प्रसाद तो जितना बंट जाए, उतना ही अच्छा है

 

राम प्रसाद को बड़ी ही श्रद्धा से उदरस्थ करते हैं। पहले उसे माथे से लगाते हैं फिर दाएं हाथ की हथेली पर सम्मानपूर्वक रखकर मुंह के अंदर डालते हैं। पहले मैं समझता था कि लोग पहले प्रसाद को सूंघकर देखते हैं कि स्मैल तो नहीं है पर मेरी धारणा मिथ्या थी। प्रसाद को भी कहीं सूंघकर खाया जाता है? कई बार प्रसाद में थोड़ी बहुत महक भी होती है तो भी हम शिकायत नहीं करते और प्रसाद को सीधे पेट के हवाले करके ही दम लेते हैं। बाद में एक दिन पता चला कि मेरी मिथ्या धारणा भी मिथ्या थी। पर ये हमारी घोर नास्तिकता का प्रमाण है जो हम प्रसाद में भी स्वाद खोजते हैं। यदि प्रसाद में थोड़ी बहुत महक भी हो तो प्रसादवत एक बूंदी मुँह में डालने के बाद बाकी का सारा प्रसाद बांट देना चाहिए। प्रसाद तो जितना बंट जाए उतना अच्छा। प्रसाद के तो दो दाने भी बहुत। समझदार लोग ऐसा ही करते हैं। ठीक हो तो सारा खा लेंगे वरना सारा पड़ोसियों में बांट देंगे। ये सिलसिला चलता रहता है और पड़ोसियों में आपसी संबंध प्रगाढ़ होते रहते हैं।
 मेरे कई परिचित हैं जो प्रसाद के बड़े शौकीन हैं। जब भी उन्हें कुछ मीठा खाने की इच्छा होती है और आसपास कहीं से भी प्रसाद नहीं मिल पा रहा होता है तो वो मंदिर हो आते हैं। पूजा के साथ पेट पूजा भी आसानी से हो जाती है। पुजारी जी भगवान का भोग लगाने के बाद जितना भी प्रसाद वापस लौटाते हैं सारा उनके पेट के हवाले हो जाता है। वो हमेशा अपनी पसंद की दुकान से अपनी पसंद की मिठाई का प्रसाद ही खरीदते हैं। वैसे प्रसाद बाँट कर खाना चाहिए लेकिन ऐसा प्रसाद भी कभी बाँटकर खाया जाता है! बांटकर खाया जाने वाला प्रसाद दूसरा होता है। किसी कॉलोनी में नए आए हैं तो मुहूर्त के दिन यदि खाने.पीने का सामान बच जाता है तो न केवल प्रसाद के नाम पर उसको ठिकाने लगाने में आसानी होती है  अपितु नए पड़ोसियों से मुक्त में अच्छे संबंध भी बन जाते हैं और दिनभर की दौड़-धूप के बाद एकाध जगह चाय-शाय भी नसीब हो जाती है। प्रसाद का माहात्म्य ही ऐसा है।
 कहते हैं न कि प्रसाद कोई पेट भरने के लिए थोड़े ही होता है प्रसाद के तो दो दाने ही बहुत। प्रसाद कैसा भी क्यों न हो उसको इधर-उधर फैंकना अशुभ माना जाता है इसलिए जो प्रसाद नहीं खाया जाता या खाना संभव नहीं होता उस प्रसाद को भी फैंकने की बजाय लोग पड़ोसियों में बांट देते हैं। पड़ोसी उपलब्ध न हों तो किसी राह चलते को रोक कर उसके हाथों पर धर देते हैं। कई लोग तो जब इस तरह का प्रसाद बांटना हो तो घर के अंदर खिड़की के पास खड़े हो जाते हैं और जैसे ही कोई सुंदर.सी महिला वहाँ से गुजरती दिखलाई पड़ती है फौरन बाहर आकर प्रसाद बांटना शुरू कर देते हैं। कोई राह चलता भी हाथ न आए तो रिश्तेदारों के यहां भिजवा देते हैं या कोई मिलनेवाला आया हो तो उसको बांध देते हैं। प्रसाद बांटने की चीज़ है। प्रसाद तो जितना बांटा जाए उतना ही अच्छा है। प्रसाद के तो दो दाने भी बहुत। हमारे जैसे छोटे लोग ही नहींए जो बड़े लोग होते हैं वो भी प्रसाद को कभी नहीं फेंकते।
 बड़े लोग प्रसाद को खुद न खाकर अपने सर्वेंट या मेड को दे देते हैं जो पहले तो उस प्रसाद को कई बार माथे से लगाते हैं लेकिन जब उसे गले से नीचे उतारना संभव नहीं होता तो अपना माथा पीटकर रह जाते हैं। जो सर्वेंट या मेड अनुभवी होते हैंए और अधिकांश प्राय: अनुभवी ही होते हैं क्योंकि उन्हें रोज ही किसी न किसी घर से प्रसाद मिलता ही रहता है, वे प्रसाद को वहीं खाने की बजाय ये कहकर अपने थैले में रख लेते हैं कि घर जाकर सबको थोड़ा-थोड़ा दे देंगे। प्रसाद तो जितना बँट जाए उतना अच्छा। प्रसाद के तो दो दाने भी बहुत। सर्वेंट या मेड भी प्रसाद को फेंकते नहीं अपितु रास्ते में जिस भी पहली गऊ.माता के दर्शन हो जाते हैं हाथ जोड़कर उसके हवाले कर देते हैं। इतना ही कहूंगा कि प्रसाद हमारी आस्था का प्रतीक है अत: उसे ग्रहण करने-करवाने में संकोच मत कीजिए और यदि ग्रहण करने में सचमुच कोई अड़चन आ भी जाए तो उस प्रसाद से दूसरों की आस्तिकता अथवा भक्ति-भावना की परीक्षा लेने में तो बिल्कुल संकोच मत कीजिए।
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