चुनौतीपूर्ण सिद्ध होंगे विधानसभा चुनावों के नतीजे


नरेंद्र मोदी एक ‘मजबूत और करिश्माई नेता’ हैं, जैसी धारणा की असत्यता बुरी तरह उजागर और चकनाचूर हो गयी है। गुजरात और हिमाचल विधानसभाओं और दिल्ली नगर निगम के चुनावों के साथ-साथ राज्यों में सात विधानसभा सीटों के उप-चुनावों के परिणामों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आरएसएस और मोदी के नेपथ्य में काम कर रहे लोगों की कड़ी मेहनत से बनायी गयी ‘मजबूत नेता’ की इमारत कमज़ोर हो गई है।
सभी प्रयासों, ऊर्जा और बड़े पैमाने पर वित्तीय संसाधनों को लगाकर भी हिमाचल और एमसीडी में भाजपा को प्राप्त नहीं हो सकी। भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अखिल भारतीय नेता के रूप में पेश करने में विफल रही। बिहार, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में हुए सभी सात उप-चुनावों में जीत हासिल करने में मदद नहीं की। यह एक तथ्य है कि चुनावों के दौरान आमतौर पर राजनीतिक कौशल की परीक्षा होती है। चुनावी सफलता राजनीतिक कौशल और नेता की गुणवत्ता की प्रकृति को निर्धारित और परिभाषित करती है, परन्तु हिमाचल के बहुचर्चित चुनाव में भाजपा की हार के बाद भाजपा नेताओं का एक गुट गुटबाजी का आरोप लगा रहा है। क्या यह राज्य की राजनीति में अचानक और आकस्मिक घटनाक्रम है। अत्यधिक अनुशासित पार्टी होने के नाते शीर्ष नेताओं को इस अस्वस्थता पर ध्यान देना चाहिए था, लेकिन वे असफल रहे।
उनकी विफलता इस तथ्य के कारण है कि वे मुस्लिमों को कोसने वाले एजेंडे से वंचित थे क्योंकि राज्य की जनसंख्या में हिंदुओं का भारी वर्चस्व है। दूसरा यह था कि उन्होंने विकास नीतियों को लागू नहीं किया। ज़ाहिर तौर पर इन दोनों मुद्दों ने राज्य के नेताओं को अपने निहित स्वार्थों का ख्याल रखने और गुटबाजी में लिप्त होने के लिए पर्याप्त समय प्रदान किया। चुनाव अभियान ने एक अलग और ज़ोरदार संदेश दिया कि स्थानीय लोग आपसी गुटबाजी से निराश थे और विकास की ज़रूरतों पर कम ध्यान दे रहे थे। राज्य बुनियादी ज़रूरतों और रोज़गार से पीड़ित था। जब भाजपा का सारा तमाशा मोदी के व्यक्तित्व और छवि के इर्द-गिर्द चलता रहा है, तो जनता के हितों का ध्यान रखना उनका कर्त्तव्य था।
एक मजबूत और निर्णायक नेता होने का मिथक भी सुशासन, तेज़ विकास और मज़बूत अर्थव्यवस्था की संरचना के इर्द-गिर्द घूमता है। चुनाव नतीजों ने इन्हें भी ध्वस्त कर दिया है। उनकी नीतियों और कार्यक्रमों की विफलताओं और पीछे हटने के कई उदाहरण हैं। उनकी एकमात्र चिंता चुनाव जीतना है, क्योंकि एक जीत नेता को उन्हें सबसे सक्षम प्रशासन और दूरदर्शी के रूप में स्थापित करने का अवसर प्रदान करती है। एमसीडी चुनाव में भाजपा की हार को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। एमसीडी पर 15 साल से भाजपा का कब्जा था। इस लम्बी अवधि ने वास्तव में लोगों को भाजपा नेताओं के प्रदर्शन का आकलन करने के लिए पर्याप्त समय प्रदान किया है। दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर के माध्यम से केजरीवाल सरकार को अस्थिर करने के भाजपा के प्रयासों को जनता ने अच्छा नहीं माना। 
हर गुज़रते दिन के साथ भाजपा ने चुनाव जीतने और अपने मिशन को पूरा करने के लिए सरकारी मशीनरी का खूब इस्तेमाल किया। अधिक राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए सभी लोकतान्त्रिक संस्थाओं को कमज़ोर और निष्क्रिय बना दिया गया है। एक कुशल प्रशासन प्रदान करने की उनकी क्षमता में तेजी से गिरावट आयी है। छवि और करिश्मे में गिरावट का कारण यह भी है कि मोदी ने इन नौ वर्षों में जो अंधभक्तों (अनुयायियों) का मज़बूत जमावड़ा खड़ा किया था, उसमें दरार पड़ने लगी है। हिमाचल में कांग्रेस और दिल्ली में आप की चुनावी जीत इसका गवाह है।
उन्हें गांधी फोबिया है, और भाजपा मुख्यालय में विजय रैली में उन्होंने एक बार फिर वंशवादी राजनीति पर कांग्रेस की हार का ठीकरा फोड़ा। यह वाकई विचित्र है। यह अपनी नाकामी छुपाने की आसान चाल है। वास्तव में मोदी के फरमान ने अपनी शक्ति खो दी है जो भाजपा के बागियों द्वारा चुनावी अखाड़े से निर्दलीय उम्मीदवारी वापस लेने से इन्कार करने में भी प्रकट हुआ था। भाजपा के 21 बागियों ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और पार्टी की छवि खराब की। अनुराग ठाकुर के लोकसभा क्षेत्र में पार्टी का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है। 
हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल, जिन्हें 2017 के विधान सभा चुनावों के बाद हाशिये पर धकेल दिया गया था, के बेटे हैं अनुराग ठाकुर। भाजपा में यह है वंशवाद। इसके अलावा, अगर जनता वास्तव में डबल इंजन सरकार के प्रदर्शन से संतुष्ट थी, तो मोदी को लगभग 51 चुनावी रैलियों को संबोधित करने और अपने गृह राज्य में 7 रोड शो आयोजित करने की कठोर कवायद नहीं करनी पड़ती।
भाजपा, आप और कांग्रेस को मिले वोटों के प्रतिशत पर नज़र डालने से जनता के समर्थन के मिथक का पर्दाफाश हो जाता है। भाजपा को 2017 में मिले वोटों की तुलना में 2 प्रतिशत अधिक वोट मिले थे, लेकिन उसे मिली सीटों की संख्या पिछले 99 से बढ़कर 156 हो गयी। कांग्रेस ने अपने वोट शेयर का लगभग 17 प्रतिशत खो दिया। दिलचस्प बात यह है कि ‘आप’ को 13 फीसदी वोट मिले। इसमें कोई शक नहीं कि ‘आप’ भाजपा की जीत सुनिश्चित करने के अपने मिशन में कामयाब रही। ‘आप’ कम से कम 39 सीटों पर कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण रही है। 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि गुजरात में सत्ता में अपने 27 वर्षों के कार्यकाल के दौरान भाजपा ने लोगों को पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया है। लेकिन इससे कहीं ज्यादा लोग भाजपा नेताओं के कोप से एक तरह से डरे हुए हैं। यह बहस का विषय है कि क्या गुजरात चुनाव के परिणाम ने 2024 में होने वाले राष्ट्रीय चुनावों के लिए मोदी की लोकप्रियता को बढ़ावा दिया है? परन्तु हाल के चुनाव परिणाम संकेत देते हैं कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की स्वीकार्यता बढ़ रही है। मोदी को यह नहीं सोचना चाहिए कि गुजरात चुनाव 2023 में कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के चुनावों के लिए स्प्रिंगबोर्ड साबित होगा। (संवाद)