हैं। विकास के नाम पर असीमित उद्योग धंधों की बाढ़ आ गई है। भूमि समाप्त हो रही है! साथ ही हमारी वायु विषैली हो गई है। रात में शहरी मकानों में बिजली के झालरों के सामने आकाश में रात्रि के तारों की चमक फीकी पड़ गई है। जंगलों को हम ऐसे साफ  करते गए जैसे सड़क पर रोड रोलर चला रहे हों। नगर बने, महानगर बने, मकान बने किंतु अब घर गायब होते गए। हमें तब सुध आई जब चिड़िया चुग गई खेत। हमें विकास के नाम पर मानव सभ्यता से जुड़ी जमीन पानी, हरियाली, पक्षी,जानवर सब चाहिएं, केवल अंधाधुन्ध कंक्रीट का विकास या इंटरनेट की रफ्तार नहीं चाहिएं। इसके लिए हमें संसाधनों के अंधाधुंध प्रयोग पर अंकुश लगाना होगा। संसाधनों का इस्तेमाल अतिरेक में नहीं होना चाहिए । महात्मा गांधी ने खुद कहा था कि पृथ्वी पर सभी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संसाधन हैं, किंतु मानव के लालच को पूरा करने का कोई साधन नहीं है। हमें प्राकृतिक परियोजना तथा परिस्थितिकी की परियोजनाओं का स्वागत करना होगा, सम्मान करना होगा। हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सौर, पवन, बायोगैस, ज्वार, तरंगों, लहरों को ऊर्जा का आधार बनाना होगा।
भारत में परिस्थितियां बड़ी विषम हैं। एक तरफ  सोडियम लाइट से नहायी दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु की रंगीन सड़कें हैं, ऊंची ऊंची इमारतें हैं, तेज गति की मेट्रो है, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का लुत्फ उठाते हुए युवक युवतियां है, दूसरी तरफ  पसीने से भीगा हुआ किसान है। कैरोसिन की चिमनी में बच्चों को कहानी सुनाती माताएं हैं। यानी कि इतनी डिजिटल विषमताएं भारत के अलावा विश्व के किसी भी कोने में नहीं हैं। भारत में विकास के नाम पर डिजिटलाइजेशन करने की आवश्यकता जरूर है परन्तु गांव, जंगलों, नदियों और प्राकृतिक संसाधनों के निरस्तीकरण और विनाश की कीमत पर नहीं। हमें यह साबित करना होगा कि भारत के विकास की हरित क्रांति के साथ-साथ डिजिटल इंडिया भी विकास की गति को बढ़ा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत की हरित क्रांति का विकास ही डिजिटल इंडिया के स्वप्न को भी पूरा करेगा। इसके लिए जब तक स्वच्छ, साफ.-सुथरे संसाधन जैसे जल, खनिज, यूरेनियम, एथोरियम नहीं होगा, तब तक नाभिकीय रिएक्टर की भट्टियां कैसे चलेंगी। विकास का जो भी रास्ता या नक्शा हम तैयार करेंगे, निश्चित तौर पर वह मार्ग हरित क्त्रांति या हरित विकास से होकर गुजरेगा जिससे हम अपनी 131 करोड़ जनसंख्या को स्वच्छ वातावरण दे पाएंगे और एक नए भारत की कल्पना को साकार कर पाएंगे।
-मो. 9009 415 415