ज़हरीली शराब से मौत पर मुआवज़ा क्यों? और कैसे?


मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने अभी हाल में छपरा ज़िले में ज़हरीली शराब पीकर हुई मौतों पर एक बहुत ही असंवेदनशील बयान दिया है जिससे प्रदेश की राजनीति में एक भूचाल आ गया है। कल तक नितीश की सहयोगी रही भाजपा बिहार सरकार और प्रशासन के विरोध में खुल कर सामने आ गई है तो कल तक शराबबंदी को पानी पी-पी कर कोसने वाली आरजेडी खुल कर शराबबंदी के पक्ष में आकर भाजपा शासित प्रदेशों में ज़हरीली शराब से हुई मौतों को गिना रही है। यद्यपि इस प्रकरण में सौ के लगभग दोषी पकड़े जा चुके हैं और ग्राम चौकीदार से लेकर एसएचओ तक निलंबित किये जा चुके हैं मगर इस घटना के संदर्भ में नितीश कुमार की टिप्पणी ने कई प्रश्न जनता के सामने खड़े कर दिए हैं।
किसी नागरिक की मृत्यु चाहे वह किसी भी कारण से हो, एक बहुत संवेदनशीलता का विषय है और इसे इतनी असंवेदनशीलता से नहीं लिया जाना चाहिए जिस तरह नितीश कुमार ने लिया है। वे अपनी बात को बहुत कोमलता से उसी आशय के साथ रख सकते थे जिस तरह से उन्होंने इसे प्रस्तुत किया। इस विषय में उनकी असंवेदनशीलता इतनी निंदनीय है जिसकी जितनी निंदा की जाये वह कम है।
इसमें कोई शक नहीं है कि मृतकों ने ज़हरीली शराब का सेवन किया और कुगति को प्राप्त हो गये किन्तु इसमें क्या सारा दोष उन्हीं का था? क्या शासन और प्रशासन की यह ज़िम्मेदारी नहीं थी कि उनके अधिकार क्षेत्र में जहरीली क्या किसी भी तरह की शराब, शराबबंदी के बाद न बिके। उससे भी बड़ा एक प्रश्न और उठ खड़ा होता है कि मृतकों के परिवार जो अब उनके जाने के बाद बेसहारा हो चुके है उनके प्रति शासन, प्रशासन की क्या कोई जिम्मेदारी नहीं है। क्या उनकी किसी भी तरह की सहायता उचित नहीं है और अगर उन्हें कोई सहायता या क्षतिपूर्ति दी जाती है तो क्या उससे ज़हरीली शराब बिक्री को और बढ़ावा मिलेगा?
सिद्धांतत:यह बात बिल्कुल सही है कि जब बिहार में शराबबंदी है तो उन्होंने यह जानते हुए कि उपलब्ध शराब मानकों पर खरी नहीं होगी और यह नुकसान भी दे सकती है, उसका सेवन क्यों किया। क्या यह सीधे-सीधे आत्महत्या का प्रयास नहीं था। भारतीय संविधान और परम्पराएं किसी भी सरकार को नियमत:यह इजाजत नहीं देती कि अपवाद को छोड़कर आत्महत्या पर कोई मुआवजा या क्षतिपूर्ति दी जाये। यह सिद्धांत मृतक पर व्यक्तिगत रूप से तो लागू होता है मगर इसमें उस व्यक्ति के परिवार या उसके आश्रितों की क्या गलती है जो उसके जाने के बाद बर्बादी के कगार पर खड़े हैं। सामान्यत: ज़हरीली शराब निम्न वर्ग के लोग ही सेवन करते हैं और उनके पास कोई जमापूंजी नहीं होती जिससे उनका परिवार अपना कुछ समय तक ही सही, अपना भरण पोषण कर सके।
भारतीय प्रशानिक व्यवस्था की यह सबसे बड़ी कमजोरी है कि उसके अधिकार क्षेत्र या कार्यकाल में उसके द्वारा किये गये या हुए कार्यों के प्रति उसकी कोई स्थापित जिम्मेदारी निर्धारित नहीं की जाती जबकि उसे तनख्वाह केवल कोई गलत काम न होने देने और सही काम के सुचारू संचालन के लिए ही दी जाती है। अगर उससे कोई बड़ी गलती हो जाती है तो उसे कुछ दिनों के लिए निलंबित कर फिर बहाल कर दिया जाता है या फिर उसका स्थानांतरण कर मामले का पटाक्षेप कर दिया जाता है जबकि वास्तविकता यह होती है कि जिम्मेदार अधिकारी या कर्मचारी के अपने हित साधन, लापरवाही या फिर उसकी अक्षमता के कारण विधि विरुद्ध कार्य हुआ होता है, इसलिए घटना की ज़िम्मेदारी उसकी या उसके कार्यों का पर्यवेक्षण करने वाले अधिकारियों की बनती है मगर हर बार इस मूल तथ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है जिससे उसके व उस अपराध में सम्मिलित उसके साथियों के हौंसले बढ़ते हैं और वे अगली बार कुछ और ‘सेफ्टी मेजर्स’ लेकर कोई और उससे भी बड़ा अपराध करने की मनोदशा में पहुंच जाते हैं और यह सिलसिला आगे बढ़ता ही जाता है और बिल्कुल यही बिहार में शराबबंदी के क्रम में हो भी रहा है। शराब की एकाध बोतल रखने के आरोप में करीब छ:लाख से अधिक व्यक्ति तो जेलों में बंद हैं मगर अपने अधिकार क्षेत्रों में ज़हरीली शराब बिकवाने वाले अधिकारीगण मूंछों पर ताव दे रहे हैं, स्पष्ट है कि ये लोग शायद वे लोग होंगे जो पुलिस या अन्य अधिकृत अधिकारी की सेवा पानी नहीं कर पाए होंगे या फिर कोटा पूर्ति के लिए इनको एकाध बोतल के साथ बुक कर वाहवाही लूटी गयी होगी। अब यहां प्रश्न यह भी उठता है कि क्या शराबबंदी समाप्त कर दी जाये? तो इसका स्पष्ट उत्तर यह होना चाहिए कि बिल्कुल नहीं। इसका सीधा और सरल उपाय यह होना चाहिए कि चूंकि पुलिस की नज़र से बच कर कोई काम होता ही नहीं है, इसलिए पुलिस की जवाबदेही निर्धारित की जाये और जिस अधिकारी के अधिकार क्षेत्र में इस तरह की घटना हो।
अब अगला प्रश्न यह उठता है कि इस तरह की घटनाओं में मृतक व्यक्तियों के परिवारों का क्या किया जाये तो इसका भी सीधा और सरल हल यह है कि इसके लिए राज्य स्तर पर एक आयोग नियुक्त किया जाये जो घटना की गंभीरता और प्रकार को ध्यान में रख कर उचित मुआवज़े की धनराशियां तय कर दे ताकि उन्हीं मानकों के आधार पर पीड़ित परिवार को घटना के ज़िम्मेदार अधिकारियों के देयकों और उनकी चल अचल सम्पत्ति से मुआवज़े की धन-राशि प्रदान करने की व्यवस्था की जाये। इससे एक ओर जहां नौकरी जाने के डर के कारण और सम्पत्ति से वसूली कर मुआवजा देने की नीति के चलते हर जिम्मेदार अधिकारी या कर्मचारी अपने अपने क्षेत्र में अधिक से अधिक जागरूकता और सख्ती से अपनी जिम्मेदारियों का पालन करेगा और अपने कार्यक्षेत्र में इस तरह के अपराध नहीं होने देगा।
यह व्यवस्था पहली नज़र में अव्यवहारिक और कठिन जरुर लगेगी किन्तु यह अगर दृढ इच्छाशक्ति के साथ लागू कर दी जाये तो देश के अंदर अकल्पनीय अपराधहीनता का दौर शुरू होगा इसमें कोई शक नहीं है क्योंकि कोई अधिकारी या कर्मचारी अपनी नौकरी खोकर जेल नहीं जाना चाहेगा और मानवीयता के आधार पर मृतक के परिवार को मुआवजा भी मिल जाएगा जो उसके भविष्य की आधार शिला बन सकता है। (युवराज)