बड़े-बड़े दावों के बावजूद समान प्रतिनिधित्व से वंचित हैं महिलाएं 

यह सर्विदित है कि चुनावों में पुरुषों की तुलना में महिलाएं अक्सर अधिक मतदान करती हैं। इसके बावजूद महिलाओं को चुनाव लड़ने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां कम टिकट देती हैं, इनमें वे दल भी शामिल हैं जिनकी प्रमुख महिलाएं हैं,  जैसे ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और मायावती की बसपा। महिलाओं को अगर प्रत्याशी बनाया भी जाता है तो अमूमन कठिन चुनाव क्षेत्रों से, हालांकि उनकी जीत की संभावना किसी भी सूरत में पुरुषों से कम नहीं होती है। स्थानीय इकाइयों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित हैं। महिला आरक्षण विधेयक, जिसके तहत विधानसभाओं व संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान था, को 2010 में राज्यसभा में पारित कर दिया गया था, लेकिन फिर उसे आगे बढ़ाया नहीं गया जिससे वह ठंडे बस्ते में चला गया। इस प्रकार महिलाओं को प्रतिनिधित्व के समान अधिकार से वंचित किया जा रहा है।
हाल ही में हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में महिलाओं ने रिकॉर्ड 76.8 प्रतिशत मतदान किया और पुरुषों का मतदान प्रतिशत 72.45 रहा। इस पहाड़ी राज्य में महिलाओं के अधिक मतदान करने की वजह से ही कांग्रेस को सफलता मिली, विशेषकर इसलिए कि निरन्तर बढ़ रही महंगाई की चुभन रसोई में रहने वाली महिलाओं को ज्यादा महसूस होती है और यह भी कि प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष (प्रतिभा सिंह) व कांग्रेस की स्टार प्रचारक (प्रियंका गांधी) दोनों महिलाएं थीं। गौरतलब है कि इस साल के शुरू में जिन पांच राज्यों उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मणिपुर व गोवा की विधानसभाओं के लिए मतदान हुआ था, उनमें भी वोटर लिंग अंतर अनुपात बेहतर हुआ है, खासकर उत्तर प्रदेश में 2017 में प्रति 1000 पुरुष 839 महिला मतदाता थीं जो 2022 में बढ़कर 868 हो गईं। उत्तर प्रदेश में महिला मतदान प्रतिशत (62.2) भी पुरुषों (59.3) की तुलना में बेहतर था यानी 2017 का रूझान 2022 में भी जारी रहा। इसी प्रकार बिहार व पश्चिम बंगाल में भी महिलाओं की मतदान में हिस्सेदारी ने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया था। ज्ञात रहे कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मतदान के मामले में महिलाओं (67.18 प्रतिशत) ने पुरुषों (67.01 प्रतिशत) को पराजित कर दिया था।
लेकिन इस बार गुजरात के विधानसभा चुनाव में महिलाओं (61.8 प्रतिशत) ने पुरुषों (66.7 प्रतिशत) की तुलना में कम मतदान किया। महिलाओं की मतदान हिस्सेदारी जो 2017 में 66.1 प्रतिशत थी, उसमें 2022 में चार प्रतिशत से अधिक की गिरावट देखने को मिली। 2012 में तो गुजरात में 69.5 प्रतिशत महिलाओं ने अपने मत का प्रयोग किया था। 2019 में महाराष्ट्र ने भी इसी तरह की गिरावट रिकॉर्ड की गयी थी कि 59.3 प्रतिशत महिलाओं ने ही अपने मत का प्रयोग किया था जबकि पुरुषों का यह प्रतिशत 62.8 था। ध्यान रहे कि महाराष्ट्र में 2015 में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से बेहतर था। इस गिरावट के अनेक कारण हैं, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि राजनीतिक पार्टियां महिला वोट की ताकत को तो समझती हैं किन्तु इस बात पर ध्यान नहीं देतीं कि प्रतिनिधित्व व सत्ता में हिस्सेदारी के नाम पर महिलाओं को क्या मिल रहा है? गुजरात के 182 विधायकों में केवल 15 महिलाएं हैं और हिमाचल प्रदेश में तो 68 विधायकों में केवल एक ही महिला है।
हालांकि राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने चुनावी घोषणा पत्रों में महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने का वायदा करती हैं, लेकिन यह वायदा भी जुमला बनकर रह जाता है। वे न विधेयक पारित करती हैं और न ही अपनी तरफ  से अधिक संख्या महिला प्रत्याशी मैदान में उतारती हैं। 2019 के आम चुनाव में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अपनी पार्टी बीजू जनता दल के 33 प्रतिशत टिकट महिलाओं को अवश्य दिए थे, लेकिन विधानसभा चुनाव में उन्होंने भी अन्य दलों की तरह गिनती के टिकट ही महिलाओं को दिए थे। जब टिकट ही नहीं मिलेंगे तो महिला प्रतिनिधित्व में वृद्धि कैसे होगी? हाल के गुजरात व हिमाचल प्रदेश चुनाव भी लिंग समता के प्रश्न का उत्तर देने में असफल रहे हैं। गुजरात में तीनों मुख्य पार्टियों ने कुल 542 प्रत्याशी मैदान में उतारे, जिनमें केवल 37 ही महिलाएं थीं। भाजपा की 17 महिला (9 प्रतिशत) प्रत्याशी थीं, कांग्रेस की 14 (8 प्रतिशत) व ‘आप’ की 6 (3 प्रतिशत)। अब आप स्वयं सोचें कि ये पार्टियां 33 प्रतिशत महिला आरक्षण से कैसे सहमत होंगी? बहरहाल, इन 37 महिला प्रत्याशियों में से 31 ने पहली बार चुनाव लड़ा, इसका अर्थ यह है कि केवल छह महिलाएं ऐसी थीं जिन्हें चुनाव का पूर्व अनुभव था।
गुजरात में एकमात्र वरिष्ठ महिला राजनीतिज्ञ वाव (उत्तरी गुजरात) की ठाकुर गेनीबेन नागाजी हैं, जो कांग्रेस के टिकट पर जीती हैं, शेष 14 महिला विधायक भाजपा से हैं। 2017 में 14 महिला विधायक थीं, जिनमें से सिर्फ  चार को ही दोबारा चुनाव लड़ने का अवसर दिया गया। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सियासत में जो कम महिला प्रतिनिधि हैं, उन्हें भी उनके पहले चुनाव के बाद अपना करियर बनाने या राजनीतिक अनुभव बढ़ाने का अवसर नहीं दिया जाता। गुजरात विधानसभा में महिलाओं की संख्या जो 70 वर्ष पहले थी, वह 2022 में केवल दोगुणा ही हो पायी है। गुजरात में महिला प्रतिनिधित्व इस समय मात्र 7 प्रतिशत है।
हिमाचल प्रदेश में 68 विधायकों में केवल रीना कश्यप ही एकमात्र महिला है। वह सिरमौर जिले की पछाड़ आरक्षित सीट से भाजपा की टिकट पर जीती हैं। 2017 में चार महिला विधायक थीं, जिनमें से तीन ने इस बार फिर चुनाव लड़ा। छह बार की कांग्रेस विधायक आशा कुमारी डलहौज़ी में हार गईं। चार बार की भाजपा विधायक सरवीन चौधरी शाहपुर में पराजित हुईं और एक बार की भाजपा विधायक रीटा देवी को इंडोरा में शिकस्त का मुंह देखना पड़ा। हिमाचल प्रदेश के कुल 412 प्रत्याशियों में से सिर्फ  24 महिलाएं ही थीं, जिनमें 6 भाजपा के टिकट पर, तीन कांग्रेस के टिकट पर और पांच ‘आप’ की उम्मीदवार थीं। हिमाचल प्रदेश एक ऐसा राज्य हैं जहां न केवल महिला प्रतिनिधित्व बहुत कम है, बल्कि पिछले एक दशक से निरन्तर घटता आया है।
यह नतीजे इस तथ्य की स्वीकृति हैं कि महिलाओं के लिए राजनीति में प्रवेश की परम्परागत बाधाएं तो हैं ही, लेकिन जब चुनावी प्रतिस्पर्धा बढ़ती है तो पार्टियां महिलाओं को प्रत्याशी बनाने के संबंध में अधिक दकियानूसी हो जाती हैं। जब तक सियासी दलों की सोच में परिवर्तन नहीं आयेगा तब तक महिलाओं को अपनी राजनीतिक प्रतिभा दिखाने का पूरा अवसर नहीं मिलेगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर