आर्थिक तौर पर कमज़ोर वर्ग के लिए आरक्षण का फैसला क्या इससे आरक्षण का समूचा सिद्धांत प्रभावित हुआ है ?


अंग्रेज़ी की पुरानी कहावत है कि ‘गिव डॉग अ बैड नेम, ऐंड शूट हिम’ यानि, पहले कुत्ते को बदनाम करो, और फिर इसी नाम पर उसे गोली मार दो। ठीक ऐसा ही आरक्षण की नीति के साथ हुआ है। लम्बे अरसे से इस नीति को बदनाम किया जा रहा था। अब सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट ने मिल कर इसे मौत की सज़ा सुना दी है। सरकार भाजपा की है जो 1990 से ही कोशिश कर रही थी कि आरक्षण देने की शर्तों में किसी न किसी प्रकार आर्थिक आधार जोड़ दिया जाए। केवल इसी तरह भाजपा ऊँची जातियों के खाते-पीते हिस्सों को स्थायी लाभार्थी बना कर अपना स्थायी वोटर बना सकती थी। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने संसद में इसी म़कसद से संविधान संशोधन पेश किया, और तीन दिन के भीतर-भीतर ज़्यादातर राजनीतिक दलों की मदद से उस संविधान को बदल दिया गया जिसे बनाने वाली संविधान सभा ने ऊँची जातियों को आरक्षण देने पर विचार तक करने से इन्कार कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट में जब इस संशोधन को चुनौती दी गई तो उसने भी काफी दिन तक लटकाने के बाद इस पर अपनी मुहर लगा दी। इस घटनाक्रम को उस पूरी प्रक्रिया का चरम समझा जाना चाहिए जो कई वर्ष से चल रही थी। आरक्षण के प्रावधानों को राजनीतिक गोलबंदी के लिए चारे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था। 
सामाजिक-आर्थिक रूप से रंग-रुतबे वालों के सामने आरक्षण गाजर लटका कर उनके वोट बटोरे जा रहे थे। यह काम भी भाजपा ने शुरू किया था जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने राजस्थान में जाटों को आरक्षण दे कर उनके वोट कांग्रेस के खाते से निकाल लिये थे। इसके बाद तो गूजरों, मराठों और दूसरे दबदबे वाले समुदायों की तरफ से आरक्षण की मांगें होने लगी थीं। आरक्षण की नीति की साख पूरी तरह से गिर चुकी थी। बस, उसे एक धक्का देने की आवश्यकता थी। शायद इसीलिए प्रतिष्ठित समाजशास्त्री प्ऱोफेसर सतीश देशपाण्डे ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कहा है कि इससे सामाजिक न्याय और आरक्षण-नीति की अंत्येष्टि हो गई है। साथ में उन्होंने यह भी स्वीकारा है कि यह नीति लम्बे अरसे से मृत्युशैया पर अंतिम सांसें गिन रही थी। उनका तर्क है कि ऐसा करके सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू समाज के सर्वाधिक शक्तिशाली और सुविधासम्पन्न अल्पसंख्यक हिस्से को विशेष सुविधाएं प्रदान कर दी हैं। 
क्या प्ऱोफेसर देशपाण्डे का यह आकलन सही है? मोटे तौर पर उनकी बात सही मानी जा सकती है। लेकिन, ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर यह एक अधूरा सच ही लगता है। पूरा सच यह है कि आरक्षण की नीति अपनी शुरुआत से ही जाने-अनजाने अपने-अपने दायरों के तहत अपेक्षाकृत शक्तिशाली वर्गों को नौकरियों और शिक्षा में विशेष अवसर प्रदान करने के लिए इस्तेमाल होती रही है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के संदर्भ में यह नतीजा अनजाने में निकला है, लेकिन, पिछड़ी जातियों और अब ऊँची जातियों के संदर्भ में यह परिणाम जानबूझ कर निकाला गया है। संविधान सभा जब पूर्व-अछूतों और आदिवासियों को उनकी आबादी के मुताबिक आरक्षण का प्रावधान कर रही थी, तो उसके पास भारतीय परिस्थितियों में इस नीति के फलितार्थों का कोई अनुभव नहीं था। इसलिए जाटव, महार और माला जैसी संख्या-प्रबल और दूसरों के म़ुकाबले कुछ बेहतर स्थिति में जीवन-यापन कर रही पूर्व-अछूत जातियों की तऱफ आरक्षण के लाभों के झुकते चले जाने का पूर्वामान नहीं लगाया जा सकता था। इसी तरह जनजातियों के संदर्भ में भी भीलों, संथालों और मीणाओं सरीखे समुदायों के हाथ में इन फायदों के सिमट कर रह जाने का भी अंदाज़ा लगाना मुश्किल था। 
उस समय यह सोचने का कोई ठोस आधार नहीं था कि दलितों और आदिवासियों के बीच बहुत छोटी और अत्यंत कमज़ोर जातियों या कबीलों के साथ सामाजिक न्याय करने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयासों और युक्तियों की ज़रूरत पड़ सकती है। लेकिन, जब नब्बे के दशक में मंडल स़िफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिया गया, तो सामाजिक न्याय की नीतियों से होने वाले लाभों के समान वितरण से संबंधित व्यावहारिक समस्याओं की पूरी जानकारी हो चुकी थी। इससे संबंधित अधिकृत चेतावनियां भी उपलब्ध थीं। लेकिन, दुख की बात यह है कि इन्हें पूरी तरह से अनदेखा और अनसुना कर दिया गया। पिछड़े वर्गों को भी आरक्षण देने में अनुसूचित जातियों और जनजातियों वाली गलती दोहराई गई। आगे चल कर उसे ठीक करने से भी परहेज़ किया गया। अब यही गलती और भी विकराल रूप में आर्थिक रूप से दुर्बल ऊँची जातियों को मिले दस ़फीसदी आरक्षण के रूप में केवल दोहराई नहीं, बल्कि तिहराई जा रही है। 
यह तथ्य आम तौर से प्रकाश में आने से रह जाता है कि मंडल आयोग की रपट सर्वसम्मत नहीं थी। आयोग के एकमात्र दलित सदस्य आर.एल. नायक ने आयोग की स़िफारिशों पर अपनी असहमति दर्ज कराई थी। नायक का कहना था कि अन्य पिछड़े वर्गों को मोटे तौर पर बराबर-बराबर के दो हिस्सों में बांट कर देखना चाहिए। एक हिस्सा उन जातियों का है जो खेतिहर हैं। दूसरा हिस्सा उनका है जो कारीगर जातियां हैं। खेतिहर जातियां अपेक्षाकृत संसाधन-सम्पन्न हैं, और कारीगर जातियां छुआछूत को छोड़ कर ऐसी प्रत्येक दुर्बलता का शिकार हैं जिनका सामना पूर्व-अछूत समुदाय करते हैं। ऊपर से बाज़ार और तकनीक के विकास के कारण उनकी रोज़ी-रोटी की संभावनाओं का लगातार क्षय होता जा रहा है। दरअसल, इन जातियों को आरक्षण की कहीं अधिक आवश्यकता है। इस विश्लेषण का नतीजा यह था कि पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण में से एक अच्छा-़खासा हिस्सा कारीगर जातियों के लिए अलग से निर्धारित किया जाना चाहिए। नायक की इस स़िफारिश को बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता वाले आयोग ने ठुकरा दिया। उसकी असहमति का दस्तावेज़ आयोग की रपट का अंग बन कर रह गया। बाद में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी राजनीतिक चुनौतियों का सामना करने के लिए इन स़िफारिशों को लागू किया तो उन्होंने भी नायक की आपत्तियों को नज़रअंदाज़ कर दिया। सामाजिक न्याय की आकर्षक बातों को अगर एकबारगी अलग रख दिया जाए तो कुल मिला कर मंडल कमीशन की रपट खेतिहर जातियों के सशक्तिकरण और कारीगर जातियों को दुर्बलता के लिए अभिशप्त रखने की कवायद ही साबित हुई। 
उसी कहानी को आज दूसरे रूप और संदर्भ में दोहराया जा रहा है। संविधान संशोधन और उसकी तस्दीक करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार जिन ऊँची जातियों की आमदनी आठ लाख या उससे कम है, वे दस ़फीसदी आरक्षण की ह़कदार हैं। यानी ऊँची जातियों के जो परिवार 67,000 रुपये प्रति माह कमाते हैं, वे इस सीमा के मुताबिक आर्थिक रूप से दुर्बल माने जाएंगे। क्या यह सीमा निर्धारित करते समय सरकार या सुप्रीम कोर्ट ने भारत में ़गरीबी की सीमा-रेखा पर विचार नहीं किया था? ताज़े आंकड़ों के अनुसार इस सीमा-रेखा पर मौजूद पांच सदस्यीय परिवार साल में महज 72,000 रुपये ही कमा पाता है यानि यह ़फैसला इससे दस गुणा से ज़्यादा कमाने वाले लोगों को आरक्षण प्रदान कर देगा। पहली नज़र में ही यह उन लोगों और परिवारों को विशेष सुविधा देने का प्रावधान है जो कहीं से भी ़गरीबी के दायरे में नहीं हैं। उन्हें आराम से निम्न-मध्यम वर्ग या मध्यम वर्ग की श्रेणी में रखा जा सकता है। दूसरे, इस विडम्बना पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि संविधान सभा जिन समुदायों को आरक्षण देने के बारे में सोचने के लिए भी तैयार नहीं थी, उन्हें आठ लाख रुपये आमदनी की सीमा सकारात्मक रूप से विशेष सुविधाएं प्रदान कर देती है। और, जिन समुदायों को संविधान आरक्षण देने की जद्दोजहद कर रहा था, उन पिछड़े समुदायों को मलाईदार परत से जुड़ी आमदनी की यही सीमा आरक्षण से वंचित करने की पेशकश करती हुई दिखती है। 
इसमें कोई शक नहीं कि आरक्षण-नीति की अंत्येष्टि हो चुकी है। जो शेष रह गया है, वह है इसका निरन्तर होता हुआ राजनीतिक दोहन। जब वी.पी. सिंह ने नब्बे में ओबीसी आरक्षण लागू किया था, उसी समय भारतीय जनता पार्टी अकेली ऐसी राजनीतिक ताकत थी जिसने अपने घोषणा-पत्र में आर्थिक आधार के नाम पर आरक्षण देने की मांग की थी। वह ओबीसी आरक्षण का विरोध नहीं कर सकती थी, लेकिन अपने ऊँची जातियों के जनाधार को सम्बोधित करना उसके लिए ज़रूरी था। विडम्बना यह है कि आज तकरीबन हर पार्टी उसके तय किये गए इस एजेंडे को ही आगे बढ़ाते हुए दिख रही है।   
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।)