पंजाबियत का मकरंद है लोहड़ी का उत्सव

लोहड़ी आने की आहट भर से, धान की बालियां गुनगुनाते हुए पकने लग जाती हैं। फसल खेतों में इतराने और मुस्कुराने लगती है। सूरज उत्तरायण में आने को उतावला हो जाता है और सर्दी अपने अलसाये बिस्तर को अनमनी दुल्हन सी समेटने लगती है...धीरे-धीरे।  प्रकृति भी अपनी अवगुंठित, अपरिमित और अजस्र उष्मा को हर एक पर उलीचना चाहती है अनवरत, हर गली चौराहे पर। लोहड़ी के पर्व पर प्रकृति कलश से उसका यौवन रूपी मकरंद धीरे-धीरे छलकने लगता है। बड़ा उत्सव धर्मा है यह मकरंद! जहां-जहां यह गिरता है, वहीं होने लगता है  बड़ा उत्सवों का आ़गाज़ और इन्हें सलीके से मनाने को खड़ा हो जाता है एक नया और मुकम्मल सांस्कृतिक पंजाब। लो आ गई लोहड़ी! प्राय: वैशाख मास की तेरह तारीख को मीठी लोहड़ी खा कर शुभ हो जाती है अपने पंजाब की पूरी कायनात।
भारत का उत्तर-पश्चिम भाग यानि पुराना और सम्पूर्ण पंजाब कोहरे की चादर से बाहर आना चाहता है और दमघोंटू पराली के धुएं को कैंचुल की तरह उतार फैंकना चाहता है।  पंजाबियत में रंगा हर व्यक्ति इस दिन चाहता है कि जीवन के विविध रंग मन के आंगन में बखूबी चटकें, चहचहायें और परम्पराओं की सामाजिक-सांस्कृतिक पूर्णता पल भर को यहीं ठहर जाये हमारे आस-पास!  यही तो है जीवन नृत्य और यही है मन का उत्सव। परिवेश को आनंदित करता यह पार्श्व गीत प्रकृति के अंग-उपांग द्वारा रोशनदानों के नाम लिखा एक बैरंग खत जैसा है। यह विपन्नता-सम्पन्नता के रुदन-प्रदर्शन का गीत नहीं है वरन् समता और समरसता की पैरोकारी का नृत्य है। मन से जुगलबंदी और ठिठोली करता मन केवल लोहड़ी के उत्सव पर ही तो मिलता है। युवक-युवतियों की तरह बिना रुके और बिना थके, हर तरह की दीवारों और सरहदों को नकारती पंजाबी फितरत का उत्सव है लोहड़ी।
लोहड़ी सामूहिक गीत और बधाइयों का दुपट्टा है, मन को ललचाता हुआ, मदमाता हुआ। उत्तरायण की ओर आते हुए भगवान भास्कर मकर संक्रांति की पूर्व संध्या को जब अस्ताचल की ओर टहलने चले जाते हैं तो मौका देख कर बच्चों की नटखट टोली हाथों में थैले लेकर चल पड़ती है हर घर में लोहड़ी गाने और तिलचौली खाने। इस टोली को अमूमन सभी घरों से लोहड़ी मिलती है... फिर भी अगर किसी ने मना किया तो, बच्चे चिढ़ाते हुए कहते हैं, ‘हुक्का भई हुक्का ए घर भुक्खा!’ 
लड़कियां भी लोहड़ी लेने हेतु भरसक यत्न करते हुए गाती हैं,
‘साडे पैरां हेठ रोड़, सानू  छेती-छेती तोर!
साडे पैरां हेठ परात,  सानूं  उत्तों पै  गई रात!’
जब मिल जाती है मन-माफिक लोहड़ी तो बच्चे आभार भी उसी बालपन से करते हैं,
डब्बे दे विच घियो, जीवे मुंडे दा पियो !
शाम होते ही मुहल्ले के बड़े-बूढ़े-अधेड़़ अपने यार-दोस्तों के साथ आग जलाते हैं और धीर-धीरे सभी महिलाएं, पुरुष और आस पास के लोग आग के चारों तरफ  खड़े हो जाते हैं। ढोलक की थाप पर तिलोड़ी मनती है और  लोक गीत गाए जाते हैं :
‘सुंदर-मुंदरिये हो 
तेरा कौन विचारा हो।   
दुल्ला भट्टी  वाला हो।
सेर शक्कर पाई हो 
कुड़ी दे बोझे पाई हो। 
चाचे चूरी कुट्टी, हो।
श्रद्धा और सम्मान के साथ लोकगीत के माध्यम से मुगलकाल के अकबर युग में बेटियों के साथ हुए अत्याचार और उनकी सुरक्षा के सामाजिक-सांस्कृतिक  बोध को याद दिलाती, दुल्ला भट्टी की अमर कहानी है। इस प्रसंग में पंजाबी शौर्य का प्रतीक एक युवा दुल्ला भट्टी जंगल  में रह कर मुगल सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की अग्नि दहकाता रहता है। वहीं गांव के एक ़गरीब परिवार की दो बेटियां जिनका नाम सुन्दरी और मुन्दरी था, की शादी में इलाका-वज़ीर की ओर से कर अदायगी की मांग के कारण डोली नहीं उठने दी जा रही थी। इस पर इलाके के शूरवीर बागी नेता दुल्ला भट्टी ने जो जंगलों में रहता था, अपनी तलवार के बल पर, और गांवों से मांगी गई राशि से कर अदा करके उनकी डोली को विदा कराया गया। इसी के कारण लोहड़ी पर बच्चे जो गीत गाते हैं, उसमें इन दोनों बहिनों का ज़िक्र होता है।
पंजाबी संस्कृति में लोहड़ी बधाई लेने-देने का अनमोल पर्व है। इस दिन बधाई देने वाला दो मुट्ठी तिल-गुड़ के बदले हँसते-हँसते सामने वाले की पूरी झोली भर जाता है। 
‘दे माई लोहड़ी, तेरी जीवे जोड़ी’
‘कोठी उत्ते कां गुड़ दे मुंडे दी मां!’ 
लोहड़ी में मूंगफली, मक्का, गुड़ और तिल से बनी चीजें, जैसे तरह-तरह की रेवड़ी, गज़क और इनसे बने मिष्ठान्न अर्पित किये जाते हैं, खाये और खिलाये जाते हैं। यूं पंजाब, हिमाचल, हरियाणा और दिल्ली सहित देश के कई भागों के लोगों ने इस तहज़ीब को जीवित रखा है जिसे लोहड़ी कहा जाता है।