राजनीतिक दलों के भीतर ही लोकतंत्र नहीं 

 

राजनीतिक दल देश में लोकतंत्र स्थापना की लड़ाई लड़ने और अंतिम आदमी को उसका हक दिलाने की बात करते हैं, जबकि सही मायने में खुद राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नहीं है। छोटी-बड़ी हर पार्टी एक ही राह पर चल रही है। इस वजह से कोई दल इस दूसरे के खिलाफ  नहीं खड़ा हो रहा है। पहले कांग्रेस इस बीमारी की शिकार थी पर बाद में धीरे-धीरे सभी दल इस राह पर चल पड़े हैं। क्षेत्रीय दलों के आने के बाद तो यह बीमारी महामारी का रूप ले चुकी है।
पार्टी संविधान कानून के मुताबिक पार्टी अध्यक्ष का चुनाव करना मजबूरी होती है, इसलिए पार्टी अध्यक्ष के चुनाव का दिखावा केवल खानापूर्ति भर के लिए किया जाता है। सच बात है कि राजनीति में जिसकी पार्टी, वही अध्यक्ष का फार्मूला चल रहा है। कांग्रेस में परिवार के लोग अध्यक्ष होते थे तो सभी दल उस पर परिवारवाद के आरोप लगाते थे, अब सारे दल उसी राह पर हैं। सालोंसाल से पार्टी संस्थापक ही पार्टी का अध्यक्ष होने लगा है। समय-समय पर उसे अध्यक्ष चुने जाने की घोषणा करके जनता को यह दिखाया जाता है कि उक्त पार्टी में भी लोकतंत्र है। किसी दल में अध्यक्ष का चुनाव नहीं होता। इसी वजह से दलों में आंतरिक लोकतंत्र खत्म होती जा रही है। कम्यूनिस्ट पार्टियों में इस बीमारी को दूर रखा गया है परन्तु वहां भी अब नए नेता का उदय नहीं हो रहा। भारतीय जनता पार्टी इस बात का दिखावा करती है कि उसके संगठन में आंतरिक लोकतंत्र है। सच्चाई यह है कि सालोंसाल से किसी अध्यक्ष का चुनाव मतदाता पेटी के जरिए नहीं हुआ है। वहां भी आपसी सहमति के नाम पर लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है।
असल में अब राजनीति सेवा का ज़रिया नहीं रही। ऐसे में हर कोई पार्टी को अपने कब्जे में रखना चाहता है। यह शुरूआत कांग्रेस से हुई जब इंदिरा गांधी अपने मन से लोगों का चयन करती थीं। अब पार्टी अध्यक्ष ही नहीं, पार्टी के मुख्यमंत्री तक के लिए विधायकों की राय नहीं ली जाती। पार्टी अध्यक्ष विधायकों से अपनी बात मनवा लेता है। अब पार्टियां जनता के सहयोग या चंदे से नहीं चलतीं। इनको चलाने में किसी कम्पनी की तरह निवेश करना पड़ता है।
दरअसल, पार्टी संस्थापक अपने बल और प्रभाव से निवेश करवाता है। ऐसे में वह किसी भी तरह से पार्टी को अपने ही प्रभाव में रखना पसंद करता है। (युवराज)