कितनी हो आजीवन कारावास की अवधि ?

 

यह सवाल मानवीय सभ्यता के लिए हमेशा से ही चुनौतियां पेश करता रहा है कि सज़ा का आधार क्या हो—अपराध की जघन्यता, उम्र, पिछला आपराधिक रिकार्ड अथवा अन्य सबूत। ताउम्र कैद यानी सलाखों के पीछे पूरी ज़िंदगी काटना। उम्रकैद की अवधि कितनी हो? सज़ा से सुधारात्मक पहलू पुष्ट हो सकता है या कानून में बदलाव की ज़रूरत है?
आजीवन कारावास का मतलब दोषी की ज़िंदगी समाप्त होने तक जेल में रहने से है और इसका मतलब केवल 14 या 20 साल जेल में बिताना भर नहीं है। ऐसा लगता है कि इस बारे में एक गलत धारणा है कि आजीवन कारावास की सजा पाए कैदी को 14 साल या 20 साल की सज़ा काटने के बाद रिहाई का अधिकार है। ऐसे कैदी को आखिरी सांस तक जेल में रहना होता है बशर्ते कि उसे उचित प्राधिकार वाली किसी सरकार ने कोई छूट नहीं दी हो। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 53 के अनुसार अपराधियों को पांच प्रकार के दंड—मृत्युदंड, आजीवन कारावास, सश्रम या साधारण कारावास, सम्पत्ति की कुर्की और आर्थिक जुर्माना देने का प्रावधान किया गया है। 
संविधान के अनुच्छेद 72 के मुताबिक राष्ट्रपति और अनुच्छेद 161 के मुताबिक राज्यपाल आजीवन कारावास की सज़ा को इससे कम व अन्य सज़ा में बदल सकते हैं जिसमें अदालती हस्तक्षेप की सीमित संभावना रहती है। धारा 433 ए के अनुसार मृत्युदंड को कम करके आजीवन कारावास में बदला जा सकता है और मृत्युदंड के अपराधों के बदले दी गई आजीवन कारावास की सज़ा चौदह वर्ष से कम नहीं हो सकती। आजीवन कारावास की सज़ा उम्र पर्यन्त ही होती है और सुप्रीम कोर्ट भी इस बात को अपने फैसले में स्पष्ट कर चुका है। 
चर्चा का विषय अधिकतर यह होता है कि भारत में उम्रकैद की सज़ा आखिर कितने साल की मानी जाती है। पहले किसी को आजीवन कारावास की सज़ा दी जाती थी तो कुछ राजनीतिक बंदी ऐसे होते थे जिनको सरकार एक-दो साल में ही रिहा कर देती थी। सुप्रीम कोर्ट ने यह कह दिया है कि आजीवन कारावास के मामले में सरकार 14 साल बाद ही किसी को चाल-चलन अथवा अन्य उचित आधार पर सज़ा को कम कर सकती है। इसीलिए यह आम धारणा बन गई है कि आजीवन कारावास का मतलब 14 साल की सज़ा है जबकि ऐसा नहीं है। 
देखने में आया है कि निचली अदालतें किसी भी आरोपित को दोषी करार देने के बाद फांसी अथवा उम्रकैद की सज़ा सुनाती हैं। इसके बाद दोषी सज़ा के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करता है। हाईकोर्ट से सज़ा होने के बाद ही सजा शुरू होती है। हाईकोर्ट के पास संबंधित मामले में अपराध की जघनता, अपराधी का पूर्व रिकार्ड, उम्र, परिवार सहित कई अन्य बिंदुओं पर भी गौर किया जाता है। इसके आधार पर ही सज़ा को निर्धारित अथवा बदला जाता है। हमारे कानून के अनुसार सज़ा की अवधारणा अपराधी में सुधारात्मक बदलाव लाना है। इसी के तहत आईपीसी और सीआपीसी से सज़ा तय की जाती है। 
कई बार ऐसा होता है कि सुप्रीम कोर्ट सज़ा की अवधि भी तय करने लगी है, तीस साल या चालीस साल। अमरीका व अन्य देशों में तो 100-150 साल तक की सज़ा दी जाती है यानी अपराधी को जेल ही में मरना है। न्यायालय को कई बार ऐसा भी लगता है कि जिसे सज़ा दी जानी है, उसके सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है और जेल से बाहर आना समाज के लिए खतरा हो सकता है, तो अदालत आजीवन कारावास की सज़ा देता है। सज़ा को मुख्य रूप से 4 भागों अथवा तरीकाें में बांटा जाता ह—प्रतिकार, संतुलन, पुनर्वास और सामाजिक संरक्षण। इसकी व्याख्या करें तो हम पाएंगे कि अपराधी को सज़ा देने के निहितार्थ काफी गहरे हैं। मूल उद्देश्य उसके चरित्र में बदलाव लाना है। अब इसी से जुड़ी हुई बहस है कि सज़ा की अवधि कितनी होनी चाहिए। जैसे कि देखने में आता है कि न्यायाधीश उपलब्ध साक्ष्यों और गवाहों के आधार पर आरोपित को दोषी करार देते हैं। दोष सिद्ध होने के बाद अभियुक्त की सज़ा पर वकीलों की न्यायाधीश के समक्ष बहस होती है। इसको सुनने के बाद न्यायाधीश सभी तथ्यों के मद्देनज़र दोषी की सज़ा पर फैसला देते हैं यानी दोषी को कितनी सज़ा देनी है।  सज़ा की अवधि अपराधी द्वारा किये गए अपराध और अन्य बिंदुओं पर भी आधारित होती है। न्यायाधीश पैरोल मिलने अथवा नहीं मिलने का प्रावधान जोड़ सकता है। न्यायाधीश अपने फैसले में यह भी स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि दोषी पर लगाई गई धाराओं में सज़ाएं एक साथ चलेंगी अथवा अलग-अलग। 
यह भी तर्क दिया जाता है कि यदि मृत्युपर्यंत कारावास ही आजीवन कारावास के रूप में तय किया जाना है तो फिर कैदियाें को सुधारने के प्रयास कोरे ही साबित हो सकते हैं जबकि ऐसा नहीं है। हर सज़ा प्राप्त व्यक्ति को कैदी जीवन बिताने के दौरान अपने किए पर पछतावा होता ही है। उसे यह उम्मीद भी होती है कि अच्छा आचरण रहा तो वह इससे पहले भी जेल से रिहाई पा सकता है। जेल में कोई कैदी अच्छा आचरण रखता है तो उसे श्रमसाध्य काम नहीं करना पड़ता। उसे काफी हल्का काम दिया जाता है। 
हमारे अधिकांश कानून अंग्रेज़ों के ज़माने के हैं। कई कानूनों की प्रासंगिकता अब नहीं रही है। इसके लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं और कानून निर्माताओं यानी संसद को पहल करनी चाहिए। इसी से संबंधित मामला है कि देश में सज़ाओं की अवधि क्या हो और उसे किस प्रकार से अमल में लाया जाए। आखिर, सज़ा का मूल उद्देश्य सामाजिक और नैतिक व्यवस्था को तोड़ने वाले को दंड दे कर पुन: व्यवस्था में निरूपित करना है, हमेशा के लिए सलाखों के पीछे रखना नहीं। (अदिति)