वास्तविकता से परे है भूख को लेकर भारत के अधोपतन की गाथा


पिछले दिनों ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत के अधोपतन की चर्चा जोरों पर रही। पूरा सोशल मीडिया इसे लेकर भारत सरकार खासकर नरेन्द्र मोदी के चरित्र चित्रण में लगा रहा। कुछ खास लोगों के लिए यह मोदी विरोध अथवा भाजपा के सरकार विरोध आदि के लिए अच्छा मौका बना। उन्हें मानो एकदम से बेहद बढ़िया मौका हाथ लगा। वर्तमान सरकार के विरोधियों को एकाएक भारत की गरीबी, भुखमरी और कुपोषण की चिंता सताने लगी। इस प्रसंग में जो आंकड़े सामने आये, उन्हें सामान्य ज्ञान के आधार पर भी बहुत आसानी से रद्द किया जा सकता था लेकिन इसपर थोड़ी चर्चा जरूरी है।
यह सत्य है कि अभी भी हमारे देश में कतिपय जमीनी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। तेजी से उनके समाधान के लिए न तो सरकार सक्रिय दिख रही है और न ही समाज प्रयत्नशील है, पर ऐसी भी कमी नहीं है कि भारत भूख के मामले पर 107वें स्थान पर खड़ा हो। दुनिया के मानक आर्थिक संस्थानों का मानना है कि भारत की इकोनामी तेज रफ्तार से आगे बढ़ रही है। कुछ का तो यहां तक कहना है कि 2029-30 तक भारत की गणना आर्थिक रूप से समृद्ध देशों में होगी। यह तो समय बताएगा कि कल क्या होगा लेकिन आर्थिक विशेषज्ञों के अनुमान को सिरे से नकारा नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में जब भारत में खाद्यान्न निर्यात की स्थिति है और खासकर गेहूं तथा चावल की कमी नहीं है तो यह आंकड़ा आया कहां से। 
सच पूछिए तो भारत दुनिया का एकलौता ऐसा देश है, जहां की सरकार अपनी कुल आबादी में से लगभग 80 करोड़ लोगों को सस्ता अनाज उपलब्ध करा रही है। गांव में कहीं खाद्यान्न का संकट नहीं दिखता है। कोरोना काल में भी जब दुनिया के समृद्धिशाली देश घुटने टेक रहे थे उस वक्त भी भारत ने अपनी जनता के लिए खाद्यान्न की कमी नहीं होने दी। हां, भ्रष्टाचार के कारण थोड़ी परेशानी हुई है लेकिन सरकार उस परेशानी में भी लोगों को खाद्यान्न उपलब्ध करा रही है। ऐसे में भूखमरी का हौवा खड़ा करना विशुद्ध राजनीतिक मुद्दा प्रतीत होता है। लोकतंत्र में सरकारों की आलोचना आम बात है। होनी भी चाहिए लेकिन ऐसे मुद्दे पर सरकार की आलोचना नहीं करनी चाहिए जिसमें सरकार का प्रदर्शन बेहतर हो।
ऐसे में हमें सर्वेक्षण करने वाले संस्थान व इकाइयों की ज़मीनी सच्चाई ज़रूर जाननी चाहिए। भारत सरकार को भी चाहिए कि वह ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर मौलिक भौतिक मूल्यांकन के आधार पर तथ्याधारित विवरण आम अवाम के समक्ष रखे ताकि अनावश्यक बातों को तूल देने वालों का मुंह बंद किया जा सके। इन दिनों तर्क दिए जा रहे हैं कि जब भारत को पांचवें नम्बर की इकोनॉमी बताया गया तो सरकार खुद की पीठ थपथपा रही थी। अब जब उसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने हंगर इंडेक्स में भारत को निचले पायदान पर खड़ा किया तो फिर आपत्ति क्यों? यक्ष प्रश्न यह है कि क्या दोनों की तुलना करना सही है? मुझे लगता है, नहीं। ऐसा कदापि नहीं है, क्योंकि हंगर इंडेक्स के मामले में कई देशों की रैंकिंग प्रथम दृष्टि में ही गलत दिखती है। कुछ लोग सरकार की मानसिकता की तारीफ  करते हैं और सस्ते में अन्न उपलब्ध कराने वाली योजना को सही ठहराते हैं लेकिन भ्रष्टाचार को इसके लिए कारण मान लेते हैं। यहां एक बात और बता दें कि खाद्यान्न वितरण की जिम्मेदारी राज्य सरकारों के पास होती है। यदि ऐसा है तो इसके लिए मोदी कहां दोषी साबित होते हैं? राजस्थान, बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड आदि प्रांतों में भाजपा की सरकार नहीं है, किन्तु आंकड़ों के अनुसार सबसे ज्यादा भूखे इन्हीं प्रांतों में हैं। ऐसे में केन्द्र की मोदी सरकार पर आरोप लगाना एकदम जायज़ नहीं है। 
कोविड वैक्सीन का मामला हो या कोविड से हुई मृत्यु, विदेशी और कुछ भारतीय मीडिया की गलत रिपोर्टिंग तथा अमरीका, स्पेन, इटली की बिगड़ी हालत को दबाने के लिए भारत के हालत को बढ़ा चढ़ा कर उछाला गया। सामान्य जीवन में भी अखबारों में, अस्पताल के गलियारों में, इलाजरत मरीजों के फोटो दिखने को मिलती रही हैं यानी अस्पतालों की बुरी हालत हमेशा से रही है। इसे अनदेखा कर कोविड के समय अप्रत्याशित हालत के लिए सरकार को दोषी ठहराया गया, लेकिन जब तसल्ली से पड़ताल हुई तो वास्तविकता कुछ अलग ही थी। अब हंगर इंडेक्स का नया मुद्दा सामने है और टारगेट मोदी के नेतृत्व वाली सरकार है। यह मुद्दा भी धराशायी होगा क्योंकि भारत के हर मजबूत नेता को पश्चिमी जगत ने कमज़ोर करने की कोशिश की है। मोदी मजबूत नेता के रूप में उभरकर सामने आए हैं। यही कारण है कि अमरीका से लेकर चीन तक भारत की नकारात्मक छवि को उभारने में लगे हैं। भारत में भी एक ऐसी लॉबी है जो अमरीकी इशारों पर काम करती है। भूख का मामला वास्तविकता से ज्यादा राजनीतिक प्रतीत होता है। इसके लिए न तो समाज को और न ही सरकार को घबराने की ज़रूरत है। (युवराज)