गम्भीर मसला

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान तथा हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की केन्द्रीय जल मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत के साथ सतलुज-यमुना सम्पर्क नहर संबंधी विवादों को सुलझाने  हेतु हुई बैठक का एक बार फिर कोई परिणाम नहीं निकला। सर्वोच्च न्यायालय ने विगत लम्बी अवधि की कवायद के बाद यह नहर खोदने संबंधी निर्देश दे दिया था तथा यहां तक भी कहा था कि यदि दोनों प्रदेश इसके लिए सहमत नहीं होते तो भी इस नहर की खुदाई की जानी चाहिए। हम समझते हैं कि लम्बी अवधि व्यतीत हो जाने के बाद भी यह मसला बेहद उलझा दिखाई दे रहा है। इसमें कई उतार-चढ़ाव तथा मोड़ आये थे। ज़मीनी ह़क़ीकतें भी बदल चुकी हैं। इस मसले पर बड़ी राजनीति भी खेली जाती रही है।
पंजाब की प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाली सरकार ने नदियों के पानी संबंधी इन्साफ  हासिल करने हेतु 1979 में पंजाब पुनर्गठन की नदियों के पानी संबंधी विवादित पंजाब विरोधी धाराओं—78, 79 एवं 80 को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती थी परन्तु उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1981 में तत्कालीन मुख्यमंत्री स. दरबारा सिंह पर दबाव डाल कर यह केस वापिस करवा दिया था। इसके बाद उन्होंने पंजाब पर पानी के विभाजन संबंधी एक अन्य पंजाब विरोधी समझौता प्रदेश पर थोप दिया था। फिर 1982 में उन्होंने पटियाला के कपूरी गांव में टक्क लगा कर सतलुज-यमुना नहर का निर्माण शुरू करवाने हेतु नींव-पत्थर रख दिया था। इसके बाद भी लम्बी अवधि तक पानी के विवाद संबंधी केस अदालतों में चलता रहा। अब इस संबंध में मुख्यमंत्री भगवंत मान ने पंजाब का पक्ष पेश करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया है कि पंजाब में पानी की भारी कमी आ चुकी है। प्रदेश के अधिकतर ब्लाक भूमिगत पानी खत्म होने के कारण डार्क ज़ोन की श्रेणी में पहुंच गये हैं तथा यह भी कि जब नदी जल संबंधी पहले समझौते किए गये थे, उस समय पंजाब को 18.56 मिलियन एकड़ फुट पानी मिल रहा था जो अब कम होकर 12.63 मिलियन एकड़ फुट रह गया है, जबकि हरियाणा को सतलुज-यमुना तथा अन्य स्रोतों द्वारा 14.10 मिलियन एकड़ फुट पानी मिल रहा है। नि:सन्देह सतलुज नदी में पानी कम हो रहा है तथा पंजाब के पास रह गई अढ़ाई नदियों से जो पानी पंजाब को मिलता है, वह प्रदेश की आज की सिंचाई ज़रूरतें पूरी करने के लिए नाक़ाफी है।
कृषि आधारित इस प्रदेश में पानी के बढ़ रहे संकट के कारण पहले ही बेहद चिन्ता पैदा हो चुकी है। पंजाब की अन्य पार्टियों ने भी इसी बात पर ज़ोर दिया है कि यहां पानी की कमी बेहद खटकने लगी है। इसलिए इसकी ज़रूरतों को दशकों पूर्व के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए। पंजाब की नदियों के पानी का एक बड़ा भाग पहले ही राजस्थान को जा रहा है। इसलिए अब कोई भी फैसला इन हकीकतों को समक्ष रख कर तथा प्रदेश की ज़रूरतों को आधार बना कर ही किया जाना चाहिए। इस विवाद को सुलझाने हेतु दुनिया भर में स्थापित नदियों के रिपेरियन सिद्धांत को भी महत्त्व दिया जाना चाहिए। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की सरकार ने जब 2004 में पानी के सभी समझौते विधानसभा द्वारा रद्द करवा दिए थे तो उस समय भी उन्होंने नदियों के पानी के रिपेरियन सिद्धांत पर ही ज़ोर दिया था। हमारे विचार के अनुसार इस विवाद के दो ही हल हो सकते हैं। एक यह कि नदियों के पानी का वितरण रिपेरियन सिद्धांत के अनुसार हो, या फिर पंजाब तथा हरियाणा को भिन्न-भिन्न स्रोतों से जो भी पानी प्राप्त है या प्राप्त होने वाला है, उसका न्यायसंगत जायज़ा लेकर आपसी सहमति से इनके वितरण का कोई हल निकाला जाये, ताकि दोनों प्रदेशों में परम्परागत भाईचारा भी बना रहे तथा ये दोनों प्रदेश एक-दूसरे के साथ सहयोग भी करते रहें।
अब यह बात भी सुनिश्चित बनाई जानी चाहिए कि पंजाब में पानी की बढ़ रही कमी के दृष्टिगत यहां प्रदेश की नहरों का भी तकनीकी पक्ष से इस तरह से आधुनिकीकरण किया जाना चाहिये कि सिंचाई हेतु पानी का समुचित ढंग से उपयोग किया जा सके।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द