खाद सब्सिडी से बढ़ रहा है पानी का अदृश्य निर्यात

किसी भी वस्तु पर सब्सिडी यानी छूट देखने-सुनने में तो अच्छी लगती है लेकिन कृषि के लिए डीएपी खाद पर दी जा रही सब्सिडी पानी और राष्ट्र की सकल पूंजी को हानि पहुंचा रही है। दशकों से किसान को कृषि विभाग और वैज्ञानिक समझा रहे हैं कि नाइट्रोजन का अधिक इस्तेमाल खेत में न करें। इससे मिट्टी की उपजाऊ क्षमता घटती है और फसल को पानी भी अधिक देना पड़ता है। धान, गेहूं, कपास और गन्ना ऐसी फसले हैं, जो यदि मिट्टी की उपजाऊ क्षमता कम होती है तो पोशण के लिए ज्यादा पानी सोखती हैं। इसीलिए किसानों को मोटा अनाज, दालें व तिलहन पैदा करने और एनपीके खाद डालने को कहा जाता है। लेकिन इस बिंदु का विरोधाभासी पहलू है कि भारत सरकार यूरिया-डीएपी (नाइट्रोजन और फॉस्फोरस से बनी खाद) जैसी खादों पर भारी सब्सिडी देती हैं। नतीजतन मिश्रित एनपीके (नाइट्रोजन, फॉस्फेट एवं पोटाश से निर्मित) की जगह डीएपी खाद सस्ती पड़ती है। विडंबना है कि एनपीके पर सब्सिडी नहीं मिलने के कारण यह खाद महंगी मिलती है, जिससे किसानों ने इसे लगभग खारिज कर दिया है। सरकार डीएपी पर सब्सिडी इसलिए दे रही है, जिससे उसे राजनीतिक हानि न उठानी पड़े। सरकार ने यूरिया-डीएपी पर वर्तमान वित्तीय वर्ष में दो लाख करोड़ रुपये की प्रत्यक्ष सब्सिडी दी है। इस कारण खेती में चावल और गेहूं का रकबा इस साल बढ़ गया है। ये फसलें ज्यादा मात्रा में पैदा होती हैं और इन्हीं का ज्यादा निर्यात होता है। किसान बहु-फसलीय खेती करने से भी कतरा रहे हैं। इस वजह से देश को दलहन और तिलहन बड़ी मात्रा में आयात करने पड़ते हैं। इनके आयात में बड़ी मात्रा में विदेशी पूंजी भी खर्च होती है। यही नहीं गेहूं, चवाल फसलों को पैदा करने में पानी के प्रबंधन और बिजली व्यवस्था में जो धन खर्च होता है, वह भी अप्रत्क्ष निर्यात के जरिए नुकसान का सबब बन रहा है। राजनीति के परिप्रेक्ष्य में इस हकीकत का न तो खुलासा होता है और न ही विपक्ष इन मुद्दों को संसद में उठाता है।    
 खेती और कृशिजन्य औद्योगिक उत्पादों से जुड़ा यह ऐसा मुद्दा है, जिसकी अनदेखी के कारण पानी का बड़ी मात्रा में निर्यात हो रहा है। इस पानी को ‘वर्चुअल वाटर’ भी कह सकते हैं। दरअसल भारत से भारी मात्रा में चावल, चीनी, वस्त्र, जूते-चप्पल और फल व सब्जियां निर्यात होते हैं। इन्हें तैयार करने में अधिक मात्रा में पानी खर्च होता है। अब तो जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमारे यहां बोतलबंद पानी के संयंत्र लगाए हुए हैं, वे भी इस पानी को बड़ी मात्रा में अरब देशों को निर्यात कर रही हैं। इस तरह से निर्यात किए जा रहे पानी पर कालांतर में लगाम नहीं लगाई गई तो पानी का संकट और बढ़ेगा? जबकि देश के तीन चैथाई घरेलू रोज़गार पानी पर निर्भर हैं।
 भारत से कृषि और कृषि उत्पादों के जरिए पानी का जो अप्रत्यक्ष निर्यात हो रहा है, वह हमारे भू-तलीय और भू-गर्भीय दोनों ही प्रकार के जल भण्डारों को दोहन करने का बड़ा सबब बन रहा है। दरअसल एक टन अनाज उत्पादन में 1000 टन पानी की ज़रूरत होती है। चावल, गेहूं, कपास और गन्ने की खेती में सबसे ज्यादा पानी खर्च होता है। इन्हीं का हम सबसे ज्यादा निर्यात करते हैं। सबसे ज्यादा पानी धान पैदा करने में खर्च होता है। पंजाब में एक किलो धान पैदा करने में 5389 लीटर पानी लगता है, जबकि इतना ही धान पैदा करने में पश्चिम बंगाल में लगभग 2713 लीटर पानी खर्च होता है। पानी की इस खपत में इतना बड़ा अंतर इसलिए है, क्योंकि पूर्र्व भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में तापमान अधिक रहता है। इस कारण बड़ी मात्रा में पानी का वाश्पीकरण हो जाता है। खेत की मिट्टी और स्थानीय जलवायु भी पानी की कम-ज्यादा खपत से जुड़े अहम पहलू हैं। इसी तरह चीनी के लिए गन्ना उत्पादन में बड़ी मात्रा में पानी लगता है। गेहूं की अच्छी फसल के लिए भी तीन से चार बार सिंचाई करनी होती है।
इतनी अधिक मात्रा में पानी खर्च होने के बावजूद चावल, गेंहूं और गन्ने की व्यापक स्तर पर खेती इसलिए की जाती है, क्योंकि एक तो सब्सिडी के चलते डीएपी खाद सस्ती मिलती है, दूसरा गेहूं, चावल, चीनी एवं कपास का बड़ी मात्रा में निर्यात करके मोटा मुनाफा होता है। पंजाब व हरियाणा में चावल और गेहूं तथा महाराष्ट्र में गन्ने का भारी मात्रा में उत्पादन निर्यात के लिहाज से ही किया जाता है। 
पानी का अप्रत्यक्ष निर्यात न हो इसके लिए फसल प्रणाली में व्यापक बदलाव और सिंचाई में आधुनिक पद्धतियों को अपनाने की ज़रूरत है। ऐसा अनुमान है कि धरती पर 1.4 अरब घन किमी पानी है। लेकिन इसमें से महज 2 फीसदी पानी मनुष्य के पीने व सिंचाई के लायक है। इसमें 70 फीसदी खेती-किसानी में खर्च होता है। इससे जो फसलें व फल-सब्जियां उपजते हैं, निर्यात के जरिए 25 प्रतिशत पानी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में खपत हो जाता है। इस तरह से 1050 अरब वर्ग मीटर पानी का अप्रत्यक्ष कारोबार होता है। एक अनुमान के मुताबिक इस वैष्विक धंधे में लगभग 10,000 करोड़ घन मीटर वार्षिक जल भारत से फसलों के रूप में निर्यात होता है। जल के इस अप्रत्यक्ष व्यापार में भारत दुनिया में अव्वल है। खाद्य पदार्थों औद्योगिक उत्पादों और चमड़े के रूप में यह निर्यात सबसे ज्यादा होता है। 
पानी के अप्रत्यक्ष निर्यात के साथ बोतल बंद पानी और शीतल पेय बनाने वाली कंपनियां जल का प्रत्यक्ष निर्यात भी कर रही हैं। दरअसल, संभवत: भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां पानी राष्ट्रीय प्राथमिकता में है ही नहींए इसलिए पानी का निर्यात चाहे अप्रत्यक्ष हो रहा हो या प्रत्यक्षए देष के कर्णधारों के लिए यह चिंता का विशय नहीं है। इसके विपरीत ऐसे में डीएपी खाद पर सब्सिडी ऐसे उपाय हैं, जो पानी के दोहन और अदृष्य निर्यात का कारण बन रहे हैं। -मो. 094254-88224