पीलीभीत झूठे पुलिस मुकाबले का फैसला


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पीलीभीत झूठे पुलिस मुकाबले के आरोपी 43 पुलिस कर्मचारियों को राहत देते हुए उनकी उम्र कैद की सज़ा कम करके 7-7 वर्ष की कैद में बदल दी है तथा उन्हें निचली अदालत द्वारा किया गया 14-14 लाख का जुर्माना भी कम करके 10-10 हज़ार रुपए कर दिया है।
वर्णनीय है कि पीलीभीत झूठे पुलिस मुकाबले के उक्त 43 आरोपी पुलिस कर्मचारियों को 4 अप्रैल, 2016 को लखनऊ की सी.बी.आई. की विशेष अदालत द्वारा उम्र कैद तथा 14-14 लाख रुपए के जुर्माने की सज़ा सुनाई गई थी। यह घटनाक्रम 12 जुलाई, 1991 को घटित हुआ था। 25 सिख यात्रियों का जत्था नानकमत्ता, हज़ूर साहिब तथा अन्य गुरुद्वारों की यात्रा करके बस से लौट रहा था। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत ज़िले की पुलिस ने कछाला घाट के निकट इन यात्रियों की बस को रोक लिया तथा इसमें से 10 सिख यात्रियों को निकाल कर अपनी नीली बस में बिठा लिया और बाद में अलग-अलग स्थानों पर ले जाकर उन्हें झूठे पुलिस मुकाबले बना कर मार दिया। 9 सिख यात्रियों के शव तो बरामद हो गए थे परन्तु एक सिख यात्री तलविन्दर सिंह, जो उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर से संबंधित था, के संबंध में अभी तक कोई जानकारी नहीं है। पुलिस का आरोप था कि ये ़खालिस्तान लिबरेशन फ्रंट से संबंधित ़खतरनाक आतंकवादी थे तथा पुलिस के साथ उनका उस समय मुकाबला हो गया जब वे एक जंगल से बाहर निकल रहे थे। पुलिस ने इस संबंध में पूरनपुर, न्यूरिया तथा बिलसंडा थानों में 3 अलग-अलग मामले दर्ज किए थे। मारे गए इन सिखों में कुछ उत्तर प्रदेश से संबंधित थे तथा ज्यादातर पंजाब के बटाला एवं गुरदासपुर आदि ज़िलों से संबंधित थे। उत्तर प्रदेश सरकार तथा वहां की पुलिस ने इस मामले में पीड़ितों को न्याय दिलाने हेतु गहनता से जांच न करके आरोपी पुलिस कर्मचारियों को कोई सज़ा दिलाने की बजाए पूरा मामला बट्टे खाते में डाल दिया था। न्याय हासिल करने हेतु पीड़ितों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया तथा सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों पर इसकी जांच सी.बी.आई. को सौंपी गई थी। सी.बी.आई. ने गहनता से जांच करके ये तथ्य सामने लाए थे कि पीलीभीत के पुलिस कर्मचारियों ने सिख यात्रियों को झूठे पुलिस मुकाबले बना कर मारा था। इस संबंध में मामला लखनऊ की विशेष सी.बी.आई. अदालत में चला था। उसी अदालत ने ही 43 आरोपियों को उम्र कैद तथा जुर्माने की सज़ा सुनाई थी। आरोपियों द्वारा इस फैसले के विरुद्ध इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की गई थी तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आरोपियों की उम्र कैद को 7-7 वर्ष की कैद में बदल दिया तथा सी.बी.आई. कोर्ट द्वारा किया गया जुर्माना भी कम करके 10-10 हज़ार रुपए कर दिया।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की जिस पीठ ने यह सुनवाई की है उसमें जस्टिस रमेश सिन्हा तथा जस्टिस सरोज यादव शामिल थे। उन्होंने इस संबंध में फैसला सुनाते हुए यह तो स्वीकार किया है कि आरोपी पुलिस कर्मचारियों को कानून ने जो अधिकार दिए थे, उनका दुरुपयोग किया गया है। अदालत ने यह भी कहा है कि यदि कोई ़खतरनाक अपराधी भी है तो भी पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह उसे पकड़ कर मार दे। ़खतरनाक अपराधियों को भी पुलिस द्वारा गिरफ्तार करके सज़ा दिलाने के लिए अदालत के सामने पेश करना चाहिए। पुलिस को ऐसे आरोपियों को स्वयं सज़ा देने का अधिकार नहीं है। परन्तु साथ ही अदालत ने आरोपियों को राहत देते हुए सी.बी.आई. द्वारा उन पर लगाई गई धारा 302 आई.पी.सी. को बदल की धारा 304 पार्ट-1 आई.पी.सी. में बदल दिया तथा इस तरह आरोपियों को उम्र कैद से राहत देते हुए यह कहा कि आरोपियों ने ़गैर-इरादतन यह हत्याएं की थीं।
इस संबंध में हमारा यह विचार है कि उच्च अदालत ने झूठा पुलिस मुकाबला बनाने वाले पुलिस कर्मचारियों को आरोपी मानते हुए उनकी सज़ा बरकरार रखने का जो फैसला किया है, वह एक सही फैसला है इससे उत्तर प्रदेश तथा अन्य प्रदेशों के पुलिस दलों को भी यह सन्देश मिलेगा कि वह कानून का उल्लंघन करके झूठे पुलिस मुकाबले नहीं बना सकते तथा उन्हें अपनी कारगुज़ारी के चलते कभी न कभी तो जवाब देना ही पड़ेगा। परन्तु हमारा यह भी विचार है कि माननीय अदालत को इन आरोपियों के प्रति रियायत नहीं  देनी चाहिए थी, अपितु इन्हें निचली अदालत द्वारा दी गई सज़ा को बरकरार रखते हुए कड़ा सन्देश देना चाहिए था। उत्तर प्रदेश तथा पंजाब सहित ज्यादातर कई प्रदेशों में भी पुलिस द्वारा सरकारों की शह पर अपराधियों से निपटने हेतु झूठे पुलिस मुकाबले बनाए जाते रहे हैं। अनेक बार पुलिस अधिकारी तथा पुलिस कर्मचारी पदोन्नति लेने हेतु तथा सरकारों से शाबाश लेने हेतु ऐसे लोगों के भी झूठे पुलिस मुकाबले बना देते हैं, जिनका किसी भी अपराध में कोई हाथ नहीं होता।
पंजाब में 1980 से लेकर 1992 तक के खाड़कूवाद के दौर के दौरान भी व्यापक स्तर पर ऐसे झूठे पुलिस मुकाबले बनाए गए थे तथा बाद में दर्जनों ही मामलों में आरोपी पुलिस कर्मचारियों को सज़ाओं का सामना करना पड़ा था। पंजाब में अभी भी कुछेक अदालतों के ऐसे फैसले आ रहे हैं जिनमें पुलिस कर्मचारियों को झूठे पुलिस मुकाबलों के आरोपी मानते हुए सज़ाएं सुनाई जा रही हैं। परन्तु ऐसे ज्यादातर मामलों में सरकारों तथा संबंधित पुलिस विभाग अपने आरोपी पुलिस कर्मचारियों का पक्ष लेते हैं तथा लोगों को निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक इन्साफ प्राप्त करने के लिए दशकों तक संघर्ष करना पड़ता है, उपरोक्त मामला भी 1991  से संबंधित था। जिसके लिए पीड़ितों को इन्साफ हासिल करने के लिए 31 वर्ष तक संघर्ष करना पड़ा तथा इस संघर्ष में पीड़ितों की सहायता करने के लिए उत्तर प्रदेश के सिख प्रतिनिधि बोर्ड के अध्यक्ष डा. गुरमीत सिंह, उनके बेटे एडवोकेट हरजोत सिंह तथा एडवोकेट आर.बी.आई. सिंह ने बड़ी भूमिका अदा की है। जिन भी व्यक्तियों तथा संगठनों ने कानून का शासन बहाल करवाने तथा आरोपियों को सज़ाएं देने हेतु भारी दबाव वाली परिस्थितियों में निडरता से काम किया है, वह सभी प्रशंसा के पात्र हैं।